फर्जी टीआरपी कांडः दो चैनलों के मालिक हिरासत में, पढ़िए रिपब्लिक चैनल पर क्यों उठे सवाल

मुंबई
पत्रकारिता यानी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ। यदि आप किसी मामले में सड़क पर रिपोर्टर को नाचते हुए, कैमरामैन को उसके पीछे भागते हुए, टैक्सी की छत से खबरों का हाल देते हुए देख रहे हैं तो इस बात को तय मानिए कि आपको कमीडियन का कोई नया विकल्प मिल गया है। इतना ही नहीं, अगर छाती, मेज पीटने वाले एंकर्स को आप सच्ची पत्रकारिता का उदाहरण मानते हैं तो आपको प्रड्यूसर्स की स्क्रिप्ट, बॉस के आदेश जैसे शब्दों को भी करीब से समझना चाहिए।

मुंबई पुलिस ने टीआरपी यानी टेलिविजन रेटिंग पॉइंट में फर्जीवाड़े का खुलासा किया है। मुंबई पुलिस ने बताया है कि अनपढ़ बुजुर्गों के घरों में टीवी ऑन कराई जाती थी। अंग्रेजी न्यूज चैनल लगा दिया जाता था। हैरान करने वाली बात है कि जिन्हें एबीसीडी तक की जानकारी नहीं थी, वो भी अंग्रेजी चैनल लगाकर देखते थे।

फिर टीआरपी के साथ नए-नए प्रोमो के साथ हल्ला मचाया जाता था कि देखो हम अव्वल आए हैं। कितना खतरनाक है यह सबकुछ। लोगों से इस बात को लेकर जब सवाल पूछा जाता है तो उनका जवाब होता है कि यह कुछ उतना ही खतरनाक है जितना नकल माफियाओं का एक लड़के को अच्छे नंबर से पास कराकर होनहार लड़के को हरा देना। कुछ वैसा ही, जैसे किसी का कत्ल करना, फिर इल्जाम किसी और पर लादकर खुद को साफसुथरा बता देना। दरअसल, यह पत्रकारिता के तमाम प्रतीकों की सरेआम हत्या है, एक कुंठा है। यह जिद भी है कि साम-दाम-दंड-भेद के जरिए जीत हासिल की जाए। फिर ढोल बजाया जाए, बताया जाए कि देखो हमने कितनों को हराकर क्या जीता है। असल में यह जीत है क्या…शायद नहीं।
यह बात बेइमानी की इबारत लिखने से लेकर उसे पढ़ने, शोर मचाकर सत्य साबित करने वाला व्यक्ति बहुत गहराई से जानता है। फिर भी वह क्या कर सकता है, क्योंकि वह जिम्मेदारी नहीं समझता, वह खुद को संतुष्ट करने के लिए हर बार इतना खतरनाक खेल खेलता है, पत्रकारिता को बदनाम करता है। हां, एक बात और कि जो लोग भी उस शख्स की लंबरदारी के आगे दुआ-सलाम करते हुए खुद को सफलता के शिखर तक ले जाना चाहते हैं, वे इस बात को गहराई से जान लें कि कहीं वे लोग खुद को खोते तो नहीं जा रहे हैं। तथ्यों की बात-बात करते-करते वे कितने खोखले हो गए हैं। पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की बोली लगाकर, मुंबई पुलिस के आगे फजीहत कराकर, पेशे को धंधा बनाकर अगर अच्छा लग रहा है तो आपको मान लेना चाहिए कि आप खोखले खिताबों के बीच बुरी तरह से हारे हुए शख्स हैं। 

यह हार वैसी ही है जैसा अपने परिवार की नजरों से गिर जाना। आखिर चीख-चीखकर कहा जाता है कि जनता हमारा परिवार है। असलियत तो यह है कि धंधेबाज वाकई लंबरदार है, जो खेलता रहा है आपकी भावनाओं से, विचारों से, आपके भरोसे से। इस भयानक साजिश के बाद आपको चोट लगी होगी, सीख मिली होगी। पत्रकारिता को गहराई से समझिए, मान लीजिए कि ग्राउंड पर उछलना, नाचना, चिल्लाना तमाशा हो सकता है, सिद्धांत नहीं। इसी उम्मीद के साथ ख्याल रखिए।

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