नॉर्वे के राइटर जॉन फॉसे को मिला साहित्य का नोबेल प्राइज, आत्महत्या पर लिखी थी पहली किताब

साहित्य का नोबेल प्राइज 64 साल के नॉर्वे के राइटर जॉन फॉसे को दिया गया है। कमेटी ने माना है कि उनके नाटकों और कहानियों ने उन लोगों को आवाज दी है जो अपनी बातें कहने में सक्षम नहीं थे। जॉन ने अपने नाटकों में ड्रामा के जरिए उन इंसानी भावनाओं को जाहिर किया है जो आमतौर पर जाहिर नहीं की जा सकती हैं। जिसे समाज में टैबू समझा जाता है।

जॉन ने अपने पहले ही उपन्यास रेड एंड ब्लैक में आत्महत्या जैसे गहरे और संवेदनशील मुद्दे पर लिखा था। इनकी मशहूर किताबों में पतझड़ का सपना भी शामिल है। साहित्य में 120 लोगों को नोबेल मिला है। इसमें केवल 17 महिलाएं हैं। इसकी वजह से नोबेल कमेटी की काफी आलोचना भी हुई है।

नोबेल जीतने के बाद जॉन को 8.33 करोड़ रुपए की राशि और एक गोल्ड मेडल दिया जाता है। नोबेल की घोषणा के बाद जॉन ने कहा- मैं काफी खुश हैं। मुझे लगता है कि ये प्राइज उस तरह के साहित्य के लिए दिया गया है, जो साहित्य के अलावा कुछ नहीं।

कौन हैं नोबेल विजेता जॉन फॉसे

जॉन 1959 में नॉर्वे में पैदा हुए। 7 साल की उम्र में उनका भयानक एक्सीडेंट हुआ था। इसमें वो बाल-बाल बचे थे। उनके लिखावट पर इस हादसे का गहरा असर दिखाई देता है। उनकी पहली नॉवेल रेड-ब्लैक 1983 में छपी थी। उनकी किताबों को 40 से ज्यादा भाषाओं में ट्रांसलेट किया जा चुका है। लेखक के तौर पर शुरुआती दिनों में जॉन को संगीत का भी काफी शौक था। वो गानों की धुन खुद क्रिएट करते थे। जॉन को डेली टेलीग्राफ ने दुनिया के 100 लिविंग जीनियस की लिस्ट में 83वें नंबर पर लिखा है।

जॉन फॉसे अपनी कहानियों और नाटकों के जरिए इंसान के अस्तित्व को लेकर भी कई तरह के सवाल उठाते हैं। उनका नॉवेल ए न्यू नेम सात किताबों का संग्रह है। इसमें उन्होंने एक बूढ़े आदमी की भगवान की बातचीत को बताया है। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक जॉन उनके लेखकों में शामिल हैं, जिनकी कहानियों में गहरा मतलब छिपा होता है।

रुश्दी को फिर नहीं मिला नोबेल

भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी को साहित्य हासिल करने की रेस में शामिल थे। हालांकि, इस बार भी उन्हें नोबेल नहीं मिला। उनकी लिखी कहानियां हकीकत, कल्पनाओं और व्यंग्य के जरिए समाज के अलग-अलग पहलूओं को उजागर करती हैं। इसकी वजह से उन्हें कई बार अपनी जान तक जोखिम में डालनी पड़ी है। वो ऐसे लेखक हैं जो अलकायदा की हिटलिस्ट में रह चुके हैं। पैगंबर की तौहीन का आरोप लगाकर ईरान ने 1989 में उनके खिलाफ फतवा जारी किया।

रुश्दी को फिर नहीं मिला नोबेल
भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी को साहित्य हासिल करने की रेस में शामिल थे। हालांकि, इस बार भी उन्हें नोबेल नहीं मिला। उनकी लिखी कहानियां हकीकत, कल्पनाओं और व्यंग्य के जरिए समाज के अलग-अलग पहलूओं को उजागर करती हैं।

