आगामी लोक सभा चुनाव से पहले सियासत गरमा गयी है. इस बीच मायावती अखिलेश के गठबंधन से ये चुनावी मुकाबला और भी दिलचस्प होने ही उम्मीद है. यहाँ एक तरह सपा-बसपा चुनाव की जीत के लिए प्रयास कर रही है वाही दूसरी तरह भाजपा भी अपनी कमर कस चुकी है. बताते चले इस बीच भारतीय राजनीति में एक बात बड़े ही भरोसे से कही जाती है- प्रधानमंत्री बनने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है.
इस भरोसे की सबसे बड़ी वजह तो यही है कि भारत में सबसे ज़्यादा – जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और तो और नरेंद्र मोदी भी(NKB) – प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से चुनाव जीतकर आते रहे.
दूसरी वजह देखनी हो तो 2014 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए इस राज्य ने सबसे ज़्यादा 73 सांसदों को जिताया,
ये सवाल पिछले साल हुए गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनाव के नतीजों के बाद से ही तैरने लगे थे, जिसमें विपक्ष के महागठबंधन ने बीजेपी के उम्मीदवारों को हरा दिया था.
शुक्रवार को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष मायावती की मुलाकात ने नई दिल्ली की ठिठुराती सर्दी में राजनीतिक पारे को बढ़ा दिया है.
माना जा रहा है कि इस मुलाकात के दौरान 2019 के आम चुनावों के लिए बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में सहमति बन गई है, हालांकि अभी तक इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है. लेकिन दोनों पार्टी में कई नेताओं का दावा है कि कुछ दिनों में तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जाएगी.
गठबंधन पर सहमति
अखिलेश यादव के भाई और बदायूं से समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव का कहना है, “यूपी में गठबंधन के लिए शीर्ष स्तर पर लगातार बात हो रही है, समय आने पर गठबंधन की घोषणा कर दी जाएगी. ”
वहीं समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल हफ़ीज गांधी बताते हैं, “गठबंधन को लेकर आपसी सहमति बन गई है.”
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हालांकि अभी ये पूरी तरह तय नहीं है कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा, इसको लेकर तमाम तरह के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन अभी ये भी तय नहीं है कि गठबंधन में कौन कौन से दूसरे दल शामिल होंगे.
अब्दुल हफ़ीज कहते हैं, “कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा या फिर गठबंधन में और कौन से दल शामिल होंगे, इसके बारे में अंतिम फ़ैसला दोनों पार्टी के अध्यक्ष तय करेंगे.”
वैसे गठबंधन के भविष्य को लेकर कुछ सवाल सहयोगी दलों को लेकर भी बने हुए हैं, मसलन समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन में कांग्रेस शामिल होगी या नहीं, ये सस्पेंस बना हुआ है.
मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के दो सांसद हैं- सोनिया गांधी और राहुल गांधी. ये भी कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी इन्हीं दोनों सीटों को कांग्रेस के लिए छोड़ने को तैयार हैं.
जबकि दूसरी ओर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने से कांग्रेस पार्टी का मनोबल बढ़ा हुआ है. लेकिन कांग्रेस के गठबंधन में शामिल होने की संभावना अभी भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है.
कांग्रेस का क्या होगा?
कांग्रेस विधानमंडल के नेता अजय कुमार लल्लू ने बताया, “महागठबंधन के लिए शीर्ष नेताओं के स्तर पर लगातार बातचीत जारी है. अभी कुछ नहीं कहा जा सकता.” हालांकि कांग्रेस राज्य की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने के प्लान बी पर भी काम शुरू कर चुकी है.
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के खेमे में भी कुछ लोगों का मानना है कि कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने की
स्थिति में भारतीय जनता पार्टी का नुक़सान बढ़ेगा.
वैसे, समाजवादी पार्टी- बहुजन समाज पार्टी अपने गठबंधन में राष्ट्रीय लोकदल के अलावा कुछ अन्य दलों को भी साथ लेने पर विचार कर रही है, इसमें सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (अभी एनडीए में शामिल) और अन्य छोटे छोटे दल शामिल हैं.
