हिन्दु धर्म राष्ट्र की आत्मा है, संत समाज करते हैं समाज के मूल्यों का रक्षण: स्वामी अभेदानंद

अयोध्या। चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका द्वारा आयोजित श्री राम कथा शिविर अब पूर्णाहुति के निकट है। कथा के 7वें और 8वें दिन, स्वामी अभेदानन्दजी ने तुलसी रामायण की चौपाइयों का अवलोकन करते हुए राष्ट्रनिर्माण, धर्मरक्षा, और मंदिरों के महत्त्व जैसे अहम विषयों को प्रकाशित किया।
रामचरितमानस की चौपाई, “पूजिअ बिप्र सील गुन हीना । सुद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥” का वर्णन करते हुए, स्वामीजी ने कहा कि यह उन चौपाइयों में से एक है जिसे नाममात्र के बुद्धिजीवी पूरी रामायण से उठाकर आज के हिन्दू युवाओं को दिखाते हैं, और उनमें अपनी ही संस्कृति और ईश्वर के प्रति विरोध उत्पन्न हो। आगामी तथा पूर्व प्रसंग का संदर्भ लेकर स्वामीजी ने चौपाई को स्पष्ट किया। “यह चौपाई में राक्षस कबंध को कहा जा रहा है कि भले ही उसमें गंधर्व के गुण थे, फिर भी उसे स्वयं को अपूजनीय और शूद्र ही मानना चाहिए, क्योंकि उसमें अहंकार आ गया। और भले ही ऋषि दुर्वासा और ऋषि स्थूलशिरा में क्रोध दिखा, फिर भी कबंध को उनकी साधना और भक्ति देखकर उन्हें पूजना चाहिए था। और इस पंक्ति के तुरंत बाद ही भगवान राम शबरी के घर पधारते हैं। शबरी स्वयं एक शुद्रा है और उसका अपना ही परिचय है, “अधम ते अधम अधम अति नारी”।

किंतु भगवान राम ने तो उसे “भामिनी”, अर्थात प्रकाश देने वाली, के नाम से पुकारा है! तो हम यह कैसे मान लें कि तुलसीदासजी या भगवान राम ब्राह्मणवादी और शूद्रविरोधी थे, जो कुछ वर्ग के लोगों का आरोप है? वास्तव में भगवान राम ने अपने वनवास के पहले 13 वर्ष अधिकतर शूद्रों, भील, और कोल किरात इत्यादि के साथ ही व्यतीत किए!” इसी संदर्भ में स्वामीजी ने एक दूसरी चौपाई को भी संदेह से मुक्त किया: “ढोल गंवार सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥” स्वामीजी ने इस बात को स्पष्ट किया कि यहाँ पर ताड़ना शब्द का अर्थ है रक्षण और शिक्षण, जो सभी स्त्रियों, शूद्रों, और पशुओं को प्राप्त होना चाहिए। राम भगवान के ही जीवन काल, और वैदिक संस्कृति में अनुसूया, गार्गी, मैत्रेई, पंचकन्या, देवी दुर्गा, देवी पार्वती, माता सीता इत्यादि सभी महान नारियों का उदाहरण देते हुए स्वामीजी ने बताया कि ताड़ना का अर्थ यहाँ नकारात्मक नहीं था। स्वामीजी ने डंके की चोट पर यह कहा कि, “कोई भी बता दे विश्व का अन्य कोई भी प्रधान मजहब जहाँ ईश्वर को स्त्री-रूप में पूजा जाता हो!