इसकी वजह से उन्हें कई बार अपनी जान तक जोखिम में डालनी पड़ी है। वो ऐसे लेखक हैं जो अलकायदा की हिटलिस्ट में रह चुके हैं। पैगंबर की तौहीन का आरोप लगाकर ईरान ने 1989 में उनके खिलाफ फतवा जारी किया।

इसके चलते पिछले साल अगस्त में अमेरिका के न्यू

रुश्दी की सबसे विवादित किताब ‘शैतानी आयतें’

सलमान रुश्दी की सबसे विवादित किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ यानी ‘शैतानी आयतें’ 1988 में छपी थी। इसी किताब की वजह से सलमान रुश्दी पर पैगंबर की बेअदबी के आरोप लगे। 1989 में ईरान की इस्लामिक क्रांति के नेता अयातुल्ला खुमैनी ने रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा जारी कर दिया था। रुश्दी ने अपनी इस किताब में एक काल्पनिक किस्सा लिखा है। जो कुछ इस तरह है…

दो फिल्म कलाकार हवाई जहाज के जरिए मुंबई से लंदन जा रहे हैं। इनमें एक फिल्मी दुनिया का सुपरस्टार जिबरील है और दूसरा ‘वॉयस ओवर आर्टिस्ट’ सलादीन है। बीच रास्ते में इस प्लेन को कोई सिख आतंकी हाइजैक कर लेता है। इसके बाद विमान अटलांटिक महासागर के ऊपर से गुजर रहा होता है।

बीच रास्ते में इस प्लेन को कोई सिख आतंकी हाइजैक कर लेता है। इसके बाद विमान अटलांटिक महासागर के ऊपर से गुजर रहा होता है। तभी पैसेंजर से आतंकियों की बहस होने लगती है। गुस्से में आतंकवादी विमान के अंदर बम विस्फोट कर देता है। इस घटना में जिबरील और सलादीन दोनों समुद्र में गिरकर बच जाते हैं। इसके बाद दोनों की जिंदगी बदल जाती है। एक रोज इस्लाम के संस्थापक के जीवन से जुड़े कुछ किस्से पागलपन की ओर जा रहे जिबरील के सपने में आते है। इसके बाद वह उस धर्म के इतिहास को एक बार फिर नई तरह से स्थापित करने की सोचता है।

इसके आगे रुश्दी ने अपने कहानी के किरदार जिबरील और सलादीन के किस्से को कुछ इस अंदाज में लिखा है कि इसे ईशनिंदा माना गया।

पाकिस्तान ने रुश्दी पर फिल्म बनाई- ‘इंटरनेशनल गोरिल्ला’

1990 में रुश्दी को विलेन की भूमिका में रखकर पाकिस्तान में एक फिल्म बनाई गई। इसका नाम रखा ‘इंटरनेशनल गोरिल्ला’। इस पर रुश्दी काफी दुखी हुए थे। इसलिए नहीं कि फिल्म में उन्हें विलेन दिखाया गया था। बल्कि वो फिल्म पर प्रतिबंध न लगने की वजह से वे दुखी थे। उन्हें उम्मीद थी कि प्रतिबंध के बाद फिल्म को ज्यादा लोग देखते हैं। रूश्दी का मानना है कि बैन की वजह से उनकी कहानियां कम लोगों तक पहुंचने की बजाय ज्यादा लोगों तक पहुंचती हैं।

पाकिस्तान ही नहीं भारत में सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज पर खूब बवाल मचा था। भारत पहला देश था जिसने इस उपन्यास को बैन किया। उस वक्त देश में राजीव गांधी की सरकार थी। इसके बाद पाकिस्तान और कई दूसरे इस्लामी देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। फरवरी 1989 में रुश्दी के खिलाफ मुंबई में मुसलमानों ने बड़ा विरोध प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन पर पुलिस की गोलीबारी में 12 लोग मारे गए और 40 से अधिक घायल हो गए थे।

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