कुंभ मेले में दुनियाभर से साधु सन्त आये हुए हैं जिनकी पहचान उनके अखाड़ों से या उनकी प्रसिद्धी से है। लेकिन प्रयागराज के पण्डों की पहचान उनके यजमान झण्डों से करते हैं। किसी का निशान हाथी, साइकिल, पंजा, घोड़ा, ऊंट, मछली, कुल्हाड़ी, रेल आदि हैं। संगम के तीरे पर पेटी के साथ तख्त लगाकर बैठे इन पुरोहितों का काम आने वाले अपने यजमानों का कर्मकाण्ड या पूजन का है। प्रयागवाल तीर्थ पुरोहित गगन भारद्वाज (निशान लाल कटार) कहते हैं कि झंडा निशान पूर्वजों की देन हैं। प्राचीन काल में यह व्यवस्था इसलिए बनाई गई थी ताकि दूर दराज से आने वाले लोग उसी पहचान को बताकर अपने कुल से संबंधित तीर्थ पुरोहित के शिविर तक पहुंच सकें।
सैकड़ों वर्ष पुरानी है झंडों की परंपरापंडा माता दीन (निशान पीतल का घोड़ा) बताते हैं कि प्रयाग में झंडों की परंपरा सैकड़ों वर्ष पहले से है। लोगों की सरलता के इसे दैनिक प्रयोग में आने वाली चीजों, खाने-पीने के सामान, देवी-देवता आदि को चिह्न बनाया जाता है। इसमें हाथी, घोड़ा, ऊंट, मछली, कुल्हाड़ी, रेल, राधाकृष्ण, नारियल, चांदी का नारियल, महल, सोने का छत्र, सुहाग का पूरा, चार खूंट, रेडियो, हरा झंडा, सोटा-बेना, लौकी, बोतल, गणेश जी, चार चक्र, गौमुखी, रुद्राक्ष, पान, महालक्ष्मी, तबेलिया, हनुमान जी, आदि को बनाया जाता है।
प्रयागवाल करता है चिह्न का निर्धारणपंडा राम बाबू (निशान कालिया कटार) झंडे पर चिह्न (निशान) का निर्धारण प्रयागवाल की ओर से किया जाता है। इसमें प्रयागवाल की कमेटी आपसी सहमति से मान्यता देता है। एक परिवार को सिर्फ एक ही चिह्न दिया जाता है। परिवार बढ़ने पर चिह्न बढ़ा दिया जाता है। एक तीर्थ पुरोहित किसी के अधिकार पर हस्तक्षेप नहीं करते।
झाारखण्ड से आये राकेश कुमार बताते हैं कि, हम अपने पुरोहित जी का पहचान उनके झण्डे से किये हैं। आने से पहले हमारे पिता जी ने महाराज जी के झण्डे का निशान बताया था। आने वाले यजमानों के रहने खाने की भी व्यवस्था भी ये पण्डे कर देते हैं। राकेश की तहर मध्य प्रदेश प्रयाग आये विष्णु बताते हैं कि हम तो अपने पुरोहित का झण्डा देखकर ही उन तक पहुंच जाते हैं। झण्डा लगा होने से किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं होती।
कई प्रांतों के पुरोहित है प्रयाग में पंडा अजय कुमार (थाली वाले) माघमेला में आने वाले तीर्थयात्री प्रयागवाल द्वारा ही बसाये जाते हैं और वही उनका धार्मिक कार्य कराते हैं। प्रयाग में कई प्रांतों के तीर्थपुरोहित रहते हैं। जिनमे बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, ओडिशा और नेपाल देश के तीर्थपुरोहित हैं।