- प्रवासी मजदूरों की कहानी, उनकी जुबानी
गोरखपुर । कोरोना के खौफ और पूर्णबन्दी कि वजह से घर लौटे प्रवासी मजदूरों को अब गांव में ही रोजगार मिलने लगा है। यह बात अलग है कि गांव में हो रही उनकी कमाई बाहरी कमाई के आगे कुछ भी नहीं है। बावजूद इसके ये प्रवासी मजदूर थोड़े से पैसे को पाकर ही काफी खुश हैं। इनका कहना है कि दूर परदेश में रहकर केवल कमाई करने से ही परिवार खुश नहीं रहता।
उन्हें आत्मीयता के साथ मानसिक रूप से भी खुशी मिलनी चाहिए। बाहर रहते हुए वे भी ऐसा ही चाहते हैं। इसलिए घर-परिवार के साथ रहते हुए दो वक्त की रोटी का इंतजाम ही खुशी देने वाला है। साहब, यहां मनरेगा के तहत मिल रही 201 रुपये की रकम, बाहर मिलने वाली 700 रुपये प्रतिदिन की रकम पर बहुत भारी है।
कुशीनगर जनपद के कसया विकासखंड के मठिया-माधोपुर गांव में 50 से अधिक प्रवासी और मजदूर लौटे हैं। कोई राजस्थान रहकर 12000 महीना पर काम कर रहा था तो कोई 21000 रुपया हर महीने की सैलरी पर पाइप फिटर था, लेकिन कोरोना के खौफ़ और पूर्णबन्दी ने सबकुछ खत्म कर दिया। कमाई रुकी तो घर-परिवार की याद आने लगी। उनके खर्चों की चिंता सताने लगी। फिर गांव में ही सबके बीच रहते हुए थोड़ी कमाई में ही घर-परिवार को संभालने की सोच के साथ वापसी भी हुई। अब गांव लौट प्रवासी और मजदूरों ने मनरेगा में काम करना शुरू किया है। इस छोटी सी कमाई में ही अपने परिवार का भरण-पोषण करने का जुगाड़ कर रहे हैं। मीडिया ने इनसे बातचीत की।
मनरेगा के तहत गांव में हो रही चकरोड की भराई में जुटे रणजीत पुत्र प्रेमसागर का कहना है कि वे राजस्थान के जयपुर में सिलाई का काम रेट थे। लेकिन कोरोना के खौफ ने उन्हें घर लौटने पर विवश कर दिया। वहां 12000 रुपये मासिक पर काम करने वाले रणजीत का कहना है कि यहां की 201 रुपये की प्रतिदिन की कमाई काफी खुशी देने वाली है। अपनों के बीच रहकर हैम शायद अच्छी तरीके से कोरोना की जंग को लड़ सकेंगे। किसी अन्य चिंता का बगैर हम केवल कोरोना वायरस से बचाव और घर खर्च की ही सोच रहे हैं।
इसी गांव के उदयभान पुत्र इंदल कुशवाहा, आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में 19000 प्रति माह के हिसाब से काम करते थे। लेकिन वे भी अब मनरेगा मजदूर हैं। ग्राईंडर का कार्य करने वाले उदयभान अब तकरीबन 6000 रुपये हर महीने पाकर भी खुश हैं। जिन्हें लगता है कि घर के बुजुर्गों की सेवा हो पा रही है। उनके द्वारा की जा रही मेरी चिंता भी अब उन्हें राहत दे रही है।
पंजाब के भटिंडा में 21 हजार माह पर पाइप फिटर का काम करने वाले महेश कुशवाहा पुत्र श्यामबदन कहते हैं कि मनरेगा में काम करने के प्रस्ताव मात्र से मन में टीस हो उठी थी। लेकिन अब लगता है कि बाहर रहते हुए घर वालों की चिंता में डूबे रहने से यह काफी अच्छा है। अब 201 रुपये प्रतिदिन पर काम करना ठीक लग रहा है। शायद सरकार ने पहले ही भांप लिया था कि बिना पैसा या कमाई के अपनों से दूर रहना कितना मुश्किल होता है।
इनके अलावा गाजियाबाद के लालकुंआ में इलेक्ट्रिशियन का काम करते हुए 16000 प्रति माह कमाई करने वाले गोविंद कुशवाहा पुत्र जगन्नाथ, मुम्बई कुर्ला में वेल्डर हेल्फ़र का काम कर 16000 प्रतिमाह कमाई करने वाले रमेश कुशवाहा पुत्र सीताराम के लिए यह कमाई भले ही पर्याप्त न हो, लेकिन इन्हों अपनों के बीच रहकर कम कमाई में ही जो खुशी और सुकून मिल रहा है, वह शायस बाहर रहकर नहीं मिल पाता।
बोले तकनीकी सहायक
कसया ब्लाक के तकनीकी सहायक जयराम सिंह का कहना है कि पूर्णबन्दी के दौरान ब्लाक के 19 गांवों में तकरीबन 1700 मजदूरों को प्रतिदिन रोजगार दिया जा रहा है। जिन प्रवासी मजदूरों ने क्वारन्टीन का समय पूरा कर लिया है उन्हें भी रोजगार दिया जा रहा है, हालांकि अधिकांश ने अभी खुद को होम क्वारन्टीन कर रखा है।