हे प्रभु… महाभारत से बचाओ

कहते हैं न… ईश्वर जो भी करता है, अच्छा करता है। भले के लिए करता है। मौजूदा राजनीतिक हालात देख कर हमें भी लग रहा है… ईश्वर ने जो भी हमारे साथ किया… अच्छा ही किया। इसी में हमारी भलाई छिपी थी। ये बात किसी दबाव में नहीं… सच्चे मन से कह रहे हैं। मन से इसलिए… मन ही इच्छायें जगाता है। मन ही महत्वाकांक्षा पैदा करता है… अतिमहत्वाकांक्षी बनाता है। दिल तो बेचारा आईना ही दिखाता है। ये हमारा मन ही था… जो बार-बार ईश्वर को कोसता था… काहे हमें एक शिक्षक के घर पैदा किया। पहले बचपन में खुद ज्ञान झेलते रहे… फिर बड़े हुए तो पत्रकार बन दूसरों को ज्ञान पिलाने का पेशा दे दिया, जीवन भर के लिए। हे प्रभु… आपने काहे हमें किसी बड़े राजनेता के घर में पैदा नहीं किया। नेतापुत्र होते तो मुँह में सोने की चम्मच बचपन से मिलती। पेशे के तौर पर राजनीति की टेबिल पर चांदी की थाली सजी मिलती। अगर पांच साल विपक्ष में रहकर सड़क पर संघर्ष कर लिया होता… तो किसी प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी के स्वाभाविक हकदार हो जाते। मगर अब लगता है… जो हुआ सो अच्छा हुआ। नेतापुत्र होने के बाद भी अगर संघर्ष करना पड़े, तो ऐसी पैदाइश का फायदा ही क्या?


देखिए न… एक दौर वो भी था, जब नेतापुत्र होने का सीधा अर्थ था… सत्ता में सिर-माथे बैठना। राष्ट्रीय राजनीति से लेकर राज्यों की राजनीति तक हर तरफ यही हो रहा था। कोई विधायक बना तो कोई सांसद। केंद्र सरकार में मंत्री पद भी मख्खन काटने जैसी मेहनत में मिल गया। अपने चचा मुलायम और फारूक बाबू तो ऐसे निकले… पुत्र को मुख्यमंत्री की कुर्सी परोस दी। बिहार में लालू के प्रसाद के रूप में एक पुत्र को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी मिली, तो दूसरे पुत्र को मंत्री पद। पंजाब में भी बादल पुत्र ने सरकार की कुंजी अपने हाथ ले ली। कुल मिलाकर सब अच्छा चल रहा था, लेकिन अचानक न जाने किसकी नजर लग गई… किसी एक जगह नहीं बल्कि हर जगह ही नेतापुत्रों को सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

अपने राजनीतिक कौशल और योग्यता की परीक्षा देनी पड़ रही है। यकीन न हो, तो आन्ध्र में जगन बाबू को देख लीजिए… कितनी कड़ी मेहनत के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। अपने उद्धव भैया तो कुर्सी पाने से लेकर उसे चलाने तक में पसीने-पसीने हो लिए हैं। अब पहले मध्यप्रदेश और अब राजस्थान में राजपुत्रों के मामले सामने ही हैं। दो राय नही कि इन नेतापुत्रों के साथ जो कुछ हो रहा है, उसके पीछे ऐसे अनुभवी राजनेता हैं… जो लुढ़क-लुढ़क कर महादेव बने हैं।


अब हमारा सवाल इन्हीं अनुभवी राजनेताओं से है, मान लिया आप लोग किसी राजनीतिक विरासत के सहारे आगे नहीं बढ़े… खुद की काबिलीयत और मेहनत की बदौलत मुकाम हासिल किया है। जगह-जगह की ठोकरें खाकर ठाकुर बने हो। इसका ये मतलब यह तो नहीं कि राजपुत्रों की भी आपकी तरह रगड़ाई हो। राजपुत्रों को तो विशेष दर्जा मिलना ही चाहिए। उनको भी सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह मेहनत और मशक्कत करनी पड़ेगी, तो परिवार विशेष में पैदा होने का फायदा ही क्या हुआ? बेशक देश में शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था है, लेकिन अवाम में तो अब भी राजशाही वाली मानसिकता का शासन है। आप लोग यह भी तो देखिए… हमारी राजनीति में युवाओं के नाम पर ये नेतापुत्र ही तो चेहरे हैं। बाकी तो किसी युवा राजनेता दूर-दूर तक नहीं दिखता। अगर ये राजपुत्र योग्यता और अनुभव के नाम पर सत्ता की चौखट पर खड़े रखे जाएंगे, तो देश की युवा राजनीति के भविष्य का क्या होगा?


सब वाकिफ हैं, सत्ता संघर्ष में हर पक्ष आखिरी दम तक लड़ता है… जल्दी से कोई हार नहीं मानता। ऐसा ही यहां भी होने वाला है। इसका नतीजा जो भी आए… लेकिन हम तो फिर ईश्वर से ही गुजारिश करेंगे। हे प्रभु, आपकी बनाई दुनिया में हम पहले ही जातीय वर्ण व्यवस्था से परेशान हैं। अब एक और वर्ण व्यवस्था तैयार हो गई है… नेता का पुत्र नेता बनेगा… और अभिनेता का पुत्र ही अभिनेता। किसी अन्य ने अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर इस व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश की, तो उसे खुदकुशी की हद से भी गुजरना पड़ सकता है। हालात उस दौर की तरह बन गए हैं, जहां कर्ण को सूत पुत्र होने के कारण शस्त्र चलाने का अधिकार नहीं था। काबिलीयत न होने पर भी दुर्योधन हस्तिनापुर का शासन का दावेदार बन बैठा था।

तब प्रभु आपने महाभारत करवाई और सब नष्ट करवा दिया। हे प्रभु, आपसे गुजारिश है, बिना महाभारत ही कुछ ऐसा कीजिए… जहां योग्यता, मेहनत और अनुभव की कद्र हो… किस परिवार में पैदा हुए, ये ही एक मात्र आधार न हो। राजपुत्र काबिल है, तो उसे भी सत्ता मिले। तब प्रभु कोई भी आपको इस बात के लिए नहीं कोसेगा कि आपने उसे किस घर में पैदा किया।

तरकश- मनोज माथुर

खबरें और भी हैं...

अपना शहर चुनें