
-एक के बाद एक मिल रहे झटकों से शिवपाल के तेवर बदले
-सीएम योगी से मिलकर चाचा ने बढ़ाई सपा कुनबे में हलचल
-सुभासपा के नेता पहले से ही भाजपा नेतृत्व के संपर्क में
-जयंत के सामने रालोद के विधायकों का साथ रखना बड़ी चुनौती
योगेश श्रीवास्तव
लखनऊ। सपा रालोद गठबंधन जिसकी अगुवाई अखिलेश यादव कर रहे है उसमें सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। गठबंधन में शामिल प्रसपा यानि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी(लोहिया) जिसका नेतृत्व अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव कर रहे है उनके बदले तेवरों से लग रहा है कि न तो वे ज्यादा दिन इस गठबंधन में रहेगे न ही गठबंधन को ज्यादा दिन चलने देंगे। जिस तरह उनकी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा केन्द्रीय नेताओं से मुलाकाते हो रही है उसके बाद से राजनीतिक पंडितों को बड़े धमाके की संभावना दिख रही है। २०१६ से चाचा भतीजे के रिश्तों में जो तल्खी आई वो इस बार के चुनाव से और बढ़ गयी है। इस बार शिवपाल के बार-बार आग्रह करने के बाद उन्हे और उनकी पार्टी को गठबंधन में शामिल तो कर लिया गया लेकिन जिस तरह उन्हे केवल एक सीट देकर किनारे किया गया उसके बाद से वे अपने को और ज्यादा अपमानित महसूस कर रहे है।
चुनाव के बाद शिवपाल को सपा विधायकों की बैठक में नहीं बुलाया गया था। जब उन्हे सहयोगी की बैठक में बुलाया गया तो वे स्वयं वहां नहीं गये। बता दे कि शिवपाल से ज्यादा सीटे गठबंधन में शामिल रालोद, और सुभासपा को दी गयी। शिवपाल ने गठबंधन में शामिल होते सौ सीटों की पेशकश थी बाद में वे ३५ पर आ गए आखिर में केवल उन्हे एक सीट पर समेट दिया गया। यहां तक कि शिवपाल यादव अपने पुत्र आदित्ययादव को भी टिकट नहीं दिला पाए। इसके अलावा जो लोग सपा छोड़कर उनके साथ गये थे उनमें से भी वो किसी को टिकट नहीं दिला पाये। जिसके चलते कई बड़े नेता या तो दूसरे दलों से चुनाव लड़े या फिर भाजपा उम्मीदवारों का समर्थन करने लगे। गठबंधन में शामिल होने के बाद जिस तरह शिवपाल का दर्द छलका कि यदि उन्हे मुंहमांगी सीटे दे दी गयी होती तो शायद सपा की सीटे बढ़ जाती है। उससे साफ है सपा गठबंधन में शामिल होना बड़ी भूल थी। माना जाता है कि सपा के प्रभाव और यादव बाहुल्य सीटों पर शिवपाल यादव का खासा प्रभाव है। जिसका लाभ पार्टी को मिल सकता था।
बार-बार अपमानित के बाद यदि वे अपनी बहू अपर्णा यादव की राह ले ले तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। जानकारों की माने तो शिवपाल यादव यदि सीधे भाजपा में शामिल न हो तो वे अपने दल को भाजपा गठबंधन में शामिल कर अपने और बेटे के साथ समर्थकों को भी समायोजित करने में कामयाब होंगे। शिवपाल के साथ भाजपा नेतृत्व को भी लगता है कि यदि वे उनके साथ आ जाते है सपा के साथ यादव कुनबे में बड़ी सेंध लगाने में उसे एक और कामयाबी मिल जायेगी। शिवपाल द्वारा जिस तरह गठबंधन की गांठे खोलने का जो शुरूआत हो रही है उसमें बड़ी भूमिका सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर भी सहायक साबित हो सकते है। जिस मकसद से वे भाजपा से अलग होकर सपा गठबंधन में शामिल हुए थे उससे उनके मंसूबे पूरे नहीं हुए। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मंत्रिमंडल के गठन से पहले उन्होंने दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की थी।
२०१७ में भाजपा गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़े ओमप्रकाश राजभर को इस बार यकीन था कि चुनाव में इनकम्बेसिव फैक्टर का लाभ सपा को मिलेगा,लेकिन उनका यह अनुमान गलत निकला। कई दलों के शामिल होने के बाद सपा गठबंधन डेढ़ सौ का आंकड़ा नहीं छू पाया। गठबंधन में शामिल रालोद का भी ईमान अगर डगमगा जाये तो कोई हैरानी नहीं होगी। दलबदल करने का रालोद का पुराना इतिहास रहा है। जिसतरह बिहार में मुकेश सहनी की विकाससील इंसान(वीआईपी) के सारे विधायक भाजपा में शामिल हुए इतिहास को यदि यहां दोहराया जाये तो कोई हैरानी नहीं होगी। चुनाव नतीजे आने से पहले ही अमितशाह ने कहा था कि जयंत चौधरी ने गठबंधन में शामिल होन के लिए गलत कर चुन लिया है। यदि वे चुनाव बाद भी भाजपा के साथ आते है तो उनका स्वागत है। ऐसे में रालोद के सदस्यों को यदि कोई बड़ा प्रलोभन मिले तो वे पार्टी में बने रहेगे इसकी संभावना राजनीतिक पंडितों को कम ही दिखती है।