गोरखपुर. बीआरडी मेडिकल कॉलेज के निओ-नेटल यानी नवजात बच्चों के आईसीयू और इंसेफेलाइटिस वार्ड में पिछले साल एक के बाद एक कई बच्चों की दर्दनाक मौत हो गई थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो करोड़ से ज्यादा की आबादी को स्वास्थ्य सेवा देने वाले इस मेडिकल कॉलेज में प्रशासनिक व्यवस्था इस कदर खराब है कि, पिछले साल यहां 24 घंटे के भीतर 20 नवजात शिशुओं की मौत सिर्फ इसलिए हो गई थी क्योंकि अस्पताल प्रशासन उन्हें समय पर ऑक्सीजन की सुविधा नहीं दे सका था. तब इस अस्पताल की चर्चा चारों तरफ होने लगी थी.
आज उस घटना के एक साल बाद फ़र्स्टपोस्ट एक बार फिर से उस बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचा है, ताकि वहां की व्यवस्था का रिएलिटी चेक कर सके. हम इस कड़ी में कहानियों की एक सीरिज लेकर आएंगे ताकि मौके पर हालात का जाएजा लिया जा सके. इस ग्राउंड रिपोर्ट में जो सामने आया है वो सरकारी दावों की पोल खोलता, बेहद ही बदसूरत और निर्दयी चेहरा है. अस्पताल में फैली यह अव्यवस्था यूपी सरकार के उन बड़े-बड़े और खोखले दावों को झूठा साबित करता है जिसमें बच्चों को दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने की बात कही गई थी.
हम सभी को ऐसा लगता होगा कि, पिछले साल गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में जिस अनुपात में दर्दनाक घटना हुई थी, उसको देखते हुए बीते एक साल में वहां के हालात सुधरे होंगे. वहां की स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करने की दिशा में कुछ कारगर कदम उठाए गए होंगे.
पिछले साल पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस अस्पताल में कम से कम 60 नवजात बच्चों ने कुछ ही दिनों के अंतराल में दम तोड़ दिया था, ऐसा अस्पताल में ऑक्सिजन की कमी होने के कारण हुआ. ऑक्सिजन की सप्लाई में जो दिक्कत आई उसकी वजह सप्लायर के बिल का भुगतान न होना था. इनमें से ज्यादातर मौतें इंसेफेलाइटिस और नेओ-नेटल वार्ड में हुईं थीं.
उस वक्त इस घटना को लेकर जितना शोर मचा था, उसके बाद आज इस सरकारी अस्पताल की जो हालत है उसे देखकर कोई भी सकते में आ सकता है. उदाहरण के लिए इसे देखें:
योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने इंसेफेलाइटिस की जानलेवा बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए दस्तक टीकाकरण कार्यक्रम का दूसरा चरण शुरू कर दिया है, लेकिन इसी बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या पिछले साल यानी 2017 के मुकाबले कम से कम 6 प्रतिशत ज्यादा है.
मेडिकल कॉलेज का पिडियाट्रिक डिपार्टमेंट, जो हर साल जून से अक्टूबर महीने में यहां होने वाली सबसे ज्यादा मौतों का गवाह बनता है, वो दयनीय हालत में है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज और इंस्टीट्यूट इस इलाके या जिले की 130 किलोमीटर की परिधि में आने वाला एकमात्र अस्पताल है. इतना ही नहीं यह अस्पताल राज्य के पूर्वी भाग के कम से कम 2 करोड़ की आबादी को स्वास्थ्य सेवा देने के लिए जिम्मेदार है. इनमें देवरिया, संत कबीर नगर, बस्ती, महाराजगंज, कुशीनगर और पड़ोसी राज्य बिहार के भी कुछ जिले शामिल हैं.
‘अस्पताल किसी भी तरह की स्थिती के लिए पूरी तरह से तैयार है’
कॉलेज की इंसेफेलाइटिस और पिडियाट्रिक वार्ड की प्रमुख, डॉ. महिमा मित्तल इंसेफेलाइटिस नाम की इस जानलेवा बीमारी के सिंड्रोम (एईएस) से होने वाली नवजात बच्चों की मौतों की संख्या को कम करने की नाकाम कोशिश में लगी हैं, उनका यह संघर्ष जारी है.
