Bihar Chunav Result 2020 : बिहार चुनाव में स्ट्रांग लीडर के रूप में उभर के सामने आए तेजस्वी यादव

सत्ता की स्टियरिंग नीतीश के पास होगी, इस पर भरोसा कर 2015 में जनता ने जनादेश दिया। तब वो उसी कथित जंगलराज के मुखिया लालू यादव के साथ चुनाव लड़ रहे थे जिसका भय दिखाकर 2020 में वोट मांगा। लेकिन 2020 का जनादेश बताता है कि नीतीश की ड्राइविंग स्किल पर अब जनता को उतना भरोसा नहीं रहा। जनादेश ने साफ कर दिया कि छोटे भाई नीतीश कुमार न सिर्फ बीजेपी की बैसाखी पर बिहार की गाड़ी चलाएंगे बल्कि मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी भी उन्हें डिक्टेट करेंगे।

पोल पिच पर बीजेपी ने बैटिंग की और जेडीयू की स्ट्राइक रेट को स्लो कर दिया। पार्टी के नाम पर चिराग ने धारदार बोलिंग की। स्ट्राइक रेट के मामले में जो जेडीयू (JDU) के साथ एनडीए (NDA) में हुआ है, वही हाल कांग्रेस के साथ हुआ है महागठबंधन में। शायद आरजेडी के वोटर्स अपने को कांग्रेस के साथ इतना एलाइन नहीं कर पाए जिसका खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है। कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी और उनमें से 19 सीटों पर ही जीत हासिल हुई।

बिहार चुनाव में स्ट्रांग लीडर के रूप में उभर के सामने आए तेजस्वी यादव

बिहार की जो पॉलिटिक्स है वो मल्टीलेटरल से खत्म होकर बाइपोल होने जा रही है। हो सकता है कि अगला जो विधानसभा चुनाव हो उसमें भारतीय जनता पार्टी का सीधा मुकाबला जेडीयू से हो। चुनाव को लेकर दो निष्कर्ष सामने हैं। पहला यह कि तेजस्वी यादव बिहार चुनाव में स्ट्रांग लीडर के रूप में उभर के सामने आए हैं, मैं सिर्फ इस चुनाव की बात कर रहा हूं। अगर सीट वाइज़ देखा जाए, कद के हिसाब से देखें तो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार एक जीते हुए गठबंधन के नेता होंगे, उनको शायद एनडीए के विधायक दल का नेता भी चुना जाए और वो सीएम भी बन जाएं लेकिन बड़े नेता के तौर पर मौजूदगी दर्ज कराई है तेजस्वी यादव ने। कहेंगे कैसे..

इस चुनाव के बाद पॉलिटिक्स में ‘पोस्ट ग्रेजुएट’ हो गए तेजस्वी

आज से पांच साल पहले जब तेजस्वी यादव को लालू यादव ने एक तरीके से प्रोजेक्ट करना शुरू किया था, तब एक रैली हुई थी अगस्त 2017 में पटना के गांधी मैदान में, तब वहां पर सीधे तौर पर तेजस्वी ने शंखनाद किया। उस रैली में तेजस्वी यादव में जो एक पॉलिटिकल विट होता है, तंज करना होता है, एक अटैकिंग मोड होता है, उसकी उनमें कहीं न कहीं कमी थी, या यूं कहें वो पॉलिटिक्स में अंडर ग्रेजुएट थे। आज इस चुनाव के बाद हमें ये पता चल रहा है कि वो पोस्ट ग्रेजुएट हो गए हैं। तेजस्वी के लिए अच्छी बात यह है कि वो अभी मात्र 31 साल के ही हैं। उन्होंने कल ही अपना जन्मदिन मनाया है। आने वाले पांच साल के बाद, इस हार के बावजूद वो एक मजूबत स्थिति में होंगे।

