युवा धामी के सामने अनुभवी हरीश की चुनौती
उत्तराखंड में एक बार फिर से विधानसभा चुनावों की तैयारियां जोरों पर हैं। राजनीतिक दल अपने दांव चुनावी नफा-नुकसान के हिसाब से चल रहे हैं। ऐसे में आगामी चुनावों में राज्य का चुनावी तापमान मापना अति आवश्यक है। चूंकि उत्तराखंड राज्य को प्रशासनिक दृष्टि से दो भागों गढ़वाल तथा कुमाऊं में विभाजित किया गया है, इसलिये प्रशासनिक, क्षेत्रीय तथा राजनीतिक स्थितियों के अनुसार पृथक विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। हम देखते हैं कि प्रशासनिक क्रियाकलाप के इतर सरकार अथवा राजनैतिक दलों के क्रियाकलापों में भी दोनों मंडलों के लिये पृथक व्यवस्थाएं रहती हैं।
राजनीतिक दृष्टि से गढ़वाल मंडल अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्य की 70 में से 41 विधानसभा सीटें तथा 7 जिले गढ़वाल में हैं। मतदाताओं के हिसाब से भी राज्य में गढ़वाल मंडल का प्रभाव रहता है। राज्य की जनसंख्या का 58 फीसदी हिस्सा गढ़वाल में निवास करता है। गढ़वाल के दो जिलों हरिद्वार तथा देहरादून में कुल 21 सीटें हैं, जिससे प्रदेश में गढ़वाल मंडल के राजनीतिक दखल का आभास हो जाता है ।
प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव एक तरह से गढ़वाल के रण को जीतने जैसा है। इसमें भी पहाड़ तथा मैदान की लड़ाई अलग से दिखती है । हरिद्वार तथा देहरादून में राज्य की 41 में से 21 सीटें हैं। यही कारण है कि प्रदेश में जिस तरह से गढ़वाल तथा कुमाऊं का ध्यान रखा जाता है, उसी तरह अब मैदानी और पहाड़ी क्षेत्र में भी अब संतुलन बनाने पर राजनीतिक दलों द्वारा ध्यान दिया जा रहा है। यही कारण है कि भाजपा ने इस बार मैदान से आने वाले मदन कौशिक को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह संतुलन साधने की कोशिश की है। इस तरह अब प्रदेश की राजनीति में गढ़वाल, कुमाऊं के साथ-साथ मैदान भी तीसरा शक्ति का केंद्र बन गया है।
हरिद्वार जनपद में विधानसभा की कुल 11 सीटें हैं। इसमें लगभग 34 प्रतिशत मुसलमान हैं तथा कुल मिलाकर मुस्लिम एवं जाटव मतदाता बहुमत में हैं। इस समीकरण के चलते ही हरिद्वार में बसपा का वोट शेयर हमेशा अच्छी स्थिति में रहता है तथा राज्य के शुरूवाती चुनावों में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन भी किया। आज भी अच्छी खासी संख्या में बसपा का वोट बैंक यहां मौजूद है। दूसरी ओर कांग्रेस भी हमेशा से ही हरिद्वार जिले को इस विशेष संयोजन के कारण अपनी सुरक्षित सीट की तरह देखती रही है। भाजपा के लिए भी हिंदुओं के प्रसिद्द तीर्थस्थल होने के कारण संभावनाएं बनी रहती हैं। इसी तरह देहरादून में लगभग 12 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, इसलिये कुछ सीटों में इनका स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है, जबकि समूचे गढ़वाल मंडल की बात करें तो यहां 18 प्रतिशत दलित, 15 प्रतिशत मुस्लिम तथा 0.9 प्रतिशत सिख मतदाता हैं।
नेतृत्व के लिहाज से गढ़वाल क्षेत्र से भुवन चंद्र खंडूड़ी, डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, तीरथ सिंह रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत, अनिल बलूनी आदि बड़े नेता रहे हैं। वहीं कुमांऊ से कांग्रेस के गोविंद बल्लभ पंत, नारायण दत्त तिवारी, हरीश रावत, इंदिरा हृदयेश आदि बड़े नेता आए। हालांकि इसमें भी कुछेक अपवाद हुए हैं। भाजपा ने जहां कुमाऊं से पुष्कर सिंह धामी, अजय भट्ट आदि को खड़ा किया है, वहीं कांग्रेस ने भी गढ़वाल से लोकप्रिय चेहरे गणेश गोदियाल, प्रीतम सिंह आदि को तैयार किया है। गढ़वाल से भाजपा के बड़े नेताओं के जमावट का यह परिणाम हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़कर भाजपा बाकी सभी चुनावों में, यहां तक कि राज्य गठन से पहले भी गढ़वाल से लगातार अच्छा प्रदर्शन करती आ रही है। 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को गढ़वाल से 16 सीटें मिलीं तथा कांग्रेस को 19 सीटें मिलीं, जबकि दोनों का वोट प्रतिशत क्रमशः 33.3 और 32 प्रतिशत रहा। इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने गढ़वाल की तीनों लोकसभा सीटें जीतीं तथा 54.7 प्रतिशत मत प्राप्त किए।
