बिहार में शराब : कुछ यक्ष प्रश्न



ऐसा क्यों होता है कि सांप गुजर जाने के बाद हम लकीर पीटते हैं। बिहार के गोपालगंज में 2016 में जहरीली शराब पीने से 19 लोगों की मौत हो गई थी और दो लोगों की आंखों की रोशनी चली गई थी। इस शराब कांड पर जो निर्णय अदालत का आया है, उसकी जितनी प्रसंशा की जाए कम है। अदालत ने 11 अपराधियों को फांसी और चार महिलाओं पर दस-दस लाख का जुर्माना और आजन्म कारावास की सजा सुनाई है। ध्यान देने की बात है कि बिहार में शराबबंदी कानून लागू है। फिर इतनी बड़ी घटना कैसे घट गई। क्या इसकी जांच की गई? इतनी बड़ी मात्रा में यह जहरीली शराब वहां पहुंची कैसे और यदि वहीं बनाई गई तो फिर पुलिस प्रशासन ने अपने कर्तव्य का पालन क्या किया? क्या इन अपराधियों को फांसी पर लटका देने से उन मृतात्माओं को शांति मिल जाएगी जिन्होंने इन अपराधियों के कारण धन खर्च करके अपनी मौत को गले लगाया था?

ठीक है कि इस दंडात्मक कार्रवाई से अपराधियों में भय पैदा होगा, लेकिन जिस पुलिस प्रशासन की मिलीभगत से इतनी अकाल मौतें हुईं, उस पर क्या कार्रवाई हुई – प्रश्न तो यहां यही बार-बार उठता है। जब भी आप बिहार की यात्रा पर जाएंगे सभी यही कहते हैं यदि शराब चाहिए तो अभी यहीं आपके पास कोरियर सर्विस से आ जाएगी। सरकार का यह कार्य अपनी सोच के अनुसार बिल्कुल ठीक है, लेकिन तभी जब प्रशासनिक स्तर पर उसका पालन हो। ऐसा लगता है कि इसकी सही व्यवस्था नहीं की गई। इसलिए कहा गया है कि झूठ और असत्य की बुनियाद पर समाज का निर्माण नहीं हो सकता।

सरकार द्वारा की गई इस शराबबंदी का लाभ कम, हानि अधिक हुई है। वैसे सरकारी पक्ष इस बात को स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो पाएगी। इस शराबबंदी का तथाकथित लाभ तो यह हुआ कि लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ, पर कोई भी उद्योग या कल-कारखाने नहीं लग सके। उसका कारण उद्योगपति यह बताते हैं कि यदि कोई उद्योग लगाने की बात करता है तो स्वयं उनके ही यहां इस बात का विरोध होता है कि वहां बाहर का कोई भी पदाधिकारी जाकर अपने मनोरंजन के लिए क्या करेगा। वह गंगाजल पीकर अपना खाली समय गुजरेगा? सुरक्षा का कोई इंतजाम है नहीं शराब के लिए कोई बार है नहीं, हफ्ता वसूली को रोकने में सरकार अक्षम है।

फिर उद्योग लगाने का कोई लाभ किसी उद्योगपति को कैसे मिलेगा? रही सरकार की बात उसे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि उसके राज्य का कोई निवासी बाहर जाकर किस प्रकार अपना जीवन यापन करता है। सरकार को तो इस बात की खुशी होती है कि उस राज्य का मजदूर दूर राज्य में मजदूरी करता है और जीने का उपक्रम स्वयं कर लेता है। फिर बिहार सरकार अपने यहां कोई उद्योग लगाकर झमेले क्यों अपने सिर पर ले। किसी जिले में न तो स्वास्थ्य केंद्र का सही इंतजाम है, न रोजगार के साधन उपलब्ध हैं फिर कोई युवा करे तो क्या करे। सरकार द्वारा लागू शराबबंदी कानून से यदि किसी को फायदा हुआ है तो कुछ इन्ही बेरोजगारों को या फिर उन अधिकारियों को जिनके जेब को ऐसे लोग गर्म करते रहते हैं और ऐसे शराब माफियाओं को जिनके बनाए हुए या आयात किए गए शराब से 19 लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं या अंधे बनकर जीवन की दुश्वारियों को भोगते रहते हैं।