पिछले 40 दिन में तेजस्वी ने अपनी तरफ मोड़ा हवा का रुख

जब चुनाव की घोषणा हो रही थी तब ऐसी स्थिति थी कि तेजस्वी यादव, राहुल गांधी चुनाव आयोग के पास गए और कहा कि अभी कोरोना चल रहा है तो इलेक्शन मत कराओ, बाद में करा लेना जब कोरोना ठीक हो जाए। निश्चित तौर पर जो अपने को कमजोर मानता है, वो इस तरह की बातें करता है। एनडीए ने कभी नहीं कहा कि हम चुनाव से भाग रहे हैं। लेकिन पिछले 40 दिन में तेजस्वी यादव ने किस तरह से हवा का रुख अपनी तरफ मोड़ा, नया एजेंडा सामने रखा, यूथ से कनेक्ट करने की कोशिश की, बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनाया, जातिवाद के दलदल में फंसी बिहार की राजनीति जो एजेंडा विहीन राजनीति है, उसमें एजेंडी की राजनीति जिसकी कल्पना लालू यादव की पार्टी से नहीं करते थे, उसकी शुरुआत तेजस्वी यादव ने की। इसके लिए तेजस्वी यादव ने किसको छाया में रखा- अपने पिता को, मां को, बहन को अपने भाई को। तेजस्वी ने बड़ी रणनीति बनाई- आरजेडी के किसी पोस्टर में लालू यादव, राबड़ी देवी और उनकी बहन नहीं दिखी। जब ये नहीं दिखते थे तो एनडीए के नेताओं को लगता था कि अगर ये होते तो ज्यादा अटैक करने का उनको मौका मिलता। लेकिन तेजस्वी यादव ने जिस तरीके से अपने रणनीतिकारों की टोली बनाई और काम किया, आज की तारीख में इसके लिए तेजस्वी यादव को शाबाशी देनी होगी।

‘जंगलराज’ से लेना-देना नहीं

तेजस्वी यादव यह मैसेज देने में पूरी तरह से कामयाब रहे कि लालू के कथित ‘जंगलराज’ से उनकी राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। वो 31 साल के बिहार के नौजवान है, चाहे वो नौवीं पास हों या फेल हों लेकिन उनके पास एक विजन है एक विजन है कि यहां हम रोजगार पैदा करेंगे, यहां हम इंडस्ट्री लाएंगे। दूसरी बात सामाजिक न्याय की राजनीति जो लालू यादव ने शुरू की और उसे घिस दिया क्योंकि उसके आगे वो नहीं निकल सके। दबे कुचले, गरीब-गुरबे बूथ तक पहुंचे, उनमें आत्मसम्मान लौटा, इसके लिए लालू यादव की तारीफ करनी पड़ेगी। लेकिन उन्होंने क्या किया, बिहार को जातीय राजनीति और हिंसा में झोंक कर रख दिया। तेजस्वी ने क्या किया, उसकी आंच उन तक न पहुंचे इसके लिए कई बार जनता से माफी मांगी। और यह एक बहुत बड़ा जेस्चर था। जिसका नतीजा इस चुनाव के नतीजों में भी दिखाई दे रहा है। यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी तेजस्वी यादव जैसे नेता के लिए। अब आने वाले पांच साल में सकारात्मक दायित्व निभाना होगा। हम तेजस्वी को एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका में देखेंगे।

आलोचनाओं को पीछे छोड़ तेजस्वी ने लड़ी ये लड़ाई

चुनाव से पहले तेजस्वी यादव कोरोना के समय बिहार से लगातार गायब रहे, इसकी बहुत आलोचना हुई। लोग कहते थे कि उन्हें बिहार में रहना चाहिए, जमीन पर नहीं दिखे। इसकी चर्चा होती थी कि आखिर तेजस्वी इतना वाकओवर क्यों दे रहे हैं। तब उनके घर में पारिवारिक कलह भी चल रहा था। उनके भाई तेजप्रताप और उनकी पत्नी ऐश्वर्या के बीच केस चल रहा है। मीसा भारती को लेकर भी चर्चाएं थी कि वो राजनीति में अपनी कद बढ़ाना चाहती हैं। इन सबके बीच तेजस्वी यादव दिल्ली में कैंप करते रहे, कई बार वो बाहर भी गए। एक बार ऑन एयर चार्टर्ड प्लेन में जो उन्होंने पिछला बर्थडे मनाया, उसे लेकर कहा गया देखो- कैसे एक गरीब का बेटा एयरप्लेन में बैठकर बर्थडे केक काट रहा है। इन सब चीजों को पीछे छोड़ते हुए तेजस्वी यादव ने यह लड़ाई लड़ी। उनका बैकग्राउंड, इस लड़ाई से पहले बहुत कमजोर था। अगर हम कहें कि इस जुलाई से पहले या अगस्त तक की भी चर्चा कर लें तो कोई आरजेडी का नामलेवा नहीं था।