2017 के विधानसभा चुनाव गढ़वाल में एक तरह से भाजपा के लिए ‘अच्छे दिनों की तरह साबित हुआ तथा पार्टी को 41 में से 34 सीटें मिलीं तथा 46.4 प्रतिशत मत मिले। कांग्रेस को 31.6 प्रतिशत वोट तथा 6 सीटें मिलीं। वहीं बसपा को 6.8 तथा अन्य को 15 प्रतिशत वोट मिले। 2017 के इन चुनावों में 2016 में बड़ी संख्या में दलबदल के बावजूद भाजपा ने असंतुष्टों को साधते हुए गढ़वाल में निर्णायक बढ़त हासिल कर ली। इसी तरह 2019 का लोकसभा चुनाव भी परिणामों के मामले में 2014 के आम चुनावों की पुनरावृति ही थी। भाजपा को इस चुनाव में गढ़वाल क्षेत्र में 60 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 30.4 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। भाजपा ने गढ़़वाल में जहां 6 प्रतिशत की मत वृद्धि दर्ज की, वहीं कांग्रेस का मत प्रतिशत लगभग 2 प्रतिशत कम हो गया।
पिछले चुनावी नतीजों के विश्लेषण से समझा जा सकता है कि गढ़वाल में उच्च वर्ग जहां भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक रहा है, वहीं दलित तथा मुस्लिम कांग्रेस व दूसरे दलों के साथ ही जाते हैं। इस बार कांग्रेस एंटी इनकंबेंसी तथा दूसरे कारणों से टक्कर में दिख रही है, लेकिन यदि कांग्रेस इस रेस में बने रहना चाहती है तो इसके लिए कांग्रेस को अपने पारंपरिक वोट बैंक से आगे निकलकर दूसरे लोगों को भी अपने साथ जोड़ना होगा, क्योंकि गढ़वाल में देवस्थानम बोर्ड से तीर्थ क्षेत्रों के पंडे पुजारी भाजपा के साथ कहीं ना कहीं नाराज चल रहे हैं। हालांकि धामी सरकार ने डैमेज कंट्रोल करते हुए इसे वापस लेने का फैसला किया है, किंतु तब भी पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के लगातार इसका समर्थन करने से एक शून्य तो उत्पन्न हुआ है, जिसे कांग्रेस भर सकती है। इसके साथ ही उसे आम जनता से जुड़े हुए मुद्दे जैसे रोजगार, बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं, पलायन, परिवहन, बिजली इत्यादि पर अपना चुनाव अभियान केंद्रित करना चाहिए। भाजपा को लगातार मुख्यमंत्री बदलना, तराई में किसान आंदोलन का प्रभाव, कुंभ में कोरोना जांच फर्जीवाड़ा, देवस्थानम बोर्ड, कोरोना मिस मैनेजमेंट तथा बेरोजगारी जैसे मुद्दे चुनाव में जरूर नुकसान पहुंचाने वाला हैं। कांग्रेस के लिए गढ़वाल में सबसे बड़ी समस्या कोई बड़ा चेहरा न होना है, क्योकि 2016 की टूट के बाद बड़े नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। पार्टी ने गढ़वाल से गणेश गोदियाल को पार्टी अध्यक्ष बनाकर ब्राह्मण तथा गढ़वाल के मतदाताओं को एक साथ साधने की कोशिश की है। इसके साथ ही कांग्रेस को संगठनात्मक कमजोरी, टिकट वितरण से होने वाली परेशानियों से भी पार पाना होगा।
युवा धामी के सामने अनुभवी हरीश रावत भारी पड़ सकते हैं। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की सक्रियता से जरूर कांग्रेस चिंता में है क्योंकि वर्तमान सरकार से नाखुश, खासतौर से युवा मतदाता प्रयोग के तौर पर आम आदमी पार्टी की तरफ रुख कर सकता है, लेकिन नवागंतुक आप के लिए भी राज्य में अपने पहले ही विधानसभा चुनाव में सफलता प्राप्त करना आसान नहीं है। सैन्य पृष्ठभूमि के कर्नल कोठियाल जरूर युवाओं के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं, लेकिन यह लोकप्रियता कितने वोट खींच पाती है, यह देखने वाली बात है। इन सभी समीकरणों के बीच देवभूमि का रण बेहद रोचक स्थिति में पहुंच गया है। साथ ही आने वाले दिनों में पार्टियों के टिकट वितरण के बाद ही स्थितियां और अधिक स्पष्ट हों सकेंगी। इस हाई टेंशन मुकाबले में किसके दांव ठीक लगते हैं, इसका खुलासा 10 मार्च को चुनाव परिणाम आने के दिन ही होगा