
शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई व मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे लगभग दो दशकों बाद पहली बार एक मंच पर नजर आए. यह मंच था मुंबई के वर्ली डोम में आयोजित ‘विजय रैली’ का, जहां महाराष्ट्र की तीन-भाषा नीति पर केंद्र सरकार के फैसले को मराठी अस्मिता की जीत के रूप में मनाया गया. 20 साल बाद दोनों भाई पहली बार एक मंच साझा किया है.
इस रैली ने न केवल मराठी भाषियों की भावनाओं को केंद्र में रखा बल्कि ठाकरे परिवार की टूटी हुई सियासी डोर को फिर से जोड़ने के संकेत भी दे दिए. हालांकि इसे “गैर-राजनीतिक’ बताया गया, लेकिन मंच पर मौजूदगी और भाषणों की गूंज ने साफ कर दिया कि मराठी अस्मिता अब एक बार फिर से ठाकरे बंधुओं के राजनीतिक एजेंडे का केंद्र बनने वाली है.
दो दशकों बाद एक साथ मंच पर ठाकरे भाई
2006 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) की नींव रखने वाले राज ठाकरे और शिवसेना (UBT) प्रमुख उद्धव ठाकरे करीब 20 सालों में पहली बार एक साथ सार्वजनिक मंच पर दिखे. वर्ली की यह रैली बीजेपी सरकार द्वारा स्कूल पाठ्यक्रम में विवादित तीन-भाषा नीति को वापस लेने के फैसले के जश्न के लिए आयोजित की गई थी. इस साझा मंच ने आगामी निकाय चुनावों, खासकर बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनाव के मद्देनज़र संभावित गठबंधन की अटकलों को हवा दे दी है.
मराठी अस्मिता बना केंद्र
इस रैली का प्रमुख संदेश रहा – मराठी गौरव. राज ठाकरे ने अपने पुराने तेवर में मराठी मानुष के हक की बात की और भाषण के हर हिस्से में मराठी पहचान को लेकर पुरजोर आवाज़ उठाई. उन्होंने कहा कि, “मराठी भाषा, संस्कृति और लोगों की उपेक्षा अब बर्दाश्त नहीं होगी. उद्धव ठाकरे ने भी मराठी अस्मिता के साथ-साथ राजनीतिक प्रहार करने में देर नहीं की. उन्होंने महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे के ‘जय गुजरात’ नारे पर तंज कसते हुए कहा, “जो लोग महाराष्ट्र में रहकर दूसरे राज्यों का गुणगान करते हैं, उन्हें जनता सबक सिखाएगी।” साथ ही बीजेपी पर विभाजनकारी राजनीति का आरोप भी लगाया.
गठबंधन के संकेत, पर राज सावधान
जहां उद्धव ठाकरे ने राजनीतिक गठजोड़ के संकेत दिए, वहीं राज ठाकरे ने फिलहाल किसी औपचारिक गठबंधन की बात से दूरी बनाई. उन्होंने मंच पर भले ही स्पष्ट समर्थन न जताया हो, लेकिन उनकी उपस्थिति ने समर्थकों और राजनीतिक विश्लेषकों को आने वाले समीकरणों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया. अगर शिवसेना (UBT) और मनसे का गठबंधन होता है तो मुंबई, पुणे, नासिक जैसे मराठी बहुल शहरी क्षेत्रों में चुनावी समीकरण पूरी तरह बदल सकते हैं. वर्ली, परेल, लालबाग, सिवड़ी, चेंबूर, विक्रोली, भांडुप जैसे क्षेत्रों में दोनों दलों का मजबूत आधार रहा है. सीट-बंटवारे का समझौता इस वोट बैंक को एकजुट कर दोनों दलों को मज़बूत स्थिति में ला सकता है.
चुनौतियां भी कम नहीं
हालांकि यह गठबंधन आसान नहीं होगा. शिवसेना (UBT) और MNS की संगठनात्मक संरचना, वैचारिक अंतर और पुराने विवाद इस राह में रोड़े बन सकते हैं. दोनों नेताओं को अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर असंतोष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को संभालते हुए साझा रणनीति बनानी होगी.
BJP और MVA पर क्या असर पड़ेगा?
यदि मराठी वोट एकजुट होता है, तो इसका अप्रत्यक्ष लाभ बीजेपी को हो सकता है. हिंदुत्व और गैर-मराठी वोटों पर पकड़ बनाकर बीजेपी अपना आधार और मजबूत कर सकती है. वहीं, शिंदे गुट और कांग्रेस-NCP (शरद पवार गुट) के लिए यह समीकरण झटका साबित हो सकता है. राज ठाकरे की लाउडस्पीकर वाले विवादास्पद मुद्दों पर पुरानी बयानबाजी अल्पसंख्यक वोट बैंक को प्रभावित कर सकती है, जिससे MVA में अंतर्विरोध गहराने की आशंका है.
मराठी अस्मिता की जीत या विभाजन की राजनीति?
तीन-भाषा नीति को रद्द करना ठाकरे बंधुओं की इस रैली का केंद्रीय बिंदु रहा. उन्होंने इसे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान की जीत करार दिया, जिससे मराठी जनता से भावनात्मक जुड़ाव और मजबूत हुआ. लेकिन क्षेत्रीय पहचान की इस राजनीति का दायरा कितना समावेशी रहेगा, यह आने वाले चुनावों में स्पष्ट होगा.