तेजस्वी यादव की पॉजिटिव पॉलिटिक्स

इलेक्शन कमीशन ने जब चुनाव की डेट की घोषणा की तब भी हमें यह लग रहा था कि यह एकतरफा चुनाव है, इसमें आरजेडी के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। एनडीए 200 के आसपास सीटें ले आएगा। लेकिन इसके बाद जिस तरीके से तेजस्वी यादव ने पॉजिटिव पॉलिटिक्स की, उन्होंने ये नहीं कहा कि मैं ये कर दूंगा या वो कर दूंगा या इस जाति को यह कर दूंगा। उन्होंने 10 लाख नौकरियों का वादा किया। हां ये जरूर है कि उनके तरीके और उस पर क्या होगा, वो इसे कैसे करेंगे, इसे लेकर जेडीयू और भारतीय जनता पार्टी ने उनपर प्रहार किए। लेकिन हुआ क्या, वो एजेंडा सेटर बन गए। अपने पिता लालू यादव की तरह। दूसरी ओर नीतीश कुमार से लेकर पीएम मोदी तक इसे फॉलो करते रहे, सारा प्रचार तेजस्वी जो कह रहे हैं वो संभव नहीं है, ये बताने के लिए किया।

नीतीश ने चेंज किया अपना एजेंडा!

जेडीयू ने यह देखा कि वो अपने नीतीश कुमार के इस पांच साल के कार्यकाल को जनता के बीच अच्छे से नहीं पहुंचा पा रही है, क्राइम और करप्शन के मुद्दे पर घिरते जा रहे हैं तो उन्होंने एजेंडा चेंज किया। जेडीयू ने तय किया कि अब हम लालू-राबड़ी के उस 15 साल के कार्यकाल की जनता को याद दिलाते हैं और डराते हैं, जिसके कारण नीतीश कुमार पहली बार सत्ता में आए थे। अब सोचिए जो मुख्यमंत्री चौथी बार फुल टर्म मांग रहा हो , वह पहली बार के एजेंडे यानी 2005 के एजेंडे पर चुनाव लड़े, यह कहीं न कहीं नीतीश कुमार की बड़ी कमजोरी साबित हुई। वो यह कहते रहे कि आरजेडी जीती तो ‘जंगलराज’ लौटेगा फिर आपकी बहू-बेटियां कैसे निकलेंगी। ये जो नीतीश का नेगेटिव कैंपने था, इसके कारण कई बार वो अपना आपा खो बैठे। जब युवाओं ने जो 65 लाख यूथ जो पहली वोट देने वाले थे, उनमें से कुछ लोगों ने कांटी मुजफ्फरपुर में उनका विरोध किया, स्लोगन लहराए, जब उनके ऊपर प्याज फेंका गया तब नीतीश ने वो गरिमा नहीं दिखाई जिसके लिए वो जाने जाते हैं।

