इरफ़ान खान: बॉलीवुड का वो खान, जिसे पूरा हिंदुस्तान दिल से चाहता था

उदयपुर इरफान खान ठीक एक साल पहले पिछले अप्रैल में यहां उदयपुर थे। उन्हाेंने 5 अप्रैल से 1 मई तक यहां अंग्रेजी मीडियम फिल्म की शूटिंग की थी। ये उनकी अंतिम फिल्म और आखिरी अभिनय था। इस एक महीने में इरफान ने उदयपुर काे भरपूर जीया। उन्हाेंने फतहसागर, गुलाबबाग, उदयसागर और बड़ी तालाब पर रात काे घंटाें बिताए। उन्हें कुदरत से, पेड़-पाैधाें से, जानवराें से बेहद लगाव था। शूटिंग के दाैरान लाेगाें से इतनी अपणायत हाे गई कि उन्हें करीब से देखने-जानने वाले उनके बारे में जिक्र करते ही सुबक रहे हैं। भरी आंखें और रुंधे गले से कहते हैं-इरफान जिंदादिल थे। इतने बड़े कलाकार हाेने के बाद भी वे आप-हम सबकी तरह ही आम इंसान थे। उनकी सादगी और संजीदगी के किस्साें की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। उदयपुर काे आज रह-रह कर बशीर बद्र की ये पंक्तियां याद आ रही हैं। वाे अब वहां है जहां रास्ते नहीं जाते, मैं जिसके साथ यहां पिछले बरस आया था। बदन काे छाेड़कर जाना है आसमां की तरफ, समंदराें ने हमें सबक पढ़ाया था।

इरफान खान के यहां उदयपुर में ड्राइवर रहे नरपत सिंह आसिया करीब 45 दिन तक उनके साथ रहे। आप उनके सबसे करीब रहे, कैसे थे इरफान…सवाल सुनते ही नरपत के शब्द लड़खड़ाने लगे। गला रुंध गया। आंखें डबडबा आईं। साहब…वाे…वाे…जिंदादिल…। कुछ देर बाद खुद काे संभालते हुए। मुझ से उनका घर जैसा रिश्ता जुड़ गया। मेरे गांव कड़िया भी आए थे। खेत में घूमे, बाड़े में गाय-बछड़ाें काे दुलारने लगे। मां ने श्रीनाथजी की तस्वीर दी ताे सिर के लगा ली। बाेले-मां, तुम्हारी चाय बिलकुल मेरी अम्मी जैसी है। एक और पिलाओ ना। वे पहले कुछ दिन हाेटल रेडिशन फिर बाद में हाेटल देवरा में रुके थे। हाेटल से जैसे ही हम निकलते वे पहले महादेव के मंदिर जाते। जल चढ़ाते। गायाें काे चारा और कुत्ताें काे राेटी खिलाते। ये उनका रुटीन था। इसके बाद ही वे शूटिंग पर जाते। उन्हाेंने बताया कि डाॅक्टराें ने मुझे ऑर्गेनिक खाने के लिए बाेला है। मैं राेज उनके लिए गांव से बकरी का दूध और सब्जियां लेकर आता था। उन्हें गाय का घी और मक्की बहुत पसंद थी। ये ताे वे मुझसे शूटिंग के बाद मुंबई भी रेगुलर मंगवाते रहते थे।

रुमाल से अपना चेहरा ढककर घायल पिल्ले काे बाइक पर ले गए अस्पताल 

नरपत बताते हैं कि-एक दिन हाेटल के गेट से कुछ ही दूरी पर एक पिल्ला जख्मी हालत में था। उन्हाेंने गाड़ी रुकवाकर कहा कि इसे साइड में छाेड़ दाे। मैं उन्हें हाेटल छाेड़ बाइक से गांव के लिए निकल गया। मैं चेतक सर्कल पहुंचा ही था कि फाेन आया-यार, तुम जल्दी हाेटल आओ। मैं तुरंत हाेटल पहुंचा ताे देखा कि वे उस पिल्ले के पास बैठे थे। कहा-इसकी हालत गंभीर है। हाॅस्पिटल ले जाना हाेगा। मैंने कहा ठीक है। गाड़ी ले जाता हूं। बाेले-नहीं, बाइक से ही चलेंगे। चेहरे काे रुमाल से ढका ताकि काेई उन्हें पहचान न सके और पिल्ले काे गाेद में उठाकर मेरे साथ बाइक पर पीछे बैठ गए। चेतक स्थित पशु चिकित्सालय ले जाकर उसका इलाज करवाया।


मैंने कहा-साहब, मुझे भी एक्टिंग करनी है…और दिला दिया एक छाेटा सा राेल : नरपत ने बताया कि एक दिन मैंने मजाक में कहा-साहब मुझे भी एक्टिंग करनी है। वे हंसने लगे। कुछ दिन बाद मैं उन्हें शूटिंग लाेकेशन पर छाेड़कर गाड़ी में बैठा था। एक बंदे ने आकर कहा कि इरफान साहब बुला रहे हैं। जैसे ही मैं गया-मुझे कहा, जल्दी आओ तुम्हारा राेल आ गया। मैं सकपका गया। साहब एक्टिंग नहीं आती। उन्हाेंने कहा-कुछ नहीं तुम्हें इनके साथ बात करते-करते दुकान के पास से निकलना है। बस।

संजय भाई-मुझे जीभर कर जीना है, और ये एक्टिंग ही ताे मेरी जिंदगी है : द क्रू प्राॅडक्शन के संजय साेनी उदयपुर में उनके सबसे करीबी रहे। संजय बताते हैं कि मेरा उनसे थियेटर के वक्त से ही परिचय था। वे मजहबी दीवाराें काे नहीं मानते थे। एक किस्सा बताता हूं। मैं उन्हें यहां घंटाघर में मेरे मित्र पुरुषाेत्तम जाेशी के घर लेकर गया। वहां उनके घर में देवरा है। उन्हाेंने कहा-मैं दर्शन करना चाहता हूं। हाथ-पैर धाेए और काफी देर तक शांत भाव से बैठे रहे। मैंने पूछा क्या मांगा। बाेले संजय भाई-अब क्या मांगू इससे। मुझ जैसे छाेटे से इंसान काे इतना सब ताे दे दिया है इसने। शूटिंग के लंबे शेड्यूल पर टाेकने पर कहते, संजय भाई-मुझे जीभर कर जीना है। और, ये एक्टिंग ही तो मेरी जिंदगी है।