कयास लगाए जा रहे हैं कि इस गठबंधन का एलान मायावती के जन्मदिन पर यानी 15 जनवरी को किया जा सकता है, वैसे दिलचस्प ये है कि इसी दिन अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव का भी जन्म दिन पड़ता है.
औपचारिक एलान होने से पहले ही, अखिलेश यादव और मायावती की मुलाकात ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है. मुलाकात की ख़बर आने के कुछ ही घंटों के बाद उत्तर प्रदेश में अवैध खनन मामले में सीबीआई जांच की ख़बर भी सामने आई है.
इस मामले में उत्तर प्रदेश में सीबीआई ने 12 जगह छापे मारे हैं, जिसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि इस मामले में अखिलेश यादव से भी पूछताछ हो सकती है, क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए 2012-13 के दौरान कुछ समय के लिए खनन विभाग उनके अधीन रहा है.
सीबीआई की जांच
वैसे तो ये जांच इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश से हो रही है जिसके तहत सीबीआई राज्य के पांच ज़िलों शामली, हमीरपुर, फतेहपुर, देवरिया और सिद्धार्थ नगर में अवैध रेत खनन के मामलों की जांच कर रही है. लेकिन गठबंधन की ख़बर सामने आने के बाद जिस तरह से जांच में तेजी देखने को मिली है, उसे देखते हुए इस जांच की टाइमिंग पर भी सवाल उठ रहे हैं.
महागठबंधन बना तो होगा कितना दमदार
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल हफ़ीज गांधी कहते हैं, “हम सीबीआई जांच का स्वागत करते हैं. लेकिन यूपी में उभरते गठबंधन की ख़बर आने के एक दिन बाद ही सीबीआई रेड डालना कहीं ना कहीं केंद्र सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है.”
वैसे भी जिस तरह से भारत में विपक्षी दलों को डराने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल होता रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ये जांच राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जा रहा हो, कम-से-कम टाइमिंग से यही आशंका उभरती है.
ये आशंका पहले भी जताई जा रही थी कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों और जांच एजेंसियों के रहते, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के किसी गठबंधन की कोशिशों को प्रभावित करना आसान होगा.
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार अंबिकानंद सहाय कहते हैं, “जांच की टाइमिंग पर तो सवाल उठेंगे ही लेकिन इससे अखिलेश यादव को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला है क्योंकि परसेप्शन तो यही बनेगा कि गठबंधन के चलते ही जांच में तेजी आई है. तो चुनावी फ़ायदा उनको मिलने की संभावना ज़्यादा होगी.”
वोट बैंक में किसका पलड़ा भारी?
दरअसल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ चुनाव मैदान में आने से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदों को नुक़सान पहुँचना तय है, इसकी सबसे बड़ी वजह दोनों पार्टियों का अपना-अपना वोट बैंक है जिसके एक साथ आने पर राजनीतिक तौर पर वह विनिंग कॉम्बिनेशन बनाते हैं.
2014 के चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी 73 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी, तब बीजेपी को 42.6 फ़ीसदी वोट मिले थे. उस वक्त समाजवादी पार्टी को 22.3 फ़ीसदी और बहुजन समाज पार्टी को 20 फ़ीसदी के करीब वोट मिले थे.
वहीं 2017 के विधानसभा चुनावों में 312 सीटें जीतने वाली बीजेपी को 39.7 फ़ीसदी वोट मिले थे जबकि बहुजन समाज पार्टी को 22 और समाजवादी पार्टी को 22 फ़ीसदी वोट मिले थे.
ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का अपना वोट बैंक मिलकर बीजेपी के मुक़ाबले बीस बैठता है, इसके अलावा दोनों पार्टी अपने कैडर वोट के सीधे ट्रांसफ़र कराने का दावा करती रही है.
समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव कहते हैं, “एक महीने पहले भी हमारे कार्यकर्ताओं को मालूम हो जाए कि गठबंधन हो गया है तो उससे कोई गफ़लत नहीं होगी, हालांकि इस बार हमलोग चुनाव में तैयारी के साथ जाएंगे तो कार्यकर्ताओं को बहुत पहले से सब मालूम रहेगा.”
