
आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं मरूंगा
"आज़ाद"की धरती पे, आज़ाद होकर रहूंगा।
तेरी इस तानाशाही को, क़लम से ख़त्म अब करूंगा,
झूठ के ताने बाने का , तराना तेरा ख़त्म करूंगा।
आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं मरूंगा।
तेरी मनमानी से देश यूं नहीं चलेगा,
ग़ुलामी बेड़ियों को फिर भारत नहीं सहेगा,
जला के शमां क्रांति की
आज़ादी का बिगुल फिर बजेगा।
नौजवानों का वो लहू फिर ना जाया होने देंगे,
सरहद पर सैनिको कीं शहादत, मिट्टी में ना मिलने देंगे।
आज़ाद था, आज़ाद हूं, आज़ाद हीं मरूंगा,
आज़ाद" की धरती पे, आज़ाद होकर रहूंगा।
वो अमर क्रांतिकारी, जिन्होंने न सिर्फ़ देश को अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद करने की सौगंध ली, बल्कि जीवन भर खुद को भी “आज़ाद” बनाए रखा। हम बात कर रहे हैं चंद्रशेखर आज़ाद की — उस वीर सपूत की, जिनका नाम ही आज़ादी का प्रतीक बन गया। लेकिन यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस सेनानी ने “आज़ादी” को अपना नाम बना लिया, उसकी अस्थियां पिछले 50 वर्षों से ताले में बंद हैं। लखनऊ के राज्य संग्रहालय में रखा उनका अस्थि कलश दो-दो तालों में बंद है — न गंगा में प्रवाह, न किसी सम्मानजनक अंतिम संस्कार की प्रक्रिया।
देश को आज़ाद करने वाले को खुद मोक्ष तक की आज़ादी नहीं मिल सकी। समय बदल गया, सरकारें बदलीं, मगर आज़ाद की अस्थियों की किस्मत नहीं बदली। क्या यही है हम आज़ाद भारत का ‘कृतज्ञ’ व्यवहार अपने नायकों के प्रति?

नहीं मिल पाया उचित सम्मान
हालांकि, यह बात सर्वविदित है कि शहीद चंद्रशेखर आजाद ने पूरी जिंदगी अंग्रेजों के हाथों न पकड़े जाने की कसम खाई थी। जीवन में उन्होंने अपनी इस कसम को निभाया भी। अंतिम समय, जब उन्हें लगा कि वो पकड़े जाएंगे तो उन्होंने अपनी अंतिम गोली खुद को ही मार कर जान दे दी लेकिन अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आए। लेकिन, अब इसे विडंबना कहें या कुछ और, उनकी अस्थियां ही कैद हैं।

अंतिम संस्कार के बाद लायी गईं थीं अस्थियां
जानकारी के अनुसार, चंद्रशेखर आजाद के अंतिम संस्कार के बाद उनके अस्थित कलश को काशी लाया गया था। लेकिन आज तक उसे उचित सम्मान नहीं मिला है। यहां यह भी बताना महत्वपूर्ण होगा कि काशी से आजाद का गहरा नाता रहा है। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के नाम से ब्रिटेन की पुलिस तक खौफ खाती थी। आजाद ने कसम खाई थी कि उनके जिंदा शरीर को ब्रितानिया पुलिस छू तक नहीं सकती। मां भारती के उस अमर सपूत का अस्थि कलश लखनऊ के चिड़िया घर स्थित राज्य संग्रहालय की तीसरी मंजिल पर पांच दशक से बंद है, वह भी एक नहीं, डबल लाक में।

