आगामी लोक सभा चुनाव से पहले सियासत गरमा गयी है. इस बीच मायावती अखिलेश के गठबंधन से ये चुनावी मुकाबला और भी दिलचस्प होने ही उम्मीद है. यहाँ एक तरह सपा-बसपा चुनाव की जीत के लिए प्रयास कर रही है वाही दूसरी तरह भाजपा भी अपनी कमर कस चुकी है. बताते चले इस बीच भारतीय राजनीति में एक बात बड़े ही भरोसे से कही जाती है- प्रधानमंत्री बनने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. बताते चले अयोध्या विवाद के चरम के दौर में बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बीएसपी सुप्रीमो कांशीराम के गठबंधन के ठीक 25 साल बाद उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से यूपी की दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन के आसार दिख रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव और कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती का यह कदम एक बार फिर से बीजेपी को ही रोकने के लिए है, जिसने साल 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव में विपक्ष को हाशिये पर धकेल दिया था।
बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है महागठबंधन
मीडिया के अनुसार नतीजों पर गौर करें तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर वोटिंग पैटर्न यही रहा तो एसपी-बीएसपी का गठबंधन बीजेपी की बढ़त को आधे पर समेट सकती है। अगर इसमें कांग्रेस को भी शामिल कर लिया जाए तो महागठबंधन उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से दो-तिहाई सीटों पर जीत हासिल कर सकता है। बता दें कि साल 2014 में यूपी की 80 सीटों में से बीजेपी को 71 सीटों पर जीत मिली थी जबकि उसकी सहयोगी अपना दल ने दो सीटों पर कब्जा किया था। वहीं एसपी 5 सीट और कांग्रेस महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। बीएसपी को किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली थी।
साथ आए एसपी-बीएसपी तो जीत सकते हैं 41 सीटें
साल 2014 में अपना दल और बीजेपी का वोट शेयर एसपी-बीएसपी के कंबाइंड वोट शेयर से ज्यादा था। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हर सीट पर माइक्रो अनैलेसिस करने पर पता चला कि अगर एसपी-बीएसपी साथ आए तो तकरीबन 41 लोकसभा सीटों पर बीजेपी को हरा सकते हैं। अगर इस गठबंधन में आरएलडी को भी शामिल कर लें तो यह आंकड़ा 42 तक पहुंच सकता है। अगर बीएसपी-एसपी-आरएलडी एक साथ आते हैं तो यह बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों को बुरी तरह हराने में कामयाब हो सकती हैं। हाल ही में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के लोकसभा उपचुनावों में इनका संयुक्त प्रभाव दिखा भी था।
वहीं राजनीतिक पंडितों का मानना है कि चुनाव परिणाम आंकड़ों के हिसाब से प्रेडिक्ट नहीं किए जा सकते। यह इस पर निर्भर है कि लोग किन मुद्दों पर वोट कर रहे हैं। साल 2014 में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को लेकर जबर्दस्त एंटी-इंकम्बेंसी थी और लोगों ने बदलाव के लिए वोट किया था। 2019 में मोदी सरकार का प्रदर्शन मुख्य मुद्दा होगा।
महागठबंधन को भुनाना भी आसान नहीं
हालांकि, महागठबंधन को भुना पाना भी आसान नहीं होगा। एक राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि एसपी के बहुत से वोटर्स ऐसे हैं जो बीएसपी को वोट नहीं करना चाहते। ऐसे ही बीएसपी के कई दलित वोटर्स एसपी से असहज होते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी के वोटर्स बीएसपी को वोट नहीं करना चाहते। ऐसी सीटों पर पार्टी के बागी नेताओं को काफी फायदा मिल सकता है। गठबंधन को इस दिशा में सोचकर ही सीटों का बंटवारा करना फायदेमंद होगा।
एसपी-बीएसपी के गठबंधन में नहीं है 1993 वाली बात
कुछ राजनीतिक विश्लेषक साल 1993 के विधानसभा चुनावों का हवाला देते हैं जब एसपी-बीएसपी ने साथ चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में बीजेपी और एसपी-बीएसपी ने लगभग बराबर सीटें हासिल की थीं। तब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था और बीजेपी ने वहां 19 सीटें जीती थीं। एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि साल 1993 में आरएलडी चीफ अजीत सिंह जनता दल में थे और आज वह एसपी-बीएसपी गठबंधन में हैं। वहीं कुर्मी और राजभर जैसी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधि करने वाले कई नेता जो तब बीएसपी में थे, अब बीजेपी में हैं। ऐसे में साल 1993 से इस गठबंधन की तुलना कुछ खास निष्कर्ष नहीं देगी।