
हरिद्वार… सावन का महीना… और कांवड़ यात्रा की शुरूआत। एक ऐसा धार्मिक पर्व जब उत्तर भारत के कोने-कोने से शिवभक्त हरिद्वार, गंगोत्री, गंगानगर, गौमुख जैसे स्थानों से गंगाजल लेकर सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करते हैं और अपने स्थानीय शिवालयों में अभिषेक करते हैं। लेकिन इस बार यह यात्रा धार्मिक एकता और आस्था से ज़्यादा, विवाद और भेदभाव का कारण बनती जा रही है।
कांवड़ पर सवाल – श्रद्धा पर नहीं, निर्माता के धर्म पर

इस बार हरिद्वार में उठे विवाद की जड़ में है एक सवाल – “कांवड़ को कौन बना रहा है?”
हर साल हरिद्वार की इंदिरा नगर बस्ती में लाखों कांवड़ें तैयार होती हैं। इन कांवड़ों को मुस्लिम कारीगर बनाते हैं, जिनका यह पारंपरिक काम है। तीन पीढ़ियों से यह परिवार सावन से पहले महीनों तक मेहनत करते हैं ताकि शिवभक्तों के लिए सुंदर, टिकाऊ और पवित्र कांवड़ें तैयार की जा सकें।
लेकिन इस बार हिंदू रक्षा सेना और संत समाज के कुछ प्रतिनिधियों ने यह कहकर बवाल खड़ा कर दिया कि “मुस्लिम कारीगरों की बनाई कांवड़ें अपवित्र हैं” और “गैर हिंदू को तीर्थ क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए।” इसके लिए बाकायदा मुख्यमंत्री को पत्र लिखा गया है और चेतावनी दी गई है कि यदि सरकार ने कदम नहीं उठाया, तो संत समाज खुद सड़कों पर उतर आएगा।

जिन मुस्लिम कारीगरों को अब आस्था के नाम पर कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, उन्होंने न कभी इस काम को धर्म से जोड़ा और न ही इससे किसी की भावना को ठेस पहुंचाई।
सवाल सिर्फ कांवड़ का नहीं है। सवाल है उस सोच का, जो धर्म के नाम पर रोजगार, रोज़मर्रा की जिंदगी और सामाजिक ताने-बाने को बांटना चाहती है।क्या धार्मिक त्योहारों और आयोजनों में अब यह देखा जाएगा कि कौन सेवा दे रहा है, और उसका धर्म क्या है? क्या किसी की मेहनत और हुनर से ज़्यादा उसका मजहब मायने रखेगा? भारत का संविधान हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है — चाहे वो हिंदू हो, मुस्लिम हो या किसी भी धर्म का। अगर किसी को केवल उसके धर्म की वजह से काम करने से रोका जा रहा है, तो यह केवल संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं, सामाजिक ताने-बाने पर हमला है।