छठ पर्व की परंपरा में ही वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है

भास्कर न्यूज गाजीपुर । छठ पर्व की परंपरा में ही वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है।षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है।जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की अल्ट्रावॉइलट किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं।क्योकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है।इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, स्किन आदि पर पड़ता है।इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि न पहुंचे,इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है।इसके साथ ही घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है।इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की खैरियत की ख्वाहिश जाहिर करती हैं।


हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं।सूर्य षष्ठी के महत्व को देखते हुए इस पर्व को सूर्यछठ या डाला छठ के नाम से संबोधित किया जाता है।इस पर्व को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई समेत देश के उन तमाम महानगरों में मनाया जाता है। यही नहीं मॉरिशस, त्रिनिडाड, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के प्रवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं।डूबते सूर्य की विशेष पूजा ही छठ का पर्व है।ऐसे तो चढ़ते सूरज को तो सभी प्रणाम करते हैं।


छठ पूजा विधान
छठ पूजा के पहले दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है।सबसे पहले घर की सफार्इ कर उसे पवित्र बना दिया जाता है।इसके पश्चात् छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने “शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की “शुरुआत करते हैं।घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोंपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं।भोजन के रूप में कद्दू ,चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है।दूसरे दिन कार्तिक “शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद “शाम को भोजन करते हैं….इसे ‘खरना’ कहा जाता है।‘खरना’ का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है।प्रसाद के रूप में मिट्टी के चूल्हे पर गुड एवं चावल की खीर और रोटी बनार्इ जाती है।इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है।पूजा के दौरान किसी भी बर्तन का उपयोग नहीं किया जाता है।पूजा करने के लिए केले के पत्तों का प्रयोग करते हैं।इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखा जाता है।


तीसरे दिन कार्तिक “शुक्ल शष्ठी को दिन में मिट्टी के चूल्हे पर छठ प्रसाद बनाया जाता है।प्रसाद के रूप में ठेकुआ जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहतें हैं।ठेकुआ के अलावा चावल के लड्डू बनाते हैं।इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया लौंग, बड़ी र्इलाइची, पान-सुपारी, अग्रपात, गड़ी-छोहड़ा, चने, मिठार्इयां, कच्ची हल्दी, अदरख, केला, नींबू, सिंहाड़ा, सुथनी, मूली एवं नारियल, सिंदूर और कर्इ प्रकार के फल छठ के प्रसाद के रूप में “शामिल होता है।“शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बांस की टोकरी में अघ्र्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार और पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं।सभी छठ व्रति एक पवित्र नदी या तालाब के किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से स्त्रियां छठ का गीत गाती हैं।इसके बाद अर्घ्य दान सम्पन्न करती हैं।सूर्य को जल का अर्घ्य दिया जाता है और छठी मर्इया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है।इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृष्य बन जाता है।सूर्यास्त के बाद सारा सामान लेकर सोहर गाते हुए सभी लोग घर आ जाते हैं और अपने घर के आंगन में एक और पूजा की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।

जिसे कोशी कहते हैं।यह पूजा किसी मन्नत के पूर्ण हो जाने पर या कोर्इ घर में “शुभ कार्य होने पर किया जाता है।इसमें सात गन्ने नये कपड़े से बांधकर एक छत्र बनाया जाता है।जिसमें मिट्टी का कलश या हाथी रखकर उसमें दीप जलाया जाता है और उसके चारों तरफ प्रसाद रखे जाते हैं।सभी स्त्रियां एकजुट होकर कोशी का गीत गाती हैं और छठी मर्इया का धन्यवाद करती हैं।


चौथे दिन कार्तिक “शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता हैं। व्रति उसी जगह पुन: इकट्ठा होते हैं।जहां उन्होंने “शाम को अघ्र्य दिया था।कोशी की प्रक्रिया यहां भी की जाती है।इसके बाद पुन: पिछले “शाम की प्रक्रिया की पुनरावृति होती है।इसके बाद व्रति कच्चे दूध से उगते सूर्य को अघ्र्य देते हैं।अंत में व्रति अदरख गुड़ और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते है।

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