धूम्रपान की विपत्ति से बचने के लिए विज्ञान का अनुसरण करें, हठधर्मिता का नहीं

लखनऊ 21 फरवरी 2024: वाशिंगटन डी.सी. में स्थित थिंक टैंक, प्रोग्रेसिव पॉलिसी इंस्टीट्यूट (पीपीआई) के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर, लिंडसे मार्क लेविस ने हाल ही में अपने एक लेख में बताया कि तंबाकू का सेवन किस प्रकार समाज पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। उन्होंने पूरी दुनिया के उन देशों के उदाहरण दिए जहाँ विज्ञान के सहारे तंबाकू नियंत्रण की सफल नीति बनाई गई और एक व्यावहारिक दृष्टिकोण पर बल दिया जिसमें यथार्थवादी समाधानों पर विचार किया जाए। उनके लेख का एक अंश नीचे दिया गया है।

तम्बाकू की लत आज पूरे विश्व में एक बड़ी विपत्ति है, जिसका प्रभाव एशिया में विशेष रूप से गंभीर है। इस संकट को टालने के लिए सरकारी अधिकारियों को विज्ञान से हठधर्मिता को अलग करने की आवश्यकता है। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि स्वास्थ्य पर धूम्रपान के विनाशकारी प्रभाव को कम करने में क्या कारगर है और क्या नहीं। लेकिन नेक इरादे रखने वाले नीति निर्माता बुद्धिमत्ता और मूर्खता में अंतर कैसे कर सकते हैं? अच्छी बात यह है कि पूरी दुनिया में भिन्न-भिन्न देश दशकों से धूम्रपान करने वालों (और धूम्रपान की ओर बढ़ने वालों) की लत छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं – और इन प्रयासों के अलग-अलग परिणाम मिले हैं। कुछ प्रयास तो काफी प्रभावशाली रहे हैं: यू.के., यू.एस., न्यूजीलैंड, कनाडा और जापान में इस हद तक गिरावट दर्ज हुई है कि फेफड़ों के कैंसर और एंफीसीमा के मामलों में आश्चर्यजनक कमी आई है।

लेकिन दूसरी तरफ एशिया के कई देश अभी भी इस संकट से जूझ रहे हैं। एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र में 2019 में तंबाकू की वजह से 4.7 मिलियन मौतें हुईं। थाईलैंड में अभी भी 10 मिलियन लोग धूम्रपान करते हैं। भारत में 100 मिलियन धूम्रपानकर्ता हैं, वहीं चीन में यह संख्या और ज्यादा है। तो इस क्षेत्र में सफलता पाने और विफल रहने वाले देशों में क्या विशेष अंतर है? विज्ञान हमें क्या सिखा सकता है? इतना तो साफ है: राष्ट्रीय परिणामों में यह अंतर उच्च मानकों का पालन करने में एशिया की विफलता के कारण नहीं है। बल्कि, सबसे खराब नतीजे देने वाले देश, जैसे थाईलैंड और भारत, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के “फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल” (एफसीटीसी) के सिद्धांतों का पालन करते आए हैं। लेकिन थाईलैंड में 20 सालों की कोशिश के बाद भी केवल 1% की गिरावट हुई, जबकि इसके विपरीत, अमेरिका, जिसने एफसीटीसी पर हस्ताक्षर भी नहीं किया है, वहाँ कहीं अधिक सफलता दर्ज हुई। नीति निर्माताओं को समझना होगा कि ऐसा क्यों हुआ।

ज्यादा करीब से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि नीति की सफलता और विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकारों को यह कितना स्पष्ट है कि समस्या की जड़ सिगरेट पीना है- यह एक ऐसा व्यवहार है, जिसे तंबाकू सेवन के अन्य तरीकों से अलग किया जाना चाहिए। सबसे अच्छा यह होगा कि नीति निर्माता धूम्रपान करने वालों को तंबाकू और निकोटीन का सेवन पूरी तरह से छोड़ने के लिए मना सकें। लेकिन जब कुछ लोग तम्बाकू के साथ निकोटीन का सेवन करने की आदत छोड़ने में सक्षम नहीं हैं, तो इस स्थिति में उन्हें ई-सिगरेट या अन्य गैर-दहनशील विकल्पों की ओर ले जाकर स्वास्थ्य को काफ़ी लाभ पहुँचाया जा सकता है। एफसीटीसी में एक यही कमी है। एफसीटीसी देशों को सिगरेट के विकल्पों पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक ऐसी नीति अपना ली है, जो देशों को फेफड़ों के कैंसर एवं एंफीसीमा की महामारी को रोकने के लिए उपलब्ध सबसे महत्वपूर्ण उपकरण पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिनके कारण ये पूरे विश्व की विपत्ति बने हुए हैं।