दाह संस्कार के बाद बनारस लाया गया अस्थि कलश
वास्तव में आजाद की शहादत के बाद देश में किसी की हिम्मत ही नहीं हुई कि अंग्रेजों से उनका पार्थिव शरीर मांग सके। इसके बाद उस समय कमला नेहरु ने बनारस में पुरुषोत्तम दास टंडन से उनके फूफा शिवविनायक मिश्र को संदेश भिजवाया और उन्हें इलाहाबाद बुलवाया गया। हालांकि, जब तक वे वहां पहुंचें, चंद्रशेखर आजाद के शवदाह की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उन्होंने तत्परता दिखाते हुए मौके पर मौजूद अधिकारियों से अपने व आजाद के बीच के संबंध को बताते हुए हिंदू रीति-रिवाज से उनके अंतिम संस्कार की इच्छा जताई। इसके बाद अधिकारियों ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। इस पर उन्होंने संगम तट पर अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का दाह संस्कार किया। यहां से वे उनका अस्थि कलश लेकर बनारस आ गए।
आज़ादी के इंतजार में नहीं किया गया विसर्जन
अब चंद्रशेखर आजाद की अस्थियां तो बनारस ले पहुंच चुकी थीं। लेकिन, उनके फूफा मिश्रा अस्थि कलश का विसर्जन नहीं किया। वो देश की आजादी के बाद ही उनका विसर्जन करना चाहते थे। मिश्रा जी के निधन के बाद चंद्रशेखर आजाद के फुफेरे भाइयों राजीव लोचन मिश्र, फूलचंद मिश्र व श्यामसुंदर मिश्र ने 10 जुलाई 1976 को उनका अस्थि कलश राज्य सरकार के प्रतिनिधि सरदार कुलतार सिंह को समर्पित कर दिया।
अस्थि कलश के साथ है पत्र भी
जानकारी के अनुसार, एक अगस्त 1976 को महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से भव्य शोभायात्रा निकाली गई जो 10 अगस्त 1976 को उत्तर प्रदेश के राज्य संग्रहालय में आकर समाप्त हुई। यहीं पर आज भी यह अस्थि कलश रखा हुआ है। अमर शहीद की इस महत्वपूर्ण निशानी के साथ संग्रहालय में शिवविनायक मिश्र का हस्त लिखित पत्र भी है, जो उन्होंने शहीदे आजम भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह को सौंपा था।
आसान नहीं है अस्थि कलश का दर्शन
यहां बता दें कि अगर आपको चंद्रशेखर आजाद के अस्थि कलश का दर्शन करना है तो यह आसान काम नहीं है। इसके लिए आपको सबसे पहले प्रार्थना पत्र देना होगा। इसके बाद संग्रहालय की ओर से टीम का गठन किया जाता है। इसी टीम की निगरानी में आपको अस्थि कलश का दर्शन कराया जाता है। क्या हम अपने वीरों और शहीदों का ऐसे ही सम्मान करते हैं। एक तरफ देश में महात्मा गांधी और अन्य सेनानियों का पूरा सम्मान है। चंद्रशेखर आजाद का भी सम्मान किसी से कम नहीं है। लेकिन, प्रश्न यह कि यह कैसा सम्मान है कि उनकी अस्थियां खुद ही तालों में बंद हैं। आखिर इस सम्मान का क्या मतलब। यह भी कि यह चंद्रशेखर आजाद का सम्मान है या कुछ और!
हिंदू धर्म में है यह व्यवस्था
चूंकि, चंद्रशेखर आजाद हिन्दू थे, इसलिए उनका अंतिम संस्कार भी हिंदू रीति रिवाज से कर दिया गया। अब बात यह है कि हिंदू धर्म में शास्त्र सम्मत परंपरा है कि मृतक के अस्थि कलश को गंगा या दूसरी पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है। अगर उसे रखना हो तो उसके पूजन का विधान है। अस्थि कलश के पास अखंड ज्योति भी जलाई जाती है, जो लगातार जलती रहती है। लेकिन, चंद्रशेखर आजाद की अस्थियों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है। आजादी के 78 साल बाद भी उनका उचित सम्मान नहीं किया जा रहा है। अब यह कर्तव्य राज्य और केंद्र सरकार का है कि वह उनका उचित सम्मान करे।
काशी ने ही दिया था आजाद को नाम
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके पिता ने आजाद को किशोरावस्था में उनके फूफा के यहां बनारस पढ़ने भेजा था। उस वक्त चंद्रशेखर आजाद के फूफा काशी में पियरी पर रहते थे। आजाद को आजाद नाम काशी ने ही दिया था। काशी उनकी कर्मभूमि थी। आजाद का अस्थि कलश आज जिस हाल में रखा हुआ है, निश्चित ही उनकी आत्मा को शांति नहीं मिल रही होगी। हम यह भी कह सकते हैं कि आजाद की आत्मा को आज तक शांति नहीं मिल सकी है।