मोटिवेशनल स्पीकर्स और गुरुओं का जंजाल

 यूट्यूब है, और यूट्यूब पर कितनी ही कोशिश करें, कितने ही वक्ता, प्रवक्ता, कथावाचक, मोटिवेशनल स्पीकर्स सामने पड़ ही जाते हैं। कई सारे लोग हैं जो ‘जीवन में काबिल कैसे बनें’, ‘सफल कैसे बनें’ इन सब विषयों पर बहुत बाते करते हैं। उनको सुनकर लगता है कि, हाँ, मन का एक कोण है जो इनको सुनने में भी रस पा रहा है, उसको अभी भी यह विश्वास है कि इनको सुनूँगा तो शायद सफल, सार्थक, काबिल हो ही जाऊँ। पर उनमें राम नहीं दिखते, अध्यात्म की झलक बिलकुल नहीं दिखती। क्या मन का वो जो कोण है जो सफलता और काबिलियत के पीछे भाग रहा है उसको किनारे कर देना चाहिए, और राम में ही डूब जाना चाहिए? इस विषय पर स्पष्टता  नजर नही आती है। दुनिया में हर तरह के व्यंजन मौजूद हैं। कोई भी खाद्य सामग्री अपने-आपमें सही या गलत तो होती नहीं न। वो तो निर्भर इस पर करता है कि खाने वाला कौन है।

 पहले मन कागा था, करता आतम घात।

अब मनवा हंसा भया, मोती चुन-चुन खात।।

 ~गुरु कबीर

 तो विष्ठा भी है और मोती भी है। न टट्टी में अपने-आप में कोई बुराई है, न मोती में अपने-आप में कोई अच्छाई है। निर्भर इस पर करता है कि तुम कौन हो। तुम कौवे हो तो मोती का करोगे क्या? और हंस हो गए अगर तुम, तो विष्ठा की तरफ तुम्हारी दृष्टि जाएगी ही नहीं।

 बहुत लोग हैं जो उनको सुन रहे हैं। कुछ उनको मज़ा आता होगा, कुछ लाभ दिखता होगा तभी सुन रहे हैं न? दूसरी कक्षा की भी पाठ्य पुस्तिका होती है, छठी की भी होती है, दसवीं के बोर्ड की भी होती है, फिर स्नातक-स्नातकोत्तर, तमाम तरह की किताबें होती हैं। अब वो तो निर्भर करता है कि तुम आतंरिक रूप से कितने परिपक्व हुए हो। आतंरिक रूप से अगर अभी तुम दूसरी ही कक्षा के छात्र हो, तो तुमको दूसरी कक्षा लायक सामग्री ही पढ़नी चाहिए। और ज़्यादातर लोग शरीर से बढ़ जाते हैं भीतर से बढ़ते नहीं, इसी से फिर समझ लो कि ज़्यादातर लोग किस तरह की सामग्री का भोग करते हैं।

 अगर बाज़ार में दूसरी कक्षा की भी किताब उपलब्ध है और पी.एच.डी. की भी, और जानते हो तुम कि समाज में ज़्यादातर लोग भीतर से दूसरी-चौथी की अवस्था से आगे बढ़ ही नहीं पाते, तो तुम खुद ही समझ जाओगे कि ज़्यादा बिक्री किन किताबों की हो रही होगी। वो जो दूसरी किताबें हैं वही बिक रही होंगी क्योंकि उन्हीं से लाभ हो रहा है। बहुत दुर्भाग्य की बात है कि उन्हीं से लाभ हो रहा है, बड़े खेद का विषय कि लोगों को उथली बातें सुननी पड़ती हैं, दूसरी ओर उथली बातें अनिवार्यता भी तो हैं। तुम अभी बिलकुल नन्हे से ही हो, अंदर से, और तुम्हारे सामने अभी कोई वेदांत का ज्ञान खोल करके रख दे, तो तुम्हारे पल्ले क्या पड़ेगा? तो फिर तुम्हारे लिए यही सब ठीक है कि ‘सफल कैसे बनें’, ‘अच्छी नौकरी कैसे पाएँ’, ‘परीक्षा की तैयारी कैसे करें, तो फिर ये सब होता है कि ‘रात में कितने बजे सोया करें’, सुबह कितने बजे उठा करें’, ‘महीने के किस दिन किस दिशा को टाँग करके नहीं सोना चाहिए’, ‘कौन सा शंख बजाएँ’, ‘कहाँ से रुद्राक्ष पाएँ’। ये बातें सब बिलकुल बचकानी हैं, आतंरिक विकास के रुके होने की ओर इशारा करती हैं। लेकिन साथ-ही-साथ ये बातें जानने और पढ़ने के अलावा चारा क्या है उसके पास जिसका दिमाग अभी चौथी कक्षा के स्तर से ऊपर ही नहीं उठा? चौथी में तो ये ही सब बातें चलती हैं न? तो वहाँ यही सब बातें होती हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओगे, वैसे-वैसे उन सब बचकानी बातों से मन अपने-आप उठता जाएगा।