रामायण को आप टीवी सीरियल और पैनल डिबेट से ना सीखें, जहाँ लोग अपना व्यक्तिगत मत रखने, और दूसरों को बहकाने आते हैं। रामायण जानने के लिए आप संतों के पास आएं, जिनके पास यह विद्या है और जिन्होंने अपना पूरा जीवन इसी तपस्या और अध्ययन में बलिदान किया है। भगवान राम से बड़े राष्ट्रीय एकता के प्रतीक कोई हैं ही नहीं: उन्होंने उत्तर में अयोध्या को पूर्व में जनकपुरी से जोड़ा, फिर वनवास में मध्य प्रदेश के चित्रकूट आए, महाराष्ट्र में नाशिक, कर्नाटक में अंजनाद्री, आंध्र प्रदेश में किष्किंधा, तमिल नाडू में रामेश्वरम, और अंततः श्री लंका में आए, और इन सभी स्थानों के निवासियों के हृदय में भगवान राम ने अपने प्रेम और करुणा को बढ़ाया, और राम राज्य सभी के अंतर्मन में स्थापित किया।”

आगे बढ़ते हुए, 8वें दिन, स्वामीजी ने सुंदरकाण्ड का अद्भुत वर्णन किया। स्वामीजी ने यह बताया कि सुंदरकाण्ड के मुख्य सिद्धांतों में प्रथम यह है, की शांति अर्थात देवी सीता, आत्मा अर्थात भगवान राम का ही स्वभाव है। हम बाह्य वस्तुओं को उपलब्ध करने का प्रयास करते हैं क्योंकि हम अपने अपूर्णता के भाव से मुक्त होना चाहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि हम स्वरूपात्मक रूप से पूर्ण ही है। उस पूर्ण आत्मा की अनंत शांति किसी भी सीमित वस्तु, व्यक्ति या विषय से नहीं प्राप्त हो सकती। सुंदरकांड से सीखने वाला दूसरा मूल्य है श्री हनुमान का अद्वितीय कर्मयोग और सेवा भाव, जहाँ उन्होंने भगवान राम को ही अपने कार्य का प्रेरक, निर्वाहक, और परिणाम बनाया।

सायं सत्र के अंतर्गत स्वामीजी ने लंकाकाण्ड में प्रवेश किया, जहाँ भगवान राम द्वारा रामेश्वर मंदिर की स्थापना का प्रसंग आया। स्वामीजी ने यहाँ एक अभूतपूर्व वक्तव्य देकर सभी श्रोताओं को अवाक कर दिया। स्वामीजी ने कहा कि मंदिर वह स्थान है जहाँ सर्वव्यापी ईश्वर का अनुग्रह प्रगट होता है, और जहाँ हमारी व्यष्टि श्रद्धा को समष्टि श्रद्धा से पुष्टि मिलती है। स्वामीजी ने निर्भयता से उन सभी वर्गों की आलोचना की जो मंदिर के खंडन और उसपर किसी अन्य ढांचे का समर्थन करते हैं, अथवा मंदिर की जगह अस्पताल इत्यादि बनाने का सुझाव देते हैं। स्वामीजी ने बताया कि मंदिर और अस्पताल इत्यादि दोनों अलग विषय हैं। “देश का एक भौतिक शरीर है जिसमें सड़कें, अस्पताल, विद्यालय, तकनीकी इत्यादि आते हैं। एक भावनात्मक शरीर है जिसमें देश की मांगें और नीतियाँ हैं। और अंत में, देश का आध्यात्मिक और श्रद्धामय शरीर है, जिसमें सभी मंदिर, ऋषि-मुनि और संत समाज आते हैं, जो देश के मूल्यों का निर्धारण करते हैं और जिनसे देश के नागरिकों के स्वभाव और व्यवहार को दिशा मिलती है। इनके बिना हम भीतर से ऐसे ही स्वार्थी रहेंगे, जातियों में बटे रहेंगे, विरोधी समूहों से अनभिज्ञ रहेंगे। यदि हम अपने भीतर की सरकार नहीं बदलेंगे, तो बाहर की सरकार बदलने का क्या लाभ होगा? हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जातियां तभी तक हैं जब तक सनातन धर्म है, और भारत देश भी तभी तक है जब तक हिन्दुत्त्व है! इसलिए धर्म का बोध होना और उसकी रक्षा करना अनिवार्य है, जिससे हमारी पहचान बनी रहे!” यह कहते हुए स्वामी अभेदानन्द ने सभी शिविरार्थियों को एक गहन चेतावनी भी दी और प्रेरणादायक मार्गदर्शन भी दिया।

खबरें और भी हैं...

अपना शहर चुनें