कौन हैं अहमदुल्ला शाह, जिनके नाम पर हो सकती है अयोध्या में बन रही मस्जिद

अयोध्या
अयोध्या के धन्नीपुर गांव में बनने वाली मस्जिद का नाम महान स्वतंत्रता सेनानी अहमदुल्ला शाह के नाम पर रखने का विचार हो रहा है। अहमदुल्ला शाह 1857 की क्रांति के योद्धा थे जिनके नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली जंग में अवध को जीता गया था। उनके शौर्य का लोहा अंग्रेज भी मानते थे इसलिए उन्हें फौलादी शेर कहकर बुलाते थे। कहते हैं कि उनकी संगठन शक्ति इतनी मजबूत थी कि लाख कोशिशों के बावजूद भी अंग्रेज हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ नहीं पाए थे।

मस्जिद बनाने के लिए यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से गठित ट्रस्ट इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (IICF) की ओर से इस खबर की पुष्टि मीडिया को की गई है। हालांकि ट्रस्ट के सचिव अतहर हुसैन का कहना है कि विचार विमर्श के बाद अंतिम फैसले की घोषणा की जाएगी। 

आइए जानते हैं कि अहमदउल्ला शाह कौन थे-

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के लिए देसी फौज 31 मई 1857 को शुरुआत करने वाली थी लेकिन इसका शंखनाद 10 मई को मेरठ से हो गया था। हालांकि बहुचर्चित किताब भारत में अंग्रेजी राज में प्रतिष्ठित लेखक सुंदरलाल ने लिखा है कि ‘बगावत की जितनी अच्छी तैयारी अवध में थी, वह कहीं और नहीं देखी गई। 1857 में सितंबर के तीसरे हफ्ते में बहादुरशाह जफर की गिरफ्तारी के साथ दिल्ली की सत्ता अंग्रेजों के हाथ आ गई थी लेकिन अवध अगले साल मार्च तक अंग्रेजों से लोहा लेता रहा।’

‘फौलादी शेर’ कहकर बुलाते थे अंग्रेज
ब्रिटिश शासन से लोहा लेने वाले और उनको नाकों चना चबवाने वालों में सबसे बड़ा नाम मौलवी अहमदउल्ला शाह ‘फैजाबादी’ का था। उनके कई नाम थे मौलवी अहमदउल्ला शाह फैजाबादी उर्फ नक्कारशाह उर्फ डंकाशाह फैजाबादी। कहते हैं कि जब भी वह किसी अभियान पर निकलते थे, तो उनके आगे-आगे डंका या नक्कारा बजता रहता था। इस वजह से उनके नाम से नक्कारशाह या डंकाशाह जुड़ गया। उनकी बहादुरी की वजह से अंग्रेज उन्हें ‘फौलादी शेर’ कहते थे।

रायबरेली के राणा के साथ बांधी हिंदू-मुस्लिम एकता की डोर
इतिहासकारों का कहना है कि, अंग्रेज अगर उन दिनों किसी भी तरह अवध की हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं तोड़ पाए, तो इसका श्रेय अहमदउल्ला शाह को ही है। उन्होंने रायबरेली के शंकरपुर के राणा वेणीमाधो सिंह के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिम की संगठन शक्ति मजबूत की। उन दिनों बगावत के न्यौते के तौर पर रोटी व कमल का फेरा लगवाने की सूझ भी मौलवी की ही थी।

किसी गांव या शहर में बागियों की तरफ से जो रोटियां आती थीं, उन्हें खाने के बाद वैसी ही ताजा रोटियां बनवाकर कमल के साथ दूसरे गांवों या शहरों को रवाना कर दी जाती थीं। रोटियां खाने का मतलब होता था कि वे भी गदर में शामिल है और इसका धर्म या जाति से लेना-देना नहीं है।

अंग्रेजों के आगे कभी घुटने नहीं टेके
स्वतंत्रता संग्राम से पहले अंग्रेजों ने फरवरी 1857 में मौलवी और उनके समर्थकों से हथियार डालने को कहा। जब मौलवी ने बात नहीं मानी तो अंग्रेजों ने प्रलोभन देना शुरू किया। जब फिर भी बात नहीं बनी तो उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी किए गए। लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता की स्थिति ऐसी थी कि अवध पुलिस ने उनको गिरफ्तार करने के आदेश को ही मानने से इनकार कर दिया। फिर अंग्रेज फौज ने आकर 19 फरवरी, 1857 को गिरफ्तार किया। उन्हें जंजीरों में बांधकर फैजाबाद शहर घुमाया गया और फांसी की सजा सुना दी गई।

फैजाबाद की जनता ने जेल में बोला धावा
8 जून 1857 को फैजाबाद शहर की जनता और बागी देसी फौज ने जेल पर हमला करके वहां बंद मौलवी को छुड़ा लिया। फिर तो सबने मिलकर अपने इस प्रिय नेता को अपना मुखिया चुना और उसकी आमद में तोपें दागीं। मौलवी ने बागी फौज की कमान संभाल ली और फैजाबाद को अंग्रेजों से आजाद कराने के बाद राजा मान सिंह को उसका शासक बनाया। इसके पीछे भी उनकी हिन्दू-मुस्लिम एकता की ही सोच थी।

लखनऊ में क्रांति के सबसे योग्य नेता
इसके बाद मौलवी ने तत्कालीन आगरा और अवध प्रांत में घूम-घूमकर क्रांति की ज्वाला जगाई। लखनऊ में रेजिडेंसी के घेरे और चिनहट की लड़ाई में उन्होंने जिस कुशलता का परिचय दिया, उसे देखते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि लखनऊ के क्रांति के सबसे योग्य नेता वही थे। यह भी कहा जाता है कि बागियों के कमजोर पड़ने पर मौलवी ने उन्हें छापामार लड़ाई की रणनीति अपनाने को कहा था।

अंग्रेजों ने रखा था 50 हजार रुपये का इनाम
15 जनवरी 1858 को गोली लगने से वह घायल हो गए लेकिन मनोबल नहीं टूटा और अंग्रेजों से बराबर मुकाबला किया। लखनऊ पतन के बाद शाहजहांपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाकर अंग्रेजों की नाक में दम किया। अंग्रेजों ने उनके सिर पचास हजार रुपये कीमत रखी। इसी के लालच में शाहजहांपुर जिले की पुवायां रियासत के एक विश्वासघाती राजा के भाई ने 15 जून 1858 को धोखे से गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

अपनों के विश्वासघात का हुए शिकार
दरअसल मौलवी राजा के यहां अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में मदद मांगने के लिए गए थे। कहते हैं कि राजा ने मौलवी का सिर कटवाकर रूमाल में लिपटवाया और शाहजहांपुर के कलेक्टर को सौंप दिया। कलेक्टर ने उस सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकवा दिया। कुछ देशभक्तों ने जान पर खेलकर मौलवी के सिर को वहां से उतारा और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ दफन कर दिया।

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