बक्सरः बच्चे घर से पैसे लाकर खुद पेपर खरीदकर परीक्षा देते हैं.. उसके बाद बोर्ड पर प्रश्नपत्र लिखा जाता है.. स्कूल के सर प्रश्न लिखते हैं तो बच्चे पूरे प्रश्न उतार भी नहीं पाते.. आधा अधूरा सवाल ही लिख पाते हैं कि उनके सर बोर्ड से सवाल मिटा देते हैं.. ये सब पढ़कर आपको किसी जमाने में घटित हुई बालकथा जैसा लग रहा होगा. लेकिन ये कोई कहानी नहीं है. यह बिहार के बक्सर जिले से सामने आई सरकारी स्कूलों की सच्चाई है. जहां के बच्चे अपना भविष्य संवारने के लिए सरकारी बदहालियों से जूझ रहे हैं.
बिहार सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को लेकर लाख दावे करे, लेकिन इसकी जमीनी सच्चाई बेहद डरावनी है. इन दावों की जमीनी हकीकत क्या है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जिले के सरकारी स्कूलों में 5 वीं और 8 वीं क्लास की वार्षिक परीक्षा चल रही है. लेकिन परीक्षार्थियों को प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका तक उपलब्ध नहीं कराई गई, क्योंकि विभाग के पास फंड नहीं है. मजबूरन छात्र-छात्राएं अपने पैसे से पेज खरीदकर स्कूल में ले जाकर परीक्षा दे रहे हैं. प्रश्नपत्र नहीं होने पर शिक्षक ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखकर अपना कोरम पूरा कर देते हैं.
क्या कहते हैं छात्रों के अभिभावक– ‘बजट का अधिकांश हिस्सा शिक्षा के क्षेत्र में ही खर्च किया जा रहा है. उसके बाद भी शिक्षा के इस बदहाल तस्वीर को देखकर सरकार की नीति और नीयत पर कई सवाल उठ रहे हैं. अब यह स्पष्ट हो गया है कि सरकारी स्कूलों को बर्बाद कर सत्ता और शासन में बैठे हुए लोग निजी स्कूलों को फायदा पहुंचाने के लिए इस तरह गरीब बच्चों को परेशान कर रहे हैं’.
छात्रों की समस्याओं को लेकर जब डुमरांव अनुमंडल के सिमरी प्रखंड अंतर्गत आशा पड़री मध्य विद्यालय के शिक्षक से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह सत्य है कि बच्चों को प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिका नहीं दी जा रही है. क्योंकि विभाग ने हमलोगों को उपलब्ध ही नहीं कराया है. जिले के सभी सरकारी स्कूलों में इस तरह से परीक्षा लेने का आदेश दिया गया है. किसकी गलती के कारण यह सब हो रहा है. इस पर हम कोई टिपण्णी नही करेंगे, लेकिन यह सत्य है.
बच्चों को हो रही परेशानीः स्कूलों में चल रही इस तरह से परीक्षा के बारे में पूछने के लिए जब ईटीवी भारत के संवाददाता ने जिला शिक्षा विभाग के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की लेकिन नहीं हो पायी. इसलिए उनका पक्ष क्या है, ये नहीं पता चला सका. बहरहाल, वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इसका खामियाजा तो उन बच्चों को ही भुगतना पड़ता है, जो आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने पर मजबूर हैं.
शिक्षा के असल उद्देश्य पीछे छूटे: स्कूल के छात्रों के लिए राज्य सरकार द्वारा मध्याह्न भोजन, साइकिल, स्कूल ड्रेस, छात्रवृत्ति सहित तमाम योजनाओं के माध्यम से बच्चों को विद्यालय की ओर खींचने की कोशिश तो हुई, लेकिन वो शिक्षा के असल उद्देश्य यानि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के मामले में पूरी तरह नाकाम रही है. इसका बड़ा कारण इस व्यवस्था की रीढ़ शिक्षकों की अनदेखी और निजी स्कूलों को फायदा पहुंचाने की कोशिश है. अधिकांश सरकारी स्कूल सालों से शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं. कई स्कूलों से मास्टर साहब महीनों से गायब हैं. दो-चार शिक्षकों की तैनाती में अधिकांश डाटा संग्रह और भोजन बनवाने में व्यस्त रह जाते हैं. ऐसे में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करने वाले बच्चे अपने बेहतर भविष्य का निर्माण कैसे कर पाएंगे.