
मेरठ/हस्तिनापुर। अक्षय तृतीया पर्व का इतिहास जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से जुड़ा है। भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या में जन्म लिया एवं प्रयाग की (इलाहाबाद) धरती पर जैनेश्वरी दीक्षा को धारण किया, जो कि इस युग की प्रथम दीक्षा थी। क्योंकि भगवान ऋषभदेव वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर है। दीक्षा को धारण करते ही ध्यान लगाकर भगवान बैठ गए। भगवान के साथ में चार हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की। 6 माह पश्चात भगवान ऋषभदेव आहारचर्या बताने के लिए निकल गए। लोगों को ज्ञान ही नहीं था कि जैन साधुओं को आहार किस प्रकार से करना चाहिए। महायोगी ऋषभदेव जिस ओर कदम रखते थे, वहीं के लोग प्रसन्न होकर आदर के साथ उन्हें प्रणाम करते थे। एक साल पूरा होने के बाद हस्तिनापुर नगर के समीप पहँुचते हैं। जम्बूद्वीप के महामंत्री विजय कुमार जैन ने बताया, अक्षय तृतीया का प्राचीन इतिहास हस्तिनापुर तीर्थ से ही प्रारंभ हुआ है। वैशाख सुदी तीज को अक्षय तृतीय के नाम से जाना जाता है। अक्षय का अर्थ है, जिस वस्तु का कभी क्षय न हो अर्थात वस्तु समाप्त न हो और वह महीना वैशाख का था और तिथि तृतीया थी। इसलिए इसका नाम अक्षय तृतीया पड़ा। लोगों का मानना है कि इस दिवस किए जाने वाला कार्य वृद्धि को प्राप्त होता है। भगवान ऋषभदेव को हुए करोड़ों करोड़ों साल व्यतीत हो गए, लेकिन आज भी अक्षय तृतीया का पर्व मनाने के लिए देश एवं विदेश से जैन श्रद्धालु हस्तिनापुर की धरती पर आते हैं। जैन श्रद्धालु आहार दान की महिमा का वर्णन करते हुए इस पवित्र धरती पर आते हैं। इस पवित्र दिवस का ये महत्व है कि बिना मुर्हूत के ही हजारों विवाह सम्पन्न होते हैं। अगणित ग्रह प्रवेश आदि मांगलिक कार्य सम्पन्न किए जाते हैं। और इसे सर्वश्रेष्ठ मुर्हूत माना जाता है। हस्तिनापुर नगरी के शासक राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांस कुमार थे। पिछली रात्रि में राजा श्रेयांस को उत्तम-उत्तम 7 स्वप्न दिखाई देते हैं। इन स्वप्नों का उत्तम फल जानकर अति प्रसन्न चित्त हो करके चिंतन ही कर रहे होते हैं कि तभी सुनने में आता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव हस्तिनापुर में प्रवेश कर चुके हैं। चारों ओर भारी जन समुदाय एकत्र होकर भगवान के दर्शन करता है, उनके चरणों की पूजन करता है। हस्तिनापुर की धरती पर गन्ने की खेती हो गई अक्षय राजा श्रेयांस ने प्रथम आहार दान दिया, क्योंकि इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। भरत चक्रवर्ती ने अयोध्या से पूरी सेना के साथ हस्तिनापुर आकर राजा श्रेयांस व सोमप्रभ का खूब सम्मान किया एवं दान तीर्थ प्रवर्तक की उपाधि से उन्हें अलंकृत किया। इससे पूर्व दान देने की प्रथा इस धरती पर नहीं थी, इसका शुभांरभ राजा श्रेयांस के द्वारा ही हुआ तो यह दानवीर भूमि भी कहलाई। तब से लेकर के आज तक ये हस्तिनापुर की धरती के समीप वर्ती क्षेत्रों में इच्क्षु (गन्ना) खेती खूब पाई जाती है, उस दिन से इस धरती पर गन्ने की खेती भी अक्षय हो गई। अक्षय तृतीय को आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है। ज्ञानमती माता ने कराई भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान हस्तिनापुर जम्बूद्वीप स्थल पर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से आहार महल का निर्माण किया गया है। जिसमें भगवान ऋषभदेव व राजा श्रेयांस की प्रतिमा विराजमान की गई है। ज्ञानमती माता का कहना है, प्रत्येक वर्ष इस प्रतिमा के समक्ष इच्क्षुरस का आहार करवाया जाता है। अक्षय तृतीया का पर्व हस्तिनापुर से ही प्रारंभ हुआ है, इसकी पहचान ही हस्तिनापुर से है। तब से लेकर आज तक करोड़ों वर्ष बीत गये लेकिन, उसी मान्यता को लेकर भक्तगण आज भी इस धरती पर आकर अक्षय तृतीया के दिन तीर्थ पर विराजमान साधुओं को आहार देकर अपने जीवन को धन्य मानते है।