
क्या कभी आपने सोचा है कि कोई बच्चा बिना मां की कोख के जन्म ले सकता है? सुनने में यह किसी साइंस फिक्शन फिल्म जैसा लगता है, लेकिन जापान ने इस कल्पना को सच कर दिखाया है।
जापान की जुंटेन्डो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा कृत्रिम गर्भाशय (Artificial Womb) बनाया है जिसमें एक भ्रूण इंसानी शरीर के बाहर पूरी तरह सुरक्षित रूप से विकसित हो सकता है। यानी अब इंसानी जीवन की शुरुआत सिर्फ महिला के गर्भ में नहीं, बल्कि लैब में भी संभव हो चुकी है।
इस तकनीक को वैज्ञानिक भाषा में “एक्टोजेनेसिस” (Ectogenesis) कहा जाता है। अभी यह प्रयोग जानवरों (जैसे बकरियों) पर सफल हुआ है, लेकिन इंसानी जीवन के लिए यह एक क्रांतिकारी कदम है।
कैसे काम करता है यह लैब में बना गर्भ?
यह कोई सामान्य मशीन नहीं, बल्कि एक पारदर्शी जैविक थैली (बायोबैग) है, जिसमें पोषक तत्वों और ऑक्सीजन से भरा द्रव होता है। इसके साथ एक कृत्रिम “नाल” जुड़ी होती है जो भ्रूण को पोषण देती है — बिल्कुल वैसे ही जैसे मां के गर्भ में प्लेसेंटा करता है।
इसमें लगे सेंसर भ्रूण की हर हरकत, दिल की धड़कन और विकास पर नज़र रखते हैं। ये सेंसर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से जुड़े होते हैं, जो जरूरत पड़ने पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। इसे देखकर लगता है जैसे मां की जगह अब मशीनें ‘मां’ की भूमिका निभा रही हैं।
क्यों ज़रूरी हो गई यह तकनीक?
जापान लंबे समय से जनसंख्या संकट से जूझ रहा है। वहां बच्चों के जन्म की दर ऐतिहासिक रूप से गिर चुकी है। युवा पीढ़ी बच्चों की जिम्मेदारी लेने से बच रही है। सरकार की तमाम योजनाएं—चाइल्ड केयर, छुट्टियां, पैसों की मदद—काम नहीं आईं। अब जापान ने इसका जवाब विज्ञान में ढूंढा। यह कृत्रिम गर्भ इसी दिशा में एक नई उम्मीद है।
वरदान या नई बहस की शुरुआत?
इस तकनीक से ऐसे लोग भी माता-पिता बन सकेंगे जो शारीरिक रूप से बच्चा नहीं कर सकते—जैसे पुरुष, ट्रांसजेंडर, सिंगल लोग या समलैंगिक जोड़े। लेकिन क्या इससे ‘मां’ शब्द की गहराई खत्म हो जाएगी? क्या भावनात्मक जुड़ाव जो गर्भावस्था के दौरान बनता है, वो भी खो जाएगा?
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह महिलाओं को विकल्प और आज़ादी देगा, जबकि कुछ कहते हैं कि यह मातृत्व को मशीनों तक सीमित कर देगा।
क्या मशीनें इंसानों की जगह ले सकती हैं?
गर्भावस्था सिर्फ जैविक नहीं होती—वो एक भावनात्मक और मानसिक यात्रा भी है। अगर बच्चा पूरी तरह मशीनों की देखरेख में पलेगा, तो क्या वो जुड़ाव और भावनाएं बन पाएंगी? क्या आने वाली पीढ़ी भावनात्मक रूप से भी अलग होगी?
कई सवाल, जिनका जवाब बाकी है
- क्या ऐसे जन्मे बच्चों को समाज में पूरा अधिकार मिलेगा?
- अगर सिस्टम में खराबी हो जाए तो जिम्मेदार कौन होगा—वैज्ञानिक, मशीन या माता-पिता?
- क्या यह तकनीक सिर्फ अमीरों के लिए होगी?
यह सब सवाल अब हमारे सामने हैं। साथ ही, दुनिया के ज्यादातर देशों में अभी ऐसे बच्चों के अधिकारों पर कोई कानूनी स्पष्टता नहीं है।
विज्ञान की क्रांति या इंसानियत की चुनौती?
जापान की यह खोज विज्ञान की एक बड़ी जीत है, लेकिन साथ ही इंसानियत के लिए एक नया मोड़ भी है। यह तकनीक तय कर सकती है कि भविष्य में हम जीवन को कैसे देखें—क्या वह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया होगा या एक भावनात्मक सफर?
अब फैसला हमें करना है—हम इस तकनीक को किस दिशा में ले जाते हैं: सुविधा की ओर, संवेदनशीलता की ओर या दोनों के संतुलन की ओर।