आलेख-डॉ. ईलिया जाफ़र, मानव और विकास प्रोफेशनल तथा डॉ. अनिल कुमार गुप्ता, प्रोफेसर और सीईओ (आईसीएआरएस), आईआईटी रुड़की ग्रेटर नोएडा कैम्पस
आपदा प्रबंधन का बुनियादी ढांचा मजबूत करने में भारत ने निश्चित तौर पर काफी तरक्की की है। हम आपदा की रोकथाम, इसका प्रभाव कम करने, इससे निपटने की तैयारी, राहत कार्य, पुनर्वास और पुनर्निर्माण सभी चरणों (एनडीएमए) के मद्देनजर व्यापक व्यवस्था बनाने में सफल भी हुए हैं। लेकिन भारत एक विशाल देश है जहां भौगोलिक और पर्यावरणीय विविधता है। इसलिए यहां प्राकृतिक आपदाओं का अधिक खतरा है देश का 58.6 प्रतिशत हिस्सा भूकंप संभावित क्षेत्र है, 12 प्रतिशत से अधिक में बाढ़ और नदी से कटाव का खतरा बना रहता है और 68 प्रतिशत कृषि भूमि पर सूखे का खतरा मंडराता है (एनडीएमए के अनुसार)। हालांकि इस बीच राष्ट्रीय आपदा राहत कार्य बल (एनडीआरएफ), राज्य आपदा राहत कार्य बल (एसडीआरएफ), अर्धसैनिक बल, आपदा मित्र और सेना जैसी एजेंसियों के इस क्षेत्र में उतरने से अविलंब राहत कार्य करने में काफी सुधार हुआ है। इस तरह की प्रगति के बावजूद एक बड़ी कमी बनी हुई है, जो सस्टेनेबल रिजिलियंस की कमी है।
वैसे तो आपदा राहत व्यवस्था में मजबूती दिखती है परंतु यह रिकवरी लंबे समय तक नहीं टिकती और समुदाय में सुदृढ़ता के आसार नहीं दिखते। साल 2021 में उत्तराखंड और फिर 2024 में हिमाचल प्रदेश की आपदा में इमारतों के ढहने और बाढ़ में जान-माल से हाथ धोने जैसी घटनाएं तो हाल की है और ये अविलंब समुदाय को सुदृढ़ बनाने की मांग करती हैं। ऐसे में आपदा राहत का अर्थ तत्काल राहत देने से बढ़ कर एक समग्र दृष्टिकोण बनाना है जो स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाए, बाहरी निर्भरता कम करे और बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाए। गंभीर मामलों में बाहरी सहायता पर अत्यधिक निर्भरता लाजमी है, पर यह समुदाय को आत्मनिर्भर बनने से रोक सकती है। हर साल बाढ़ और चक्रवात जब तटीय और बाढ़ संभावित क्षेत्रों में तबाही मचाते हैं, तो नागरिक एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के आसरे हो जाते हैं। ये निस्संदेह जबरदस्त तालमेल से राहत और बचाव अभियान चलाते हैं। आज एनडीआरएफ के 12 बटालियन हैं। प्रत्येक में 1,149 राहत कर्मी हैं। उनके राहत और बचाव अभियानों की मिसालें दी जाती हैं। फिर भी यदि हम इसी तरह इन एजेंसियों के आसरे रहे तो स्थानीय समुदाय को सुदृढ़ बनाने से हमारा ध्यान भटक सकता है। इस बीच यह भी देखा गया कि तत्काल सहायता के अभाव में अक्सर स्थानीय नेताओं ने कमान संभाली है। इसे देख कर यह लगता है कि उन्हें प्रशिक्षण, संसाधन देकर और सशक्त बना कर हम समुदाय के अंदर एक अधिक आत्मनिर्भर बुनियादी ढांचा तैयार कर सकते हैं।