समाजवादी पार्टी के वोट बैंक को शिवपाल यादव के मोर्चे के अलग चुनाव लड़ने से नुक़सान भी उठाना पड़ेगा. इसके अलावा सीटों के बंटवारे से दोनों पार्टियों को कुछ सीटों पर बाग़ी उम्मीदवारों का सामना करने की आशंका भी है, बावजूद इसके समाजवादी पार्टी- बहुजन समाज पार्टी के मतदाताओं का गणित भारतीय जनता पार्टी की मुसीबतों को बढ़ा सकता है.
क्या मंच पर लागू नहीं होता योगी का क़ानून राज?
राजनीतिक भूकंप के वो तीन घंटे जिसमें टूट गया महागठबंधन
इसकी झलक गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनावों के दौरान समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के आपसी गठबंधन के दौरान बीजेपी के नेताओं के बयानों से झलकता है. गोरखपुर उपचुनाव की एक रैली को संबोधित करते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा था, ‘जब तूफ़ान आता है तो सांप और छुछूंदर एक साथ खड़े हो जाते हैं.’
मोदी-योगी के नाम का भरोसा
लेकिन बीजेपी को भरोसा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता उसकी नैया को पार लगा देगी. हालांकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को यूपी का चुनाव प्रभारी बनाया है. नड्डा के अलावा गोरधन झपाड़िया, दुष्यंत गौतम और नरोत्तम मिश्रा को सह-प्रभारी बनाया है.
दुष्यंत गौतम ने बीबीसी से बताया, “सपा-बसपा के जिस गठबंधन की बात हो रही है, वो स्वार्थ पर आधारित गठबंधन होगा, इन लोगों के पास राज्य के लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. जबकि बीजेपी की केंद्र और राज्य सरकारें लगातार लोगों के लिए काम कर रही हैं. हमें मोदी जी और योगी जी के कामों का फ़ायदा मिलेगा.”
दुष्यंत गौतम ये भी दावा करते हैं कि सपा-बसपा गठबंधन का बहुत ज़्यादा असर इसलिए भी नहीं होगा क्योंकि देश का युवा प्रधानमंत्री मोदी में अपना भविष्य देख रहा है. वे कहते हैं कि लोगों को मालूम है कि 2019 का चुनाव प्रधानमंत्री पद के लिए होना है और इस रेस में मोदी जी के सामने कोई है ही नहीं.
हालांकि राज्य में बीजेपी के सहयोगी दल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल भी नाराज चल रहे हैं, इन दोनों दलों का पूर्वी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर अच्छा प्रभाव है, ऐसे में बीजेपी की कोशिश अपने कुनबे को संभालने की भी है. ऐसा करके ही बीजेपी अपने सवर्ण वोट बैंक के अलावा पिछड़ों और दलितों के कुछ तबके का वोट हासिल कर पाएगी.
लेकिन वोटों के गणित में पलड़ा सपा-बसपा गठबंधन का भारी दिख रहा है. ठीक 25 साल पहले, 1993 में मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम से हाथ मिलाकर राम मंदिर आंदोलन की लहरों पर सवार बीजेपी को पछाड़ कर सरकार बनाने का करिश्मा कर दिखाया था.
25 साल पुराना इतिहास
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, “जब जब चुनाव में विकास का मुद्दा पिछड़ेगा, चुनाव जाति आधारित होगा, तब तब यही तस्वीर उभरेगी. 1993 में तो नारा लगा था, मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.”
यही वो भरोसा है कि मार्च, 2018 में राज्यसभा सीट के अपने उम्मीदवार भीमराव आंबेडकर की हार के बाद भी गठबंधन पर भरोसा जताते हुए मायावती ने कहा था, “जीत के बाद रात भर लड्डू खा रहे होंगे लेकिन मेरी प्रेस कांफ्रेंस के बाद बीजेपी वालों को फिर नींद नहीं आएगी.”
अब जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ आकर गठबंधन पर सहमत हो गए हैं, ऐसे में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को उत्तर प्रदेश के अंदर अपनी रणनीति को चाक चौबंद करना होगा, क्योंकि यूपी में अगर खेल बिगड़ा तो फिर केंद्र में वापसी नामुमकिन होगी.