लखनऊ । भारत में भाषा संबंधित संदर्भ जटिल हैं और एक राज्य, ज़िला एवं ब्लॉक के भीतर भी भाषाओं में भिन्नता मिलती है। जनगणना-2011 के अुनसार देश में 1369 मातृभाषाएँ हैं और 22 भाषाएँ संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज हैं। दूसरी ओर हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में एक से ज़्यादा भाषाओं का उपयोग करते हैं और एक ही समय में भाषाओं के बीच ‘स्विच’ करते रहते हैं। हालाँकि, सामाजिक, अधिकृत एवं शैक्षिक धरातल पर इन भाषाओं की हैसियत में भारी फ़र्क होता है।
भाषायी विभिन्नताओं के कुछ गुणों की बात करें तो दूरस्थ अंचलों में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियाँ हैं जो केवल अपनी मातृभाषा बोलती हैं, जैसे-ओडिशा की सौरा और आंध्रप्रदेश की कोया जनजाति। कुछ ऐसे समुदाय हैं जो एक ही भाषा के विभिन्न रूप बोलते हैं, जैसे- दक्षिणी छत्तीसगढ़ में गोंडी के अलग-अलग रूप। कई क्षेत्रों में समुदायों ने अपनी मातृभाषाओं का उपयोग बंद कर दिया है और एक स्थानीय क्षेत्रीय भाषा बोलते हैं। कुछ क्षेत्रों में विभिन्न भाषायी समुदायों के बीच संप्रेषण के लिए संपर्क भाषा प्रयोग की जाती है। जैसे-असम के चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी समुदाय सादरी बोलते हैं।
इस तरह के भाषायी (बहुभाषी) परिदृश्य में यदि हम स्कूली शिक्षा को देखते हैं तो समस्या और जटिल हो जाती है। हमारे ज़्यादातर स्कूल एकभाषी व्यवस्था में हैं। वर्तमान में 28 भाषाएँ बतौर ‘शिक्षण का माध्यम’ उपयोग हो रही हैं और यदि ओडिशा के ‘मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षा कार्यक्रम’ में उपयोग होने वाली 21 भाषाओं को मिला दें तो इनकी संख्या 48 हो जाती है। दस लाख से ज़्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली 33 भाषाओं को ‘शिक्षण के माध्यम’ के रूप में उपयोग नहीं किया जाता।
परिणामतः प्रारंभिक शिक्षा स्तर पर देश के 30 प्रतिशत बच्चे सीखने में मध्यम से गंभीर स्तर की कठिनाइयों का सामना करते हैं। लगभग 15 प्रतिशत शिक्षक अपने स्कूल के बच्चों की भाषाओं को नहीं समझते। दूसरी तरफ़, कई अनुसंधान बताते है कि जो बच्चे परिचित भाषा में पढ़ना-लिखना सीखते हैं वे दूसरी या तीसरी भाषा में ज़्यादा तेज़ी से पढ़ना-लिखना सीख जाते हैं और ऐसे बच्चों के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर प्रदर्शन करते हैं जो पहले, दूसरी भाषा में पढ़ना-लिखना सीखते हैं। इसका कारण साक्षरता संबंधी ज्ञान एवं कौशल का एक भाषा से दूसरी, तीसरी भाषा में आसानी से स्थानांतरित होना है।
स्वतंत्रता के बाद से ही संविधान, शिक्षा की विभिन्न नीतियों, शिक्षा समितियों की सिफ़ारिशों, इत्यादि में बच्चों की परिचित या घर की भाषा को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल करने की बात हो रही है। हाल ही में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा: फाउंडेशनल स्टेज-2022 भी बच्चों की परिचित भाषा को सीखने-सिखाने में उपयोग करने की वकालत करती है। अब प्रश्न है कि बच्चों की भाषाओं को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का हिस्सा कैसे बनाया जाए? बुनियादी साक्षरता और संख्याज्ञान के लक्ष्यों को तय समय-सीमा में कैसे प्राप्त किया जाए? इनके समाधान के रूप में लैंग्वेज ऐंड लर्निंग फाउंडेशन बहुभाषी शिक्षा की रणनीतियों का सुझाव देता है। बहुभाषी शिक्षा का सरलतम अर्थ है-सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में एक से अधिक भाषा का प्रयोग करना, बच्चों को दो या अधिक भाषाओं में संप्रेषण की क्षमता और अकादमिक निपुणता प्राप्त करने के लिए सहायता देना।
बहुभाषी शिक्षा में सीखना बच्चों की परिचित भाषा से शुरू होकर राज्य की औपचारिक भाषा, जो ‘शिक्षण का माध्यम’ भी हो सकती है, और अंग्रेज़ी में होता है। बहुभाषी शिक्षा में बच्चों के घर की भाषाओं और सांस्कृतिक ज्ञान को महत्व दिया जाता है। भाषाओं के सहज और मिलेजुले इस्तेमाल के साथ अन्य भाषाओं को सिखाने के लिए भी बच्चों की भाषा की मदद ली जाती है। बुनियादी साक्षरता में रूपांतरण के लिए बहुभाषी शिक्षा के महत्व और उसकी उपयोगिता को बड़े पैमाने पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। इसके लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। सरकारें तय करें कि शालापूर्व शिक्षा अनिवार्य रूप से बच्चों की परिचित भाषा में ही हो, ग़ैर-प्रमुख भाषाओं में शिक्षण-अधिगम सामग्रियों का निर्माण किया जाए, बच्चों की भाषा, उनकी संस्कृति-परिवेश को कक्षा में स्थान देने और उनका इस्तेमाल करने के लिए शिक्षकों के निरंतर व्यावसायिक विकास पर ध्यान दिया जाए।
कक्षा-3 से पहले अंग्रेज़ी को ‘शिक्षण का माध्यम’ ना बनाते हुए इसे कक्षा-1 से मौखिक रूप से सिखाने के लिए शिक्षकों को तैयार किया जाना चाहिए। कक्षा की भाषायी परिस्थिति को समझने के लिए एक सरल भाषायी सर्वेक्षण किया जा सकता है जिससे भाषा नीति बनाने और शिक्षकों की नियुक्तियों (भाषायी दक्षता के आधार पर) पर ध्यान दिया जा सकता है। लैंग्वेज ऐंड लर्निंग फाउंडेशन सहित अन्य संस्थान बहुभाषी शिक्षा की इसी एप्रोच और रणनीतियों पर काम कर रहे हैं जिसके सकारात्मक परिणाम मिले हैं। ये रणनीतियाँ बच्चों को सीखने का एक बेहतर माहौल देती हैं और बुनियादी साक्षरता के लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करती हैं।
डॉ धीर झिंगरन, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के विकास के लिए निर्मित राष्ट्रीय संचालन समिति के सदस्य, संस्थापक एवं कार्यकारी निदेशक – लैंग्वेज ऐंड लर्निंग फाउंडेशन, नई दिल्ली- स्मृति मिश्रा, लीड – बहुभाषी शिक्षा, लैंग्वेज ऐंड लर्निंग फाउंडेशन, नई दिल्ली