वो इस बात से थोड़ी संतुष्ट नजर आती हैं कि अस्पताल में इस साल पिछले साल के मुकाबले इंसेफेलाइटिस के कम मरीजों की भर्ती हुई है. उन्होंने कहा, इस साल अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या न सिर्फ पिछले साल बल्कि पिछले कई वर्षों की तुलना में काफी कम है. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने समाज के कई समूहों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में अच्छा काम किया है. हालांकि, मरीजों की कम संख्या होने की एक वजह देर से होने वाली बारिश भी हो सकती है.’ उन्होंने यह जोर देते हुए कहा, ‘अस्पताल किसी भी तरह के हालात से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है.’
कम केस, ज्यादा मौतें
सीएमओ, गोरखपुर के दफ्तर और अस्पताल से इस रिपोर्टर को जो रिपोर्ट मिले हैं, उसके मुताबिक इस साल जून से जुलाई महीने के बीच में अस्पताल के इंसेफेलाइटिस वार्ड में भर्ती कराए गए 245 बच्चों में से 80 की मौत हो गई है.
यदि इसकी तुलना पहले के आंकड़ों से करें तो पाएंगे कि, साल 2016 में मृत्यु दर 25.80 प्रतिशत था, जबकि साल 2017 में यह आंकड़ा 26.98 प्रतिशत. इस साल यह आंकड़ा 32.65 प्रतिशत है.
तीन चार्ट संलग्न
महीना | 2016 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस केस | मृत्यु |
जनवरी | 26 | 10 |
फरवरी | 47 | 9 |
मार्च | 35 | 14 |
अप्रैल | 25 | 11 |
मई | 38 | 16 |
जून | 46 | 13 |
जुलाईकुल | 155372 | 2396 |
महीना | 2017 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस केस | मृत्यु |
जनवरी | 31 | 9 |
फरवरी | 35 | 6 |
मार्च | 38 | 18 |
अप्रैल | 33 | 10 |
मई | 43 | 12 |
जून | 49 | 14 |
जुलाईकुल | 149378 | 33102 |
महीना | 2018 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस केस | मृत्यु |
जनवरी | 21 | 6 |
फरवरी | 32 | 9 |
मार्च | 31 | 18 |
अप्रैल | 45 | 7 |
मई | 38 | 18 |
जून | 48 | 15 |
जुलाईTotal | 30245 | 780 |
एक तरफ जहां राज्य सरकार ने लगातार अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सोशल मडिया में डींगें हांकी हैं, वहीं जमीन पर दिखता नहीं है कि इसे लेकर कुछ खास काम किया गया है, जिससे कि वेक्टर जनित इस रोग से दम तोड़ते बच्चों की जिंदगी बचाई जा सके. खासकर, नेपाल सीमा से लगे तराई क्षेत्रों में. सिर्फ- दस्तक कार्यक्रम शुरू करने के अलावा.
सामाजिक कार्यकर्ता और स्थानीय पत्रकार मनोज कुमार सिंह के अनुसार बीआरडी मेडिकल कॉलेज और ऐसे अन्य इंस्टीट्यूट्स में कई समस्याएं हैं जिन्हें एक दिन में ठीक नहीं किया जा सकता है.
उन्होंने कहा, ‘यहां डॉक्टरों की कमी है. इलाके में जरूरत भर के अस्पताल भी नहीं हैं, उसके अलावा लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की भी कमी है. बड़ी संख्या में अनाड़ी और बिना पढ़े-लिखे (झोला छाप) चिकित्सक भी हैं, जो एक तरह से ताबूत में लगी अंतिम कील का काम करते हैं. सरकार ने इस साल इन मौतों को रोकने के लिए दो चरण में दस्तक टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत की थी, लेकिन इसके नतीजे आने में वक्त लग जाएंगे.’
