
दुबौलिया/ बस्ती। डिजिटलाइजेशन ने चुनाव प्रचार के तौर तरीकों को ही बदल दिया ।सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर नोंक-झोंक टीका टिप्पणी ने जमीनी प्रचार को हाशिए पर ला दिया है ।प्रचार के तौर तरीकों ने लोक गीतों के माध्यम से गांव गांव चुनावी गानों से शंमा बांधने को पीछे कर दिया ।लोक कलाकारों की आवाज को चिप में समेट दिया गया है । जिंदगी के बहुत सारे काम आसान तो हो गये लेकिन वह जिंदादिली और भाई चारा न जाने कहां गुम हो गया ।
आजादी के बाद अपनी सरकार चुनने का जो उत्साह जनता में रहा उसे लोकगीतों के माध्यम से जब बाजारों नुक्कड़ों और गांवों में प्रस्तुत किया जाता था तब भीड़ का नजारा देखने लायक होता था। 94 साल के राम संजीवन का कहना है कि उस समय के नेताओं में अपनापन झलकता था आज तो चुनाव के समय ही उम्मीदवार गांवों में दिखते हैं और पूरे पांच साल दिल्ली लखनऊ छोड़ अपने पुश्तैनी घर नहीं आते हैं ।
लोकगायकी की चर्चा करते हुए वयोवृद्ध सालिक राम बताते हैं कि अब मोबाइल पर ही चुनाव प्रचार हो रहा है हम सबके जमाने में जीप पर बैठ कर पूरी मंडली गांवो में वोटरों के बीच जाकर वोट के महत्व को समझाता था और मतदान को महादान बताकर वोट देने के प्रति जगाया जाता रहा । आज तो लगता ही नहीं कि चुनाव हो रहा है इतने सन्नाटे में कैसा चुनाव ।
चुनाव तब और अब का माहौल ही बदल गया ।अस्सी वर्षीय राम फेर का कहना है कि आज भीड़ जुटाना पडता है । हर दल के नेता की भीड़ में एक ही चेहरा दिखाई देता है और नेता भी भीड़ देख गदगद हो जा रहे हैं लेकिन भीड़ के लोगों को अपने पक्ष में कभी वोटों में तब्दील नही कर पाते हैं।