भारत ने अलग-अलग लोगों की अलग-अलग पात्रता और अलग-अलग स्थिति को जाना है, इसीलिए अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह की सामग्री अनुमोदित की गई है। जो उच्चतम स्तर के खोजी होते हैं उनके लिए उपनिषद्, उनके लिए वेदांत। जिनको उतनी नहीं बात समझ में आती, उनके लिए फिर महाकाव्य हैं — रामायण, महाभारत।

जिन्हें उतना भी नहीं समझ में आता, उनके लिए फिर किस्से-कहानियाँ हैं, जो पुराणों में भरे पड़े हैं। “इंद्र ने वरुण से ऐसा कह दिया, फिर देवी नाराज़ हो गईं; फिर ऋषि गए, उन्होंने नारद से कहा” और जिन्हें इन बातों की भी समझ नहीं हैं, उनको फिर दे दिए गए हैं कर्मकांड, कि तुम्हें कुछ समझ में नहीं आ सकता। तुम्हारी खोपड़ी में समझने की न्यूनतम क्षमता भी नहीं है तो तुम्हें तो कहानियाँ भी काम नहीं आएँगी। तुमको हम कुछ नियम-कायदे, कर्मकांड, विधि-विधान बताए देते हैं — “इस तरीके से पूजा कर लो। जब पूजा करो तो हाथ दाईं ओर घुमाना बाईं ओर नहीं। और एकदम तुम ख्याल रखना कि दायाँ हाथ बाएँ हाथ के ऊपर रहे। और जब अग्नि में आहुति दो, सब कुछ जब हो जाए तो पंडित जी को इस-इस तरीके से फिर दक्षिणा देनी है।” तो ये सब बता दिया गया; और इनसे भी नीचे अब एक नया तल तैयार हो गया है, वो है अंधविश्वास का।

भारत ने प्राचीन समय से ये चार तल रखे थे लोगों की धार्मिक प्रगति के लिए। अभी एक पाँचवा भी तैयार कर दिया गया है, वो है अंधविश्वास का। और अंधविश्वास अगर अनपढ़ लोगों द्वारा प्रचारित किया जाए तो पता चलता है कि अन्धविश्वास है। अन्धविश्वास जब पढ़े-लिखे लोगों द्वारा अंग्रेजी में प्रचारित किया जाए तो ऐसा लगता है कोई बड़ी ही बात होगी।

उम्र शारीरिक तौर पर तो खूब बढ़ गई है, लेकिन आतंरिक तौर पर अभी तुम दूसरी कक्षा में ही पढ़ रहे हो, तो ये ज़रूर बड़े अभाग की बात है। और ये खूब होता है। अधिकांश जनसँख्या ऐसी ही है। शरीर देखो चालीस साल का, मन देखो पाँच साल का, आठ साल का। शरीर की आयु तो शरीर देख कर पता चल जाती है, मन की आयु कैसे पता चलेगी? मन दिखाई तो पड़ता नहीं। तो मन की आयु पता चलती है मन की करतूतों से। मन की करतूत अगर पाँचवी के बच्चे जैसी है, तो मन की आयु फिर दस ही वर्ष की होगी।

उपनिषद्, वेदांत आतंरिक प्रौढ़ता में प्रिय लगते हैं। अगर आतंरिक प्रौढ़ता अभी आई ही नहीं है, तो बड़े उबाऊ लगेंगे, एकदम नींद आ जाएगी। 

