क्या दिल्ली में फिर बनेगी केजरीवाल सरकार?

2013-2015-2020 सात साल में दिल्ली विधानसभा का तीसरा चुनाव होने जा रहा है. 2013 और 2015 दोनों ही बार अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने, 2020 में भी यदि सत्ता में बने रहे तो हैटट्रिक होगी. वैसे, भले ही दिल्ली पूर्ण या बड़ा राज्य नहीं है,लेकिन यहां के चुनाव में हर बार यहां के वोटर एक सोचा समझा संदेश सियासी पार्टियों को देते हैं.

लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी ने कांग्रेस के दस बरस से चले आ रहे शासन को उखाड़ फेंका था. पार्टी को दिल्ली की सभी लोकसभा सीटों पर शानदार कामयाबी मिली थी. इसमें कांग्रेस के लिए जितना बड़ा संदेश था, उससे बड़ा कहीं बीजेपी के लिए था. लेकिन दोनों राष्ट्रीय पार्टियां यह संदेश पढ़ नहीं सकीं और एक नई नवेली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के वोटर की नब्ज़ पकड़ ली. लोगों ने इस अनुभवहीन पार्टी को सत्ता की चाबी थमा दी थी. याद करिए कि 6 महीने में ही प्रधानमंत्री मोदी का तिलिस्म दरक गया था. जब 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो एक बार फिर दिल्ली के मतदाता ने दोनों शिखर पार्टियों को धता बताते हुए आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने पर भरोसा जताया. इसका सीधा अर्थ यह था कि दिल्ली का मतदाता यह जानता था कि उसके लिए केंद्र और राज्य में कौन  ज़रूरी है.

आप, 7 साल में दिल्ली में तीसरी बार चुनावी मैदान में है. हालांकि इस अवधि में तीनों पार्टियों के अपने अपने भरम टूटे हैं. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में बिना कोई काम किए राष्ट्रीय स्तर पर अपने पंख फैलाने की कोशिश की. पंजाब को छोड़कर बाकी प्रदेशों में वह नाकाम रही. मुख्यमंत्री केजरीवाल ढाई तीन साल तक केंद्र से एक नपुंसक संघर्ष छेड़े रहे. इस दरम्यान उनके अनेक करीबी सहयोगी साथ छोड़ गए. वे एक के बाद एक भूलें करते रहे. बड़े दिनों बाद उन्हें भूल का अहसास हुआ. अब साल डेढ़ साल से देश की राजधानी के मतदाता केजरीवाल का बदला हुआ रूप देख रहे हैं. इस सुधार के बाद भी दिल्ली के मतदाता भी लोकसभा चुनाव में उनका प्रोबेशन पीरियड बढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे. राष्ट्रीय स्तर पर आप की झोली 2019 के लोकसभा चुनाव में भी ख़ाली रही. इतना ही नहीं, वोट प्रतिशत में भी वह गिरकर कांग्रेस से नीचे यानी तीसरे स्थान पर आ गई. संदेश यही है कि अपनी सेहत सुधारे बिना केजरीवाल को राष्ट्रीय दंगल में नहीं उतरना चाहिए. मगर इसमें संदेह नहीं कि दिल्ली के मतदाता प्रादेशिक स्तर पर केजरीवाल में एक सुर से भरोसा दिखा रहे हैं. इसी आधार पर  राजनीतिक पंडित अपना  विश्लेषण करते हुए फ़िलहाल दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी को एक सुरक्षित भूमिका में देख रहे हैं.

भाजपा का जहां तक सवाल है, वह दिल्ली के मतदाता का प्रादेशिक मूड भांपने में नाकाम रही है. दिल्ली को उसने एक परीक्षण स्थल बनाकर पिछले दिनों जिस तरह के प्रयोग किए हैं, वे अवाम को रास नहीं आए हैं. दिल्ली का आम आदमी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अवरोध पसंद नहीं करता. सड़कों पर जिस तरह ताज़े तमाशे हुए हैं, वे किसी ने पसंद नहीं किए. कम से कम राजधानी के लोग तो परदे के पीछे की कहानी समझते हैं. इसका नुक़सान बीजेपी को भुगतना पड़ सकता है. इसके अलावा दिल्ली में उसके स्थानीय चेहरे भी अपनी साख़ नहीं बना पाए हैं. सिर्फ़ प्रधानमंत्री के चेहरे पर दिल्ली का क़िला नहीं जीता जा सकता. बीजेपी की दिल्ली टकसाल में नए चेहरे नहीं गढ़े गए हैं. उल्टे अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे तपे तपाए नाम इस बरस चुनाव मैदान में नहीं हैं. ज़ाहिर है प्रादेशिक पहचान दिल्ली से बाहर से आयातित नेताओं को नहीं मिल सकती.

कांग्रेस के लिए भी कमोबेश यही बात है. शीला दीक्षित के नहीं होने से भी उसे क्षति उठानी पड़ सकती है. राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व के बीच इतना अंतर है कि वह उन पर सीमित भरोसा ही कर सकती है. अलबत्ता सुभाष चोपड़ा और अरविंदर सिंह लवली जैसे कुछ क्षत्रप चमत्कार दिखाएं तो अलग बात है. असल में लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी के आईसीयू में लंबे समय तक रहने का संगठन को बड़ा नुक़सान हुआ है. मौजूदा राजनीति स्वतंत्रता आंदोलन से निकले दल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह मुल्क़ की मुख्यधारा से उदासीन हो जाए. हालांकि लोकसभा चुनाव से वह हौसला रख सकती है कि मतदाताओं ने उसे दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया है. संकेत यह भी माना जा सकता है कि बीजेपी और आप से नाउम्मीद वोटर का एक वर्ग कांग्रेस की ओर लौट रहा है. पर यह तो तय है कि आम आदमी पार्टी के रहते कांग्रेस के लिए दिल्ली अभी दूर है.

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