एक छोटी सी घटना से हुआ था एंटीबायोटिक का आविष्कार


डॉ राहुल चतुर्वेदी

एंटीबायोटिक मूलत एक ग्रीक शब्द है जो एंटी और बायो से मिलकर बना है। एंटी का मतलब होता है विरोध और बॉयोस का मतलब होता है। जीवाणु यानी बैक्टीरिया । अतः एंटीबायोटिक जो वह दवाएं हैं जो हमारी बॉडी में बैक्टीरिया की वजह से होने वाले इन्फेक्शन को रोकने में मदद करती है। बैक्टीरिया के मामूली इंफेक्शन से हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम अपने आप जीवाणु से लड़ लेता है लेकिन जब बैक्टीरिया का संक्रमण अत्याधिक हो जाता है तो प्रतिरोधक तंत्र के लिए लड़ना मुश्किल होता है और उस वक्त एंटीबायोटिक की मदद ली जाती है। एंटी बायोटिक शब्द का सबसे पहला प्रयोग साल 1942 में सैलमन अब्राहम वाक्समैन नेएक सूक्ष्म जीव द्वारा निकले गए ठोस तरल पदार्थ के लिए किया था ।जो बड़े अनु करण में विभिन्न सूक्ष्म जीवो के विकास को रोक रहे थे । स्कॉटिश चिकित्सक और माइक्रोबायोलॉजिस्ट सर एलेग्जेंडर फ्लेमिंग ने साल 1928 में पहली बार पेंसिल इन नामक एंटीबायोटिक दवा की खोज की थी। फ्लेमिंग अपनी रिसर्च लैब में रोगों के जीवाणुओं के साथ प्रयोग कर रहे थे और एक पेट्री डिस का इस्तेमाल कर रहे थे इस बीच उन्होंने देखा कि पेट्री डिश में पड़ी जैली में फफूंद उग आई थी । दिलचस्प बात यह थी कि जहां भी यह फफूंद हो गई थी वहां सभी बैक्टीरिया मर गए थे । उन्होंने इस फफूंद का पता लगाया जो कि पेनिसिलियम नोटा टर्म थी ।

लेखक दैनिक भास्कर के संपादकीय सलाहकार हैं

इस फफूंद से निकले रस द्वारारोग जीवाणु नष्ट हो रहे थे। इस तरह अचानक पेंसिलन एंटीबायोटिक जैसी दवा
का पता चल पाया था। जिसकी उस समय बहुत जरूरत थी और तब पेंसिलन कोचिकित्सा में जगत के लिए वरदान का के रूप में देखा गया था । उसके बाद धीरे-धीरे विज्ञान के क्षेत्र में तरक्की होने पर कई नए और अलग अलग ग्रुप के एंटीबायोटिक सामने आए । दरअसल एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया या जीवाणु के खिलाफ कारगर मानी जाती हैं, लेकिन अन्य वायरस पर इसका कोई असर नहीं होता । आजकल बैक्टीरिया हमारे चारों ओर मौजूद हैं । बाहर के वातावरण से लेकर हमारे शरीर के आतो तक हमारे शरीर की नेचुरल प्रतिरोध क्षमता इन बैक्टीरिया से हमारी रक्षा करती है । लेकिन प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने पर हमारे शरीर में पहले से ही मौजूद बैक्टीरिया शरीर के किसी कमजोर स्थान पर पहुंच कर हमारे शरीर में संक्रमण फैलाने लगता है । यह बैक्टीरिया तेजी से बदलते हैं और मल्टिप्लाई होते हैं धीरे धीरे कोशिकाओं को तबाह करने लगते हैं । इन बैक्टीरिया का जहर हमारे शरीर में खून ने मिलकर महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित करता है और बुखार दर्द सूजन आदि लक्षण शरीर पर आ जाते हैं ।

एंटीबायोटिक दवाई लेने से यह शरीर में बैक्टीरिया को मार डालती है और उम्मीद की जाती है कि बैक्टीरिया के मर जाने के बाद शरीर की प्रतिरक्षण क्षमता शरीर को ठीक कर देती है। लेकिन आजकल यह देखा जा रहा है कि हमने जाने अनजाने इतनी अधिक एंटीबायोटिक ले ली है कि बैक्टीरिया को भी इन दवाओं कि एक तरह से आदत हो गई है और नती जा यह हुआ कि एंटीबायोटिक्स बैक्टीरिया पर बेअसर होने लगी है। साथ ही इसके दुष्प्रभाव भी घातक हैं। एंटीबायोटिक्स प्रतिरोध के कारण दुनिया में हर वर्ष साढे सात लाख बच्चों की मौत होती है जिससे अकेले भारत में लगभग 59000 मौतें हो हैं। ऐसा माना जा रहा है कि 2050 तक एमआर में एशिया व अफ्रीका में 40 लाख, उत्तर अमेरिका में हर साल 3 लाख 18 हजार और यूरोप में 3लाख 42000 लोगों को जान का जोखिम खड़ा हो जाएगा। भारत के लिए यह स्थिति ज्यादा चिंताजनक है क्योंकि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल भारत में हो रहा है। भारत में एंटीबायोटिक्स की खपत में 106 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है । जिसमें एंटीबायोटिक्स प्रतिरोध में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसलिए सलाह यह है कि अनावश्यक एंटीबायोटिक व एंटीबैक्टीरियल दवा के अंधाधुंध उपयोग से बचा जाए। चिकित्सक की सलाह से ही एंटीबायोटिक दवाएं खाएं क्योंकि डॉक्टर बीमारी के अनुसार ही दवा देते हैं । अपनी
मर्जी से सेवन करने से सही मात्रा और समय की जानकारी नहीं होती । जिसमें शरीर पर बुरा असर भी पड़ सकता है। चिकित्सकों की सलाह पर शुरू हुई एंटीबायोटिक्स का कोर्स निश्चित रूप से पूरा करें अन्यथा कुछ बैक्टीरिया बचे रह जाते हैं और दोबारा संक्रमण फैला सकते हैं। एक डॉक्टर होने के नाते मेरी सलाह यह है कि हम अपने शरीर की इम्यून सिस्टम को इतना मजबूत बना लें कि एंटीबायोटिक खाने की नौबत ना आए ।

वह तभी हो सकता है जब हमइस योग करें, घर में उगाई हुई हरी सब्जियां खाएं। फ्रेश फ्रूट जूस का सेवन करें व नेचुरल पदार्थों पर विश्वास करके अपनी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाएं।
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