भारत ही नहीं, विश्वभर में अध्यात्म ने जिस उच्चतम शिखर को छुआ है उसका नाम है वेदांत। वेदों के चार हिस्से होते है। पहला हिस्सा मन्त्र, ‘संहिताएँ’, जिनमें जो प्राकृतिक शक्तियाँ हैं उनको पूजा गया है, उनको मनाने की कोशिश की गई है, उनको अपने पक्ष में रखने की कोशिश की गई है। उनका आह्वाहन किया गया है कि हमारे शत्रुओं का नाश कर दो, और कुछ ऐसा कर दो ।

उसके बाद जो खंड आता है वो ‘ब्राह्मण’ कहलाता है। इसमें मंत्रों का, संहिताओं का विस्तृत अर्थ देखने को मिलता है। फिर आते हैं ‘अरण्यक’। अरण्यक मतलब वेदों के, श्रुति के वो हिस्से जो जंगल जैसी शान्ति के ध्यान से उद्भूत हैं। आध्यात्मिक तल पर ‘अरण्यकों’ से वेदों की महत्ता आरम्भ होती है। ‘अरण्यकों’ से इतर जो वेदों के हिस्से हैं, उनका पारम्परिक और धार्मिक महत्व तो है, आध्यात्मिक महत्व नहीं है।

और फिर आता है वेदों का अद्वितीय, अनुपम शिखर, जिसका नाम है ‘उपनिषद’। उपनिषद् हैं जो वेदों को पूर्णता देते हैं, जो वेदों के शिखर हैं। इसीलिए उन्हें वेदों का अंत बोला गया। और जो वैदिक साहित्य है बड़ा लम्बा-चौड़ा है, कई-कई हज़ार मंत्र हैं। लेकिन उपनिषद् एकदम ही संक्षिप्त। दस-दस, बीस-बीस श्लोकों के उपनिषद्। कुछ थोड़े विस्तृत भी हैं लेकिन बहुत लम्बे-चौड़े नहीं हैं उपनिषद्। कुछ तो ऐसे हैं कि (एक कागज़ उठाते हुए) इतने में आ जाएँ, वो भी दो। और भारत का परम दुर्भाग्य है कि वो सब लोग जो अपने-आपको हिन्दू बोलते हैं, उनमें से एक बहुत-बहुत छोटा प्रतिशत है जिसने उपनिषदों का पाठ किया है, जो उपनिषदों का पाठ लगातार करता है। पारम्परिक तौर पर कहा जाता है कि एक-सौ-आठ उपनिषद् हैं, वास्तव में दो-सौ से ज़्यादा हैं। चलिए दो-सौ मत पढ़िए, चलिए एक-सौ-आठ भी मत पढ़िए; ग्यारह प्रमुख उपनिषद् माने जाते हैं, कम-से-कम उनको तो पढ़ लीजिए।

जो असली, केंद्रीय, कोर अध्यात्म है, उससे भारतीयों को वंचित रखा जा रहा है। और बातें क्या की जा रही हैं कि — “जब चंद्र ग्रहण लगे तो उस रात किस रंग की चादर पर सोना है”, “खाने का चम्मच कितनी धातुओं के मिश्रण से बनाना है।” ये सब बातें करी जा रही हैं। और ये सब बातें पढ़े-लिखे, आध्यात्मिक जगहों में हो रही हैं। उनके लिए अध्यात्म का मतलब ही यही हो गया है। बे सिर-पैर की अतार्किक बातों को अध्यात्म बोलने लग गए हैं हम। और पूछो “उपनिषद्?” तो नहीं पता। और मैं आपके सामने ये बहुत छोटा सा सच उजागर कर रहा हूँ। अगर आप अपने-आपको वैदिक धर्म का मानने वाला बोलते हैं, अगर अपने-आपको हिन्दू बोलते हैं, तो ऐसा कैसे है कि आपने उपनिषद् नहीं पढ़े? कैसे? चूँकि तुमने उपनिषद् नहीं पढ़े हैं इसीलिए तुम बरदाश्त कर लेते हो दुनिया भर के ऊल-जलूल मूर्ख वक्ताओं को और मोटिवेशनल स्पीकर्स को।

