एक चावल के बराबर हर साल बढ़ जाता शिवलिंग
-गुफा में भोलेनाथ के दर्शन को आते हैं नाग देवता
-वामदेवेश्वर मंदिर में जलता दिया, नहीं है नादिया
बांदा। वैसे तो भगवान शंकर की प्रतिमा की स्थापना बिना नादिया के नहीं होती, लेकिन वामदेवेश्वर पर्वत की आदिकालीन गुफा में भोलेनाथ बिना नादिया के विराजमान हैं। भोले के भक्तों का मानना है कि उनके दरबार से कोई खाली नहीं लौटता। याचना करने वालों की भोलेनाथ झोली जरूर भरते हैं। गुफा में हर समय ‘दिया जागृत रखने की परंपरा है। लगातार ग्यारह सोमवार व्रत से शिवजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। पर्वत की चोटी से हर रात भोलेनाथ के दर्शनों को आते हैं। दरबार में कई और विषमताएं देखने को मिलती हैं। पर्वत शिखर पर डमरू की जगह टुनटुनिया पत्थर डमडमाता है। पिण्डी प्रतिवर्ष चावल के आकार के बराबर बढ़ती है। इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं यहां रखे वे आभूषण जो पहले कभी पिण्डी के आकार की नाप से बनवाये गये थे, लेकिन अब छोटे पड़ गए हैं। ऐसी मान्यता है कि शहर के दक्षिण-पश्चिम दिशा में केन नदी के किनारे स्थित पर्वत की गुफा में आदि काल से देवाधिदेव महादेव की जो पिण्डी स्थापित है, उसकी स्थापना आदिकाल में गौतम पुत्र महर्षि वामदेव ने स्वयं अपने हाथों से की थी। इसीलिये राजा विराट की इस नगरी का नाम वामदेव के नाम पर वामदा हुआ। बाद में लोग इसे बांदा कहने लगे। मंदिर के पुजारी पुत्तन तिवारी बताते हैं कि महादेव की यह पिंडी वामदेवेश्वर के नाम से सुप्रसिद्ध है। माना जाता है कि आदिकाल में महर्षि वामदेव ने यहां हजारों वर्षों तक तपस्या की थी। गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीराम चरित मानस के बालकाण्ड, अयोध्याकांड और उत्तरकांड के चौपाई, दोहा और सोरठा में महर्षि वामदेव का कुल आठ स्थानों पर उल्लेख मिलता है। क्षेपक कथाओं के अनुसार त्रेता में जब भगवान राम चित्रकूट आये थे, तब महर्षि के दर्शनों के लिये वह बांदा भी आये थे। बीते वर्ष जब अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि में मंदिर निर्माण से पूर्व भूमि पूजन हुआ था, तब यहां की भी मिट्टी मंगवाई गई थी।
यहां स्थापित शिव की पिंडी की विशेषता यह है कि भगवान शिव का प्रिय नादिया यहां नहीं स्थापित है। महादेव के अन्य मंदिरों की तरह महर्षि वामदेव ने नादिया की स्थापना क्यों नहीं है, यह कोई नहीं जानता, लेकिन इस संदर्भ में विद्धानों का मत है वामदेवेश्वर में जिसने जो मन्नत मांगी वह पूरी हुई। कोई भी याचक खाली हाथ नहीं गया। इस पवित्र देवालय में ना दिया नाम की कोई चीज नहीं है, इसलिये यहां नादिया नहीं है। यही वजह है कि पिण्डी के पास भोले के भक्त दिया जलाते हैं। महाशिवरात्रि के पर्व में इस गुफा में जब हजारों की संख्या में दिये जगमगाते हैं तो दीपावली की तरह टिमटिमाते दियों की शोभा देखते ही बनती है। यहां स्थापित पिण्डी की एक और विशेषता से भी कम ही लोग परिचित हैं। वह यह है कि भोलेनाथ की पिण्डी प्रतिवर्ष एक चावल के दाने के बराबर बढ़ जाती है। यही वजह है कि भोलेनाथ में पिण्डी दर्शन के लिये जो आभूषण बनवाये जाते हैं वह नाप से कुछ बड़े बनवाये जाते हैं और दस से पंद्रह वर्ष बाद उन्हें गलवाकर दोबारा से तैयार करवाया जाता है। मन्नत पूरी होने पर भक्त चांदी से जो आभूषण बनवाते हैं वह नाप में छोटे पड़ जाने के कारण आज भी पुजारी की संदूक में भरे पड़े हैं। कभी यह पिण्डी की नाप से तैयार करवाये गये थे। अब यह उपयोग में नहीं लाये जाते।
पत्थर से निकलती डमरू जैसी प्रतिध्वनि
देवाधिदेव महादेव का स्थान वामदेवेश्वर पर्वत और भी तमाम प्रकार की विचित्रताओं से भरा पड़ा है। वामदेवेश्वर पर्वत की गुफा के ऊपर एक विशाल पीपल का वृक्ष है। कहा जाता है कि महर्षि वामदेव यहीं तपस्यारत रहा करते थे। यहां वीर बजरंगी प्रतिमा स्थापित है। माना जाता है कि इस पवित्र स्थान से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। यहां मन्नत मांगने आने वाले भक्त पीपल की जटाओं में गांठ बांधते हैं। पास ही में एक ऐसा विचित्र पत्थर है जिसे दूसरे किसी पत्थर से ठोकने पर डमरू जैसी प्रतिध्वनि निकलती है। मंदिर की जिस गुफा में देवाधिदेव की पिण्डी विद्यमान है, वहां हर रात एक विशालकाय सर्प पिण्डी दर्शन को आता है। गुफा में इस सर्प के प्रवेश के लिये ऊपरी सिरे पर एक छेद भी करवाया गया है, जहां भक्तों के संकेत के लिये पेन्टिंग करवाकर सर्प की आकृति बनवाई गई है।