निशिकांत ठाकुर

किसी भी पद पर काम करने वालों को पूरी लगन से कार्य करते रहना चाहिए। आलोचना तो किसी भी लोककार्य का एक अनिवार्य हिस्सा है। वह होगी। वैसे भी हर कार्य के लिए कोई न कोई तर्क-कुतर्क अवश्य होता ही रहता है। यह केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की रीत है। अच्छा काम हो तो भाग्य, बुरा हो तो दुर्भाग्य। जीवन अच्छा हो तो ईश्वर की देन और बुरा हो तो पिछले जन्म के बुरे कर्म। व्यक्ति को अपनी क्षमता से कुछ होता है या नहीं? वह अपनी बुद्धि बल से कुछ करता है या नहीं? बिहार क्यों अब तक पिछड़ा राज्य बना हुआ है क्योंकि उसके नेता जनहित के लिए दूरदर्शी नहीं होते। यदि होते भी हैं तो वह दूरदर्शिता की अभिव्यक्ति अपने कार्य से नहीं करते। हाँ, अपने दिखावे के लिए भाषणों में जरूर करते हैं। यह हो ही नहीं सकता कि सिंह दहाड़ना भूल जाय, हाथी को चिंघाड़ना याद न रहे, बिच्छू को डंक मारने की सुध न रहे। नेता का जज्बा ही यही होता है की वह जनहित के लिए अपने को समर्पित कर दें – ऐसा वह करते भी हैं, लेकिन उनमें इस तरह की प्रशासनिक सूझ नहीं होते कि उनके बनाए गए कानून से कोई बहाना बनाकर निकल न पाए। प्रशासकीय सेवा में आने वाले उच्चतम बुद्धिजीवी की श्रेणी में आते हैं और उनका प्रशिक्षण भी उसी तरह का होता है कि वह सामान्य जनता से जुड़कर समाज हित, राज्य हित और देश के लिए अपने को समर्पित कर दें, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? यदि राजनीतिज्ञ और प्रशासकीय अधिकारी यह ठान ले कि वह हर हाल में अपराध नहीं होने देंगे तो फिर किसकी मजाल कि कोई गोपालगंज जैसे कांड की पुनरावृत्ति होने दे।

कहते हैं राजनीतिज्ञ ने भले ही किसी संस्था में शिक्षा ग्रहण न की हो, पर अनुभवों की पाठशाला में जो ज्ञान और विवेक उन्हें मिल जाता है, वह किसी भी पुस्तकीय ज्ञान से भी बढ़कर होता है। 70 वर्षीय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो पेशे से इंजीनियर हैं और वर्ष 1973 से ही राजनीति में हैं। वह एक मजे हुए परिपक्व राजनीतिज्ञ हैं। फिर उनके लिए यह कहना कि उनमें दूरदर्शिता की कमी है, बिल्कुल गलत होगा। लेकिन हां, इनकी योजनाओं को उनके बनाए कानूनों को अमल में लाने की जिम्मेदारी जिन पर बनती है उनकी सोच में उनके विचारों में अंतर है। आग में तपाए जाने पर घन की चोट मोटे लोहे को भी स्वरूप देने में सफल होती है। स्वर्ण को आग में रख कर हथौड़ी से पीटने पर सुनार द्वारा उसे आकर्षक स्वरूप प्रदान कर दिया जाता है। लोहार अंधाधुंध चोट करता है, पर सुनार की हथौड़ी ठुक ठुक करती है – यदि घन की चोट व हथौड़ी की योजनाबद्ध ठुक ठुक एक ही जगह पर मिल जाए तब? बिहार में यदि ऐसा होता है तो फिर देश के लिए एक उदाहरण ही तो होगा। जरा सोच- विचार कीजिएगा ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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