नीतीश कुमार के खिलाफ लोगों में था गुस्सा

नीतीश कुमार का आपा खो देना और कहना कि अपने मां-बाप से जाकर पूछों, उस समय क्या होता था, उस समय स्कूलों की हालत क्या होती थी। जबकि हमने देखा कि बिहार में स्कूलों की व्यवस्था और बिल्डिंग इतनी अच्छी है कि सब उसकी तारीफ करते हैं लेकिन पढ़ाई को लेकर हमने हर जगह सुना कि 30 साल के लिए हमारी पीढ़ी बर्बाद हो गई। कई बुजुर्गों ने कहा कि हम अपने पोते-पोतियों को स्कूल भेजकर क्या करेंगे। जो शिक्षामित्र हैं, जो नियोजित शिक्षक रखे गए हैं उनकी योग्यता पर सवाल उठ रहे हैं।नेशनल लेवल के सर्वे होते हैं उनमें 8वीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा के सवाल हल नहीं कर पा रहे हैं। खासकर इंग्लिश और मैथेमेटिक्स में, जिसको लेकर बिहार के छात्र बहुत जागरूक रहे हैं। इंजीनियरिंग की परीक्षा में, मेडिकल की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया है, ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि ऐसा क्यों हुआ। इसको लेकर नीतीश कुमार के खिलाफ गुस्सा था।

नीतीश की शराबबंदी से लगभग 100 गुना बढ़ गई थाने की कमाई!

नीतीश कुमार ने शराबबंदी लागू की। नीतीश कुमार ने महागठबंधन की सरकार में रहते हुए अप्रैल 2016 में शराबबंदी लागू की। नीतीश कुमार का बराबर यह कहना होता है कि “वो एक मीटिंग कर रहे थे तब पीछे बैठी हुई एक दीदी ने कहा कि शराब बंद कर दो, तभी मैंने तय किया शराब बंद कर दूंगा।” अगर देखें तो नीतीश कुमार का यह फैसला सामाजिक स्तर पर बहुत अच्छा है। महिलाओं ने इसको हाथोंहाथ लिया लेकिन इम्पलिमेंटेशन का का क्या हुआ। अगर आज देख लें तो साढ़े तीन लाख लोग शुरू से लेकर अबतक जेल गए, जिनमें से कई लोगों को जमानत मिल गई। लेकिन वो प्रक्रिया जारी है। आप उसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बना रहे हैं। जब हमारी छोटी अदालतों में लाखों केस, जिनमें घरेलू विवाद से लेकर जमीन विवाद, मर्डर केस, लूट आदि के मामले लंबित हैं, ऐसे में आप सिर्फ शराबबंदी के केस की सुनवाई करें ये कहां तक उचित है। जेल कम हैं और कैदियों को भेड़-बकरियों की तरह ठूंसा जा रहा है, ये कहां तक उचित है। मांझी जो लौटकर एनडीए में आए हैं, जब वो एनडीए छोड़कर गए थे तब उन्होंने कहा कि यह जो शराबबंदी है, उससे सिर्फ मुसहर, पासवान समाज जैसे निचली जातियों पर असर पड़ रहा है क्योंकि वो सप्लायर बनकर रह गए हैं। और जो नहीं बन पाए वो उसके कारोबार में लग गए। कई नेताओं की मिलीभगत शुरू हो गई। बिहार के जो थाने थे वहां क्या शुरू हुआ, वहां शराब को लेकर एक कैंपेन शुरू हुआ और आज चार साल बाद थाने के जो सारे दारोगा हैं, उनका एक ही लक्ष्य है कि कहां शराब की खेप आई। अंदरखाने की बात करें तो थाने की कमाई लगभग 100 गुना बढ़ गई है।

सुशासन बाबू की छवि पर लौटने का नीतीश के पास मौका

इस बात से आप समझ सकते हैं कि जब पूरा पुलिस महकमा पूरी तरह नीतीश कुमार की शराबबंदी को लागू कराने में जुटा रहेगा तो दूसरे अपराधों का क्या होगा। नीतीश ने कहा कि हम थाने में दो ब्रांच बनाएंगे। एक दारोगा दर्ज मामलों की जांच करेगा तो दूसरा लॉ एंड ऑर्डर देखेगा। लेकिन आज की डेट में ऐसा किसी थाने में लागू हो नहीं हो पाया है। आज आप देखें तो एक ही दारोगा जांच भी करता है और लॉ एंड ऑर्डर भी देख रहा है। वो चुनाव भी कराता है और साथ में इनवेस्टिगेशन भी करता है। मुझे लगता है कि नीतीश कुमार ने अंत भला तो सब भला के नाम पर जो ये आखिरी मौका लिया है उसका इस्तेमाल अपनी सुशासन बाबू वाली छवि वापस पाने के लिए करेंगे।

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