गोरखपुर : फेलोशिप में प्रोफेसर पुत्र पर मेहरबानी

गोपाल त्रिपाठी
गोरखपुर। डीडीयू के प्रो. डीएन यादव के पुत्र के शोध फेलोशिप का मामला राजभवन तक पहुंच गया है। गुरुवार को ही इस बारे में राजभवन से विवि प्रशासन को एक पत्र मिला जिसमें छात्रा की शिकायत पर कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं।
   प्रो. यादव के पुत्र पर जिस छात्रा ने रेप का केस दर्ज कराया है, उसी ने राजभवन से शिकायत कर कहा था कि प्रोफेसर का पुत्र क्रीमीलेयर से आता है।
नियमानुसार नॉन क्रीमी लेयर में वही छात्र आते हैं, जिनकी सालाना आय छह लाख रुपये से कम हो। इस मामले में दर्शन शास्त्र के पूर्व विभागाध्यक्ष ने कार्रवाई करते हुए फलोशिप रोक दी थी तथा ली गई रकम के रिकवरी के आदेश दिए थे। इसके बाद भी विवि प्रशासन ने रिकवरी नहीं की। बाद में प्रोफेसर पुत्र को रोकी गई रकम भी अदा कर दी गई और जूनियर रिसर्च फलोशिप की जगह सीनियर रिसर्च फेलोशिप मंजूर कर ली गई। तबसे रेप का आरोपी होने के बाद भी प्रोफेसर पुत्र को फेलोशिप मिल रही है। राजभवन ने इस पत्र के आधार पर विवि प्रशासन को प्रकरण की जांच कर आवश्यक कार्रवाई के निर्देश दिए हैं।
पांच साल से विवादों को लेकर चर्चा में हैं दर्शन शास्त्र विभाग
डीडीयू का दर्शनशास्त्र विभाग पांच साल से कुछ लोगों की राजनीति की शिकार है। विवादों को लेकर यह विभाग लगातार चर्चा में है। तीन साल पहले यहां एक शोधार्थी का इतनी दबंगई थी कि वह शिक्षकों को भी धमका देता था। कुछ लोगों का उसे प्रश्रय था, इसलिए शिक्षक चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाते थे। वर्ष-2012 में यहां के प्रोफेसर के बेटे पर नॉन क्रीमीलेयर बनकर स्कॉलरशिप लेने का मामला प्रकाश में आया था। इसमें रिकवरी के आदेश भी हुए थे। इसे लेकर विभाग कई महीने तक युद्ध का मैदान बना रहा।
बाद में इस शोधार्थी की स्कॉलरशिप फिर से लागू हो गई और इसे बाद में बढ़ा भी दिया गया। इसे लेकर भी विभाग काफी दिन तक चर्चा में रहा। चार महीने पहले एक छात्रा ने प्रो. डीन यादव के बेटे पर रेप का केस दर्ज कराया। इसे लेकर भी विभाग में राजनीति का माहौल गर्म रहा। तब प्रो. यादव विभागाध्यक्ष थे। अब यही विभाग में दलित छात्र के आरोपों के बाद विभागीय राजनीति एक बार फिर खुलकर सामने आ गई है। तीन साल पहले यहां के एक शाधार्थी ने शिक्षकों को निशाना बनाते हुए सोशल मीडिया पर तमाम आरोप प्रत्यारोप लगाए थे। तब भी विभाग आरोपों को लेकर चर्चाओं में रहा। शिक्षकों का कहना है कि विभागीय राजनीति जब हद से अधिक बढ़ जाती है तो इसी तरह का हश्र होता है। इसीलिए शिक्षकों को विभागीय राजनीति से दूर रहने की सलाह दी जाती है।
रसूख न हो तो शोधार्थियों को करनी पड़ती है गुरु जी की बेगारी
वैसे तो किसी विवि में रसूख न हो तो शोधार्थी को गुरु जी बेगारी करनी पड़ती है मगर डीडीयू में यह इसका असर कुछ अधिक ही देखा जाता है। हालांकि इसमें शोधार्थी भी कम दोषी नहीं हैं मगर शोध के प्रति समर्पण देखने के नाम पर शिक्षकों को भेदभाव अखर जाता है। कई शोधार्थी इस चक्कर में बीच में ही शोध छोड़ कर भाग जाते हैं। शिक्षकों का कहना है कि काम करने वाले शोधार्थी शोध पूरा करके ही जाते हैं।
जो काम नहीं करना चाहता, वही भागता है। कुछ शोध छात्रों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उन्होंने पहले गाइड के पास जुगाड़ खोजा। उन्हें प्रभाव में लेने के बाद ही शोध में पंजीयन कराया। रसूख न हो तो गुरु जी इतनी बेगारी कराते हैं कि थक कर भागना मजबूरी होती है। एक शोधार्थी ने बताया कि उसे गुरू जी व उनके रिश्तेदारों के ट्रेन यात्रा के लिए रिजर्वेशन काउंटर घंटों में खड़ा रहना पड़ता था। फिर भी गुरु जी खुश नहीं होते थे। समय से शोध पूरा नहीं हुआ तो समय विस्तार के लिए कई दिन तक चक्कर लगाना पड़ा था।
एक दूसरे शोधार्थी ने बताया कि शोध पंजीयन के बाद यूजीसी की प्रोजेक्ट के लिए उसके साथ भेदभाव किया गया। गाइड ने अपने चहेते शिष्य को प्रोजेक्ट दिला दिया था। उसने बड़ी हिम्मत कर गाइड के समक्ष जब इस भेदभाव पर सवाल उठाया तो उसे डांट कर भगा दिया गया। शोधार्थियों का कहना है कि यदि गुरु जी तक जुगाड़ नहीं है तो वह मान कर चलते हैं कि बेगारी शोध का अनिवार्य हिस्सा है। इसीलिए पहले जुगाड़ खोजते हैं, फिर पीएचडी में पंजीयन कराते हैं। कई बार गुरु जी कक्षाएं तक लेने को कहते हैं और इस एवज में उन्हें कुछ नहीं मिलता। पिछले दिनों जब डीडीयू में शिक्षकों की कमी थी तो शोधार्थियों से कई विभागों में काम चलाया गया। इस चक्कर में उनकी पीएचडी देर से पूरी हुई मगर इस एवज में उन्हें केवल परीक्षा ड्यूटी के बदले ही मानदेय मिला।
शोधार्थी भी कम नहीं, खूब लगाते हैं निर्देशकों पर आरोप
शोधार्थी भी कम नहीं हैं। किसी तरह से पंजीयन कराने के बाद जब वह निर्देशक की अपेक्षा पर खरे नहीं उतरते और अपेक्षानुरूप काम नहीं करते तो जब भी शिक्षक उन्हें डांटकर पीएचडी नहीं कराने का धमकी देते हैं तो वह एक से बढ़कर एक आरोप पर शिक्षक को कठघरे में खड़ा कर देते हैं। एक शोध छात्र ने पिछले दिनों एक शिक्षक पर आरोप लगाया कि वह जानबूझ कर उसका शोध नहीं करा रहे, जबकि विवि प्रशासन की जांच में सामने आया कि दो बार समय विस्तार के बाद भी उसने स्तरहीन थिसिस तैयार की थी। यह थिसिस किसी रूप में स्वीकार नहीं हो सकती थी।

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