भारतीय छात्रों के लिए झटका! अब अमेरिकी यूनिवर्सिटीज में एडमिशन मिलना होगा मुश्किल, जानिए क्यों ?

-भारतीय और दक्षिण एशियाई छात्रों के लिए अमेरिका में एंट्री के तरीके बदल जाएंगे

नई दिल्ली। अमेरिकी सरकार ने एमआईटी, ब्राउन और डार्टमाउथ जैसी 9 टॉप यूनिवर्सिटीज को नोटिस भेजा है। इस नोटिस के तहत इन यूनिवर्सिटीज को अंतरराष्ट्रीय स्नातक स्टूडेंट्स की संख्या को कुल नामांकन के 15 फीसदी तक सीमित करना होगा। इसमें भी किसी एक देश के छात्रों की संख्या को 5फीसदी तक सीमित रखना होगी। इस निर्देश को फेडरल फंड्स से जोड़ दिया है। इसका मतलब है कि अगर ये संस्थान नियम का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें मिलने वाली सरकारी मदद खतरे में पड़ सकती हैं।

इस नए नियम में सिर्फ संख्या सीमित करने की बात नहीं है, बल्कि कुछ और शर्तें भी जुड़ी हैं जैसे- ट्यूशन फीस फ्रीज करना और विदेशी छात्रों के लिए स्टैंडर्डाइज्ड टेस्टिंग अनिवार्य करना। सबसे बड़ी बात यह है कि विदेशी छात्रों की स्क्रीनिंग ‘अमेरिकी मूल्यों के साथ तालमेल’ के आधार पर की जाएगी। यह कदम अमेरिकी उच्च शिक्षा के इतिहास में बड़ी पहल माना जा रहा है।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यूनिवर्सिटीज लिविंग के फाउंडर ने बताया कि यह नया नियम इंटरनेशनल ग्रेजुएट एडमिशन को 15फीसदी और देश-आधारित सीमा को 5फीसदी पर सेट करता है। इससे भारतीय और दक्षिण एशियाई छात्रों के लिए अमेरिका में एंट्री के तौर-तरीके पूरी तरह बदल जाएंगे। वर्तमान में भारतीय छात्र अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय छात्रों का सबसे बड़ा समूह है। इस कैप के लगने से, सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय संस्थानों में एडमिशन लेना ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो जाएगा। इससे भविष्य के आवेदकों के लिए उच्च-स्तरीय कॉलेजों के विकल्प कम हो सकते हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विदेशियों के लिए अमेरिका में बसने की राह बहुत मुश्किल कर दी है। यह बदलाव ऐसे समय में आया है, जब वीजा जांच में सख्ती, प्रोसेसिंग में देरी और जियो-पॉलिटिकल बदलावों के कारण पहले से ही नामांकन की गति धीमी हो चुकी है। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत जैसे देशों से नए स्टूडेंट्स के आगमन में कमी आई है और यह नया नोटिस अमेरिका में स्नातक की पढ़ाई की योजना बना रहे छात्रों के लिए रास्ता और भी मुश्किल बना देगा।
अमेरिका की नई नीति के कई निगेटिव परिणाम हो सकते हैं। दक्षिण एशियाई स्टूडेंट्स न केवल शैक्षणिक उपलब्धियों में योगदान देते हैं, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान और रिसर्च प्रोडक्टिविटी में भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनमें से कई छात्र बाद में एच-1बी वीजा जैसे कार्यक्रमों के जरिए अमेरिकी वर्कफोर्स में शामिल होते हैं। इससे टेक्नोलॉजी और हेल्थ सर्विस जैसे हाई डिमांड वाले क्षेत्रों में प्रतिभा की कमी को पूरा करने में मदद मिलती है।

अमेरिकी यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टूडेंट्स के एडमिशन की 15फीसदी सीमा को देखते हुए छात्रों को अब विदेश में पढ़ाई की अपनी स्ट्रैटेजी पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और उसमें विविधता लानी चाहिए। केवल टॉप-टियर संस्थानों पर फोकस करने के बजाय स्टूडेंट्स को अब उन मिड-टियर और कम प्रतिस्पर्धी विश्वविद्यालयों पर भी विचार करना चाहिए, जिन पर कैप का असर कम होगा। कम्युनिटी कॉलेज और ट्रांसफर प्रोग्राम भी अमेरिका में एडमिशन का वैकल्पिक रास्ता हो सकते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक सीटों की संख्या कम होने के कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इसलिए आवेदन का सॉलिड प्रोफाइल बनाना जरूरी है। इसमें अच्छे स्टैंडर्डाइज्ड टेस्ट स्कोर, एक्सीलेंट शैक्षणिक रिकॉर्ड और शानदार निबंध शामिल हैं। अर्ली एक्शन या अर्ली डिसिशन राउंड के जरिए जल्दी आवेदन करने से एडमिशन की संभावना बढ़ सकती है। अगर अमेरिका में एडमिशन नहीं मिल रहा है तो अब जर्मनी, फ्रांस और आयरलैंड जैसे यूरोप के उभरते हुए देशों पर फोकस करें। परिवारों को अब सिर्फ एकेडमिक रेपुटेशन के बजाय लागत, नौकरी मिलने की संभावना और वैश्विक अनुभव को बैलेंस करते हुए लॉन्ग टर्म अप्रोच अपनाना चाहिए। फ्लेक्सिबल रहकर और ऑप्शन की वाइड रेंज तलाशकर बदलते ग्लोबल लैंडस्केप के साथ तालमेल बिठाते हुए सही निर्णय ले सकते हैं।

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