
कानूनी हलको में एक मुहावरे का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है कि ‘न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है’। सामान्य शब्दों में इसका अर्थ समझें तो यही होता है कि यदि किसी को समय पर न्याय नहीं मिलता है, तो यह प्रभावी रूप से न्याय से वंचित होने के समान ही है। अलग-अलग अदालतों में महीनों, वर्षों और दशकों तक मामले लंबित रहते हैं और लोग अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते हैं। हाल ही में, इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया है जिसमें कोर्ट ने 42 साल बाद एक मामले में आरोपी को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया है। 74 वर्षीय इस व्यक्ति को 42 वर्ष पहले चार अन्य लोगों के साथ रेप और हत्या करने के मामले में दोषी ठहराया गया था।
‘बार ऐंड बेंच’ की रिपोर्ट के मुताबिक, यह मामला अप्रैल 1979 का है जब आरोपी ललितपुर के बटवाहा गांव में एक घर में घुसे वहां से कीमती सामान लूटे और मौके से फरार हो गए। इस दौरान उन्होंने दो महिलाओं के साथ बलात्कार किया, जिनमें से एक की बाद में मौत हो गई और एक अन्य महिला की हत्या कर दी गई थी। 23 अप्रैल 1983 को इन पांचों पुरुषों को बलात्कार और हत्या का दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि, 2 मई 1983 को अपील लंबित रहने के दौरान उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। समय बीतने के साथ इनमें से चार आरोपी वीर सिंह, गंगाधर, धर्मलाल और बंधु की मृत्यु हो गई और उनकी अपीलें स्वतः समाप्त मान ली गईं।
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालतों को वास्तविक समय में न्याय देने की आवश्यकता होती है। पीठ ने कहा कि निचली अदालत ने चार साल के भीतर अपना फैसला सुना दिया था और उसके बाद जिम्मेदारी उच्च न्यायालय पर आ गई थी। कोर्ट ने इस मामले के निर्णय में हुई देरी को लेकर भी खेद जताया है। पीठ ने कहा, “अदालत विशेष रूप से पक्षकारों और समाज के समक्ष खेद व्यक्त करती है कि इस अपील की सुनवाई में 42 साल लग गए। पांच दशकों की बहुत लंबी अवधि में पक्षों को न्याय नहीं मिला है। चार आरोपी/अपीलकर्ता- वीर सिंह, गंगाधर, धर्मलाल और बंधु न्याय मिलने के बिना ही मर चुके हैं। अब पीड़ित भी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं।”
न्यायालय ने कहा कि मामले में जो कुछ भी देखा गया, उससे अधिक जघन्य और बर्बर कुछ भी नहीं हो सकता है। इस बात की पुष्टि करने के लिए अदालत के पास पर्याप्त साक्ष्य थे कि एकमात्र जीवित दोषी बाबू लाल ने न केवल एक महिला के साथ बलात्कार किया बल्कि उसके साथ शारीरिक रूप से मारपीट भी की थी। कोर्ट ने कहा, “उस अधूरे कार्य का अफसोस बना हुआ है। हालांकि, अब इस मामले में पक्षकारों, विशेष रूप से और सामान्य रूप से समाज के लिए इसका जो भी मतलब हो, न्याय होना ही चाहिए, चाहे इसमें देरी हो।”
कोर्ट ने इस मामले में निचली अदालत द्वारा दिए गए आजीवन कारावास को बरकरार रखा है। बकौल कोर्ट, अपीलकर्ता सजा के सवाल पर किसी दया या उदारता का हकदार नहीं है। कोर्ट ने लाल को तुरंत आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। ऐसा न होने पर न्यायालय ने कहा कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ललितपुर द्वारा शेष सजा काटने के लिए गिरफ्तार किया जाएगा।