समुदाय को अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए स्थानीय नेताओं को सक्षम बनाना और उन्हें आपदा प्रबंधन कौशल देना लाभदायक हो सकता है। इससे बाहरी सहायता पर निर्भरता कम हो सकती है और आपदा संभावित क्षेत्रों के लोग खतरों से निपटने में आत्मनिर्भर हो सकते हैं। इस लिहाज से समुदायों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके अंदर जमीनी स्तर की क्षमता का विकास करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। आज आपदाओं के तुरंत बाद फटाफट राहत सामग्री और सहायता तो पहुंचती है लेकिन आनन-फानन में किए गए ये उपाय अक्सर पर्यावरण के लिए चिंताजनक है। चुटकी में अस्थायी आश्रय बनते हैं, कचरों के अंबार लगते हैं और स्थानीय संसाधन प्रदूषित हो जाते हैं। इसका एक उदाहरण बाढ़ के बाद होने वाला सफाई अभियान है जिससे अक्सर पानी की गुणवत्ता गिरती है। प्रदूषण की यह समस्या लंबे समय तक रहती है, जो स्वास्थ्य और आजीविका दोनों को नुकसान पहुंचाती है। पर्यावरण को सस्टेनेबल रखने की बात की अक्सर राहत कार्य में अनदेखी हो जाती है जबकि सुदृढ़ समुदाय निर्माण की नीतियों में इसकी प्राथमिकता अपेक्षित है। आपदा के अस्थायी समाधान पर्यावरण पर स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ें, इसके लिए यह जरूरी है कि हम ऐसे आश्रयों का निर्माण पर्यावरण अनुकूल सामग्रियों से करें और कचरा निपटाने की सुरक्षित व्यवस्था भी बनाएं।
भारत में आपदा की तैयारी का अर्थ आम तौर पर चक्रवात और बाढ़ जैसी संभावित घटनाओं के मदद्देनजर अस्थायी आश्रय उपलब्ध कराना है। इससे काफी मदद मिलती है, लेकिन बहुत से समुदायों के लिए ये उपाय नाकाफी हैं क्योंकि वे बार-बार ऐसे खतरों का सामना करते हैं। इसलिए हमें रिजिलियंट इन्फ्रास्टक्चर तैयार करने होंगे तूफानों से सुरक्षित मकान, बाढ़ संभावित क्षेत्रों में ऊँचे तटबंध बनाने से स्थानीय लोग अधिक आत्मनिर्भर बन जाएंगे। ये समाधान स्थायी हैं इसलिए न सिर्फ आपदाओं के दौरान सुरक्षा देंगे, बल्कि बार-बार विस्थापन का मनोवैज्ञानिक और आर्थिक तनाव भी दूर करेंगे। बाढ़ संभावित राज्य बिहार, ओडिशा और असम में यह समस्या बार-बार उठ खड़ी होती है इसलिए रिजिलियंट इन्फास्ट्रक्चर की जरूरत तो है। हमें यह समझना होगा कि अस्थायी समाधानों पर निर्भरता से अस्थिरता बढ़ती है। प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में सक्षम रिजिलियंट इन्फ्रास्ट्रक्चर मिलने से कमजोर समुदायों का खतरा कम होगा और सुरक्षा की भावना बढ़ेगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक आपदाओं से स्थायी सुरक्षा भी प्राकृतिक समाधान से संभव है। तटीय क्षेत्रों में लगे मैंग्रोव वन प्राकृतिक सुरक्षा की दीवार है, जो चक्रवातों से बचाती है। आर्द्रभूमि को पुनर्जन्म देने से इसमें बाढ़ का पानी समा जाता है, जिससे तटीय भूक्षेत्र सुरक्षित रहते हैं। भारत के पास 7,516 किलोमीटर लंबी तटरेखा है, जहां एनडीएमए के अनुसार चक्रवात और सुनामी का अत्यधिक खतरा रहता है। इससे बचने के लिए हम फिर से मैंग्रोव वन लगा सकते हैं और तटीय आर्द्रभूमि की सुरक्षा के उपाय कर सकते हैं। इससे जैव विविधता तथा स्थानीय आजीविका भी बढ़ेगी। इकोसिस्टम के आधार पर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (डीआरआर) की रणनीति से काम करें तो भारत में आपदा से लड़ने की तैयारियों में बुनियादी बदलाव आ सकता है। चक्रवात संभावित क्षेत्रों में फिर से मैंग्रोव और आर्द्रभूमि तैयार करने से न सिर्फ तत्काल बचाव होगा बल्कि इकोलॉजी और अर्थ व्यवस्था को स्थायी लाभ मिल सकता है।