उनसे कहिए, “आपके घर में जो आध्यात्मिक साहित्य है ज़रा दिखाइएगा।” तो आध्यात्मिक साहित्य के नाम पर उनके यहाँ पर क्या रखा होगा? पुराण भी रखे हों तो बड़ी बात है। पुराण भी कम-से-कम सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन किसी ओर इशारा तो करते हैं। एक से बढ़कर एक अजूबी किताबें रखी होंगी। उपनिषद् नहीं रखे होंगे।

और उपनिषदों के ही समान महत्व है ब्रह्म सूत्र का और भगवद गीता का। ब्रह्म सूत्रों पर आम आदमी बहुत ज़ोर नहीं दे सकता; अति संक्षिप्त हैं, इस कारण क्लिष्ट हो जाते हैं। लेकिन भगवद गीता तो पूरी पता होनी चाहिए न। सात-सौ से ऊपर श्लोक नहीं पढ़े होते लोगों ने। उनसे पूछो भगवद गीता क्या, तो वो कुछ भी अपना बता देंगे कि ऐसा ऐसा है। टीवी पर महाभारत देखी थी उसमें एक-आध-दो श्लोक बार-बार दोहरा कर बोल दिए जाते थे तो लोगों को रट गए, तो लोगों को लगता है ये ही तो गीता है, इतनी ही गीता है बस — यदा यदा ही धर्मस्य। वो भी कहो पूरा कर दो, आगे बढ़ो। कहेंगे “यदा यदा ही धर्मस्य, यदा यदा ही”। उनके लिए इतनी ही गीता है कुल। और पूछो, “और गीता माने क्या?” तो कहेंगे, “कर्म करो फल की चिंता ना करो।” ये उनकी गीता है — कर्म करो फल की चिंता ना करो। कोई ताज्जुब है इस बात में कि पिछले कई सौ सालों से भारत का पतन होता रहा, और आज भी इस तरह के धार्मिक, आध्यात्मिक माहौल में वो पतन जारी ही है? आदमी को आदमी बनाती है सच के प्रति उसकी जिज्ञासा, है न? वरना आदमी और जानवर में क्या अंतर है? और जिस देश में, जिस धर्म में, जिन लोगों में सच के प्रति इतनी भी जिज्ञासा नहीं है कि वो अपने ही मूल धर्म ग्रंथों को पढ़ तो लें। उस देश का, उन लोगों का निरंतर पतन हो रहा हो, इसमें आश्चर्य क्या है? ना उपनिषदों से कोई ताल्लुक, ना ब्रह्म सूत्रों से कोई ताल्लुक, गीता से भी बहुत कम सम्बन्ध, अष्टावक्र का कुछ पता नहीं। और इनका स्थान किसने ले लिया है? दर्जनों के भाव लोग घूम रहे हैं कि, “हम भी तो आध्यात्मिक हैं!”लोगों की रूचि किन चीज़ों में है? जो चीज़ें चलती हैं — कुंडली, ज्योतिष। और क्या चलता है अध्यात्म के नाम पर? टैरो। न पठन न पाठन, न भजन, न सुमिरन, अध्यात्म के नाम पे चल रहा है ‘योगा’। ये योगा करते हैं। न बोध, न करुणा, न सत्य न सौंदर्य, चल रहे हैं फूहड़ अन्धविश्वास, और नए-नए नामों से बेची जा रही क्रियाएँ वगैरह। तुम्हारा दोष नहीं है। यही सब उस दुनिया में है, उस काल में है, जिस दुनिया में, जिस काल में तुम पैदा हुए हो, उन सब चीज़ों का असर तुम्हारे मन पर भी पड़ेगा ही। लेकिन फिर भी इतना विवेक, इतनी ताकत तो तुममें होनी चाहिए कि तुम देखो कि तुम पर इन सब चीज़ों का, इस पूरे विकृत धार्मिक माहौल का क्या असर पड़ रहा है।

 आचार्य प्रशान्त

लेखक, वेदांत मर्मज्ञ, पूर्व सिविल सेवा अधिकारी

संस्थापक, प्रशान्त अद्वैत फाउंडेशन

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