इन परिणामों के अंतर पर विचार करें। यू.के. में हाल ही में “स्वैप टू स्टॉप” कार्यक्रम शुरू किया गया, जो निकोटीन के आदी लोगों से सिगरेट की लत छुड़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इस कार्यक्रम ने ब्रिटेन में सिगरेट की खपत को कम करने में बड़ा योगदान दिया। इसके विपरीत, थाईलैंड और भारत में डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश को मानकर ई-सिगरेट को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया, लेकिन इन दोनों देशों में धूम्रपान की समस्या लगातार बढ़ रही है। हालाँकि ऐसा तुलनात्मक अध्ययन किसी कार्य को करने का कारण पेश नहीं कर सकता, जो कई शोधकर्ता अक्सर जनता को याद दिलाते हैं। लेकिन, इस मामले में, विज्ञान से एक ठोस व्याख्या मिलती है। नीति निर्माताओं को नुकसान कम करने पर विचार करने की बजाय हठधर्मिता अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। जबकि बेहतर यह होगा कि निकोटीन के आदी लोग इस लत को छोड़ देंगे, इस स्वप्न में खोए रहने की बजाय लाखों लोग ऐसे उत्पादों का सेवन करें, जिनसे नुक़सान की संभावना निकोटीन के मुक़ाबले बहुत कम हो।

आज, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव और नेपाल सभी इस बात पर विचार कर रहे हैं कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए। क्या वो यू.के. एवं अन्य जगहों पर सफल हो चुके मॉडलों का अनुसरण करेंगे – या फिर एक अलग रास्ते पर जाएंगे? अच्छी बात यह है कि इस क्षेत्र में हमारे पास ऐसे उपकरण मौजूद हैं, जो लाखों लोगों की जान बचा सकते हैं। लेकिन उनके उपयोग के लिए, और 2035 तक ज्वलनशील सिगरेट का उपयोग समाप्त करने का संभव लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सरकारों को बुद्धिमत्ता और बयानबाजी के अंतर को समझना होगा। आधुनिक इनोवेशन की मदद से धूम्रपान करने वाले ऐसे उत्पादों द्वारा अपनी निकोटीन की लत छोड़ सकते हैं जो सिगरेट, सिगार और पाइप की तुलना में 95% कम हानिकारक हैं। पूरे विश्व में नीति निर्माताओं को ऐसे मार्ग पर चलने का साहस करने की ज़रूरत है जिस पर लाखों लोगों की जान बचना निश्चित है।

दक्षिण एशिया में स्वास्थ्य की नीति बनाने वालों को विज्ञान का सहारा लेना चाहिए और हठधर्मिता के कारण प्रस्तावित निषेध से पीछे हटकर ज्वलनशील सिगरेट का उपयोग बंद करने के लिए वैश्विक गठबंधन का हिस्सा बनना चाहिए। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन को धूम्रपान का संकट समाप्त करना है तो धूम्रपान करने वालों को सिगरेट से छुटकारा दिलाने के लिए इनोवेटिव उत्पादों का उपयोग करना होगा। मालदीव, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश के नेतृत्वकर्ता यू.के., यू.एस. और जापान के साथ शामिल होकर अपने क्षेत्र में धूम्रपान करने वालों को वैज्ञानिक रूप से कम हानिकारक निकोटीन विकल्पों की ओर ले जाने में मदद कर सकते हैं। थाईलैंड और भारत में तंबाकू नियंत्रण की विफलता के कारण इन उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। लेकिन इन क्षेत्रों में धूम्रपान करने वाले वयस्कों को बेहतर उत्पाद मिलने चाहिए।

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