डॉक्टरों की कमी पूरे उत्तर प्रदेश की समस्या है. सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में इस समय प्रति 19 हजार लोगों के लिए मात्र एक डॉक्टर है.
सिंह ने यह भी दावा किया कि मौजूदा योगी सरकार की पूरी कोशिश मृतकों की संख्या छिपाने में है, न कि गोरखपुर के मेडिकल कॉलेड की सुविधा और व्यवस्था सुधारने में. उस विधानसभा क्षेत्र जो लंबे समय से मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का गढ़ रहा है.
‘अस्पताल में सब कुछ मौजूद है’
डॉ. महिमा मित्तल की तरह, बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. गणेश प्रसाद ने भी पूरे आत्मविश्वास से कहा, अस्पताल में इंसेफेलाइटिस से नवजात बच्चों की मौत रोकने के लिए पर्याप्त उपाय किए जा रहे हैं. उन्हें पूरा भरोसा है कि इस साल वो इस बीमारी से होने वाली मौतों की संख्या को पहले से कम कर देंगे.
उन्होंने कहा, ‘हर किसी को यह समझना होगा कि इन मौतों की संख्या कम करने का एकमात्र रास्ता बचाव है, लेकिन लोग उस दिशा में काम करते ही नहीं हैं. गरीबी और अशिक्षा इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है.’
उन्होंने स्वास्थ्य समस्याओं के लिए आम लोगों को कोसना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, ‘सरकार के बार-बार शौचालय की जरूरत पर बल देने के बावजूद, लोग आज भी खुले में शौच के लिए जाते हैं. न तो वो पानी उबाल कर पीते हैं और न ही मच्छरदानी का इस्तेमाल करते हैं. हम डॉक्टर सिर्फ उन्हें अच्छा इलाज दे सकते हैं. उन्हें कैसे जीना चाहिए यह बता सकते हैं, लेकिन लोग हमारी कही बातों को मानते नहीं है.’
उन्होंने बताया कि अस्पताल में इंसेफेलाइटिस से पीड़ित ‘बच्चों की सेवा’ के लिए 300 से भी ज्यादा बेड उपलब्ध है. इसके अलावा ‘दो नए वार्ड बनकर तैयार हैं जिनका उद्घाटन होना बाकी है. जरूरत पड़ने पर हम उनका भी इस्तेमाल करेंगे.’
डॉ. प्रसाद ने कहा, ‘कोई भी डॉक्टर नहीं चाहता कि उसके मरीज की मौत हो, लेकिन हमें मरीज उसी हालत में मिलते हैं जब उनकी हालत पूरी तरह से बिगड़ चुकी होती है और तब उसे संभालना मुश्किल होता है. लेकिन, फिर भी हमारे डॉक्टर बच्चों की जान बचाने की पूरी कोशिश करते हैं.’ उन्होंने जोर देते हुए कहा कि ‘हमारे अस्पताल में कोई कमी नहीं है.’
पिछले साल डाटा जर्नलिज्म करने वाली पोर्टल इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए किया जाने वाला खर्च महज 452 रुपए है, जो देश के राष्ट्रीय औसत का 70 ही प्रतिशत है.
पब्लिक हेल्थ पॉलिसी एक्सपर्ट और सपोर्ट फॉर एडवोकेसी एंड ट्रेनिंग टू हेल्थ इनिशिएटिव्स के प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर डॉ. अभय शुक्ला ने भी, राज्य में मेडिकल सुविधाओं की खराब हालत को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है.
फ़र्स्टपोस्ट से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘साल 2016-2017 में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जो बजट प्रपोजल दिया गया था उसमें 30.4 करोड़ रुपए की मांग की गई थी, जिसमें से सिर्फ 10.19 करोड़ रुपए केंद्र द्वारा पारित हुआ था. साल 2017-18 में, यह मांग घटकर 20.01 करोड़ की हो गई थी लेकिन केंद्र ने उसे और कम कर के 5.78 करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया- जो प्रस्तावित राशि का मात्र 29 प्रतिशत है.’