आपदा प्रबंधन व्यवस्था में ऐसे प्राकृतिक सुरक्षा कवच जोड़ कर हम भारत के संसाधनों का सही उपयोग करते हुए खतरे कम कर सकते हैं और सुदृढ़ता बढ़ा सकते हैं। बहरहाल आपदा प्रबंधन की भारतीय यात्रा सराहनीय है। आनन-फानन में बचाव और राहत कार्य कर लेना भी छोटी उपलब्धि नहीं है। फिर भी हमें लंबी अवधि के लिए रिकवरी और तैयारी का लक्ष्य तो पूरा करना है, जो संभव है, बशर्ते हम फौरी तौर पर राहत देने से बढ़ कर एक मजबूत और सुदृढ़ रणनीति बनाने पर अधिक ध्यान दें। स्थानीय स्तर पर मजबूत व्यवस्था बना कर बाहरी सहायता पर निर्भरता कम करें और राहत कार्यों में पर्यावरण की सुरक्षा का भी ध्यान रखें। रिजिलियंट इन्फ्रास्टक्चर और इकोसिस्टम के आधार पर डीआरआर की रणनीतियां तैयार कर संबद्ध समुदायों की आत्मनिर्भरता बढ़ाना संभव है। भविष्य में केंद्रीय सहायता पर निर्भर हुए बिना खतरों से निपटने की तैयारी करना संभव है। आपदा प्रबंधन के लिए भारत की वर्तमान व्यवस्था में काफी प्रगति दिखती है। लेकिन साथ ही, इसमें अविलंब सुधार करने की चेतावनी भी सुनाई देती है। ऐसे में यदि हम सस्टेनेबल, समुदाय आधारित रणनीतियों को अपनाएं तो हमारा देश न सिर्फ प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में सक्षम होगा, बल्कि अधिक आत्मनिर्भर बनेगा, क्योंकि नई व्यवस्था में सुदृढ़ता, पर्यावरण की सुरक्षा और समाज के हर तबके को सशक्त बनाने की संभावना है। देश के 27 से अधिक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं का खतरा रहता है। इसलिए आपदा प्रबंधन का समग्र दृष्टिकोण अपनाना न सिर्फ समय की मांग है, बल्कि यह पूरे देश के सस्टेनेबल विकास और सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है।
आपदा प्रबंधन की मजबूत योजना होगी तो इससे नुकसान और क्षति के मूल कारण दूर किए जा सकेंगे। विभिन्न आपदाओं, पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं, व्यापक बीमारियों और दुर्घटनाओं जैसे सभी संकटों से लड़ने और उबरने के एकजुट प्रयास होंगे। दरअसल ऐसे कार्यों में हम अक्सर कुछ आम एजेंसियों और संसाधनों को साझा करते हैं, इसलिए उनके बेहतर तालमेल से कोई काम अधिक कारगर होगा। गौरतलब है कि आज जब 15वें वित्त आयोग के काम चल रहे हैं, यह सुनहरा अवसर है कि हम वित बल से आपदा प्रबंधन में अपेक्षित परिवर्तन लाएं। इससे राज्य, जिला और स्थानीय स्तर पर हम संसाधन सम्पन्न होंगे। यह एक समग्र दृष्टिकोण होगा जिससे देश का दीर्घकालिक विकास और सुरक्षा को बल मिलेगा। हम आपदाओं का डट कर मुकाबला करेंगे।