क्या किसान आंदोलन के बहाने जाट वोटों को बटोरने का मौक़ा राजनीतिक दलों को मिल गया ?

देश की राजधानी दिल्ली में 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद जब किसान आंदोलन खत्म होने की कगार पर था तब राकेश टिकैत के आंसुओं ने कमाल किया और देखते ही देखते किसानों का हुजूम नए जोश के साथ फिर से उठ खड़ा हुआ। उसके बाद किसानों के मंच पर राजनीतिक दलों के नेता भी दिखाई दिए तो राकेश टिकैत के गांव सिसौली में हुई महापंचायत में भी अजीत चौधरी को हराने की भूल किसानों ने स्वीकार की। इधर, यूपी में भाजपा को छोड़ सभी राजनीतिक दलों में किसान आंदोलन को समर्थन देने की होड़ सी लग गई। ऐसे में कई सवाल खड़े हो गए।

इस दौरान सवाल यह है कि आखिर क्या है, जाट राजनीति ? क्या किसान आंदोलन के बहाने जाट वोटों को बटोरने का मौक़ा राजनीतिक दलों को मिल गया है? पश्चिमी यूपी में जाट राजनीति का कितना असर है? क्या आने वाले समय में राष्ट्रीय लोक दल एक बार फिर मजबूत स्थिति में उभरेगी ? 2022 चुनावों में भाजपा को नुकसान और क्यों उठाना पड़ सकताहै ?

 इन सवालों के जवाब तलाशते पढ़ें यह रिपोर्ट…

सबसे पहले आखिर क्या है, जाट राजनीति ?
पश्चिमी यूपी में कहा जाता है कि यहां या तो किसान है या फिर जवान। यह बात सही भी है। यहीं से किसानों के सबसे बड़े नेता महेंद्र सिंह टिकैत निकले। साथ ही किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह निकले। महेंद्र सिंह टिकैत का कभी राजनीति से पाला नहीं रहा। वह हमेशा अराजनीतिक रहे। यही वजह रही कि उनकी हुंकार पर लखनऊ से दिल्ली तक सियासत के गलियारों में हलचल मच जाया करती थी।

चौधरी चरण सिंह ने जाटों की बदौलत ही 40 साल कांग्रेस में रहकर बाद में उसे ही अपने गढ़ में पटकनी दी थी। तब चौधरी चरण सिंह ने ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और ‘मजगर’ (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फार्मूला के सहारे देश पर भी राज किया। यह ताना-बाना 2014 में जब मोदी की आंधी चली तो उसमें बिखर गया और यह सिलसिला अनवरत जारी है।

जाट वोटों की गणित

दरअसल, यूपी में 6 से 7% आबादी जाटों की है लेकिन पश्चिमी यूपी में जाट आबादी 17% से अधिक है। तकरीबन 17 लोकसभा सीटों पर यह अपना असर रखते हैं। जबकि 120 विधानसभा सीट प्रभावित करते हैं। जानकार मानते हैं कि पश्चिमी यूपी में कभी जातीय दरार नहीं आई थी लेकिन 1992, 2002 और फिर 2013 में हुए दंगों ने यहां दरार पैदा कर दी। जिसका असर रहा कि 2014 लोकसभा चुनावों में विपक्ष का पश्चिमी यूपी से सूपड़ा ही साफ़ हो गया।

इसके बाद 2017 विधानसभा चुनावों और 2019 लोकसभा चुनावों में भी हालात बहुत अच्छे नहीं रहे। ऐसे में समाजवादी पार्टी जहां एक बार फिर पिछड़े और मुस्लिम वोट बैंक के साथ जाटों को जोड़ना चाह रही है तो वहीं बसपा भी दलित और मुस्लिम वोट बैंक के साथ जाटों को जोड़ना चाह रही है। कमोबेश आरएलडी और कांग्रेस भी इसी बहाने अपनी जमीन ढूंढना चाहते हैं।

क्या किसान आंदोलन के बहाने जाट वोटों को बटोरने का मौक़ा राजनीतिक दलों को मिल गया है ?

27 जनवरी को जब किसान नेता राकेश टिकैत आंदोलन ख़त्म करने की तैयारी कर रहे थे तब भाजपा विधायक नन्द किशोर गुर्जर की धमकी ने उन्हें रोक दिया। कई दिनों से गाजीपुर बॉर्डर पर धरना कवर कर रहे सीनियर जर्नलिस्ट समीरात्मज मिश्रा कहते हैं कि अगर नन्द किशोर गुर्जर की जगह किसी नन्द किशोर जाट ने ऐसी धमकी दी होती तो शायद यह बात राकेश टिकैत और उनके समर्थकों को यह बात इतनी बुरी नहीं लगती। चूंकि पश्चिमी यूपी में गुर्जर जाति जाटों से छोटी मानी जाती है इसलिए बात जाट प्राउड पर आ गई और ख़त्म होने वाला धरना नए उत्साह के साथ शुरू हो गया।

वह कहते हैं, चूंकि 2014 चुनाव के बाद से पश्चिमी यूपी का जाट वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भाजपा के पास चला गया। ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए यह एक अवसर की तरह है। यही वजह है कि सभी दल जाट वोटों के लिए किसान आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। व

हीं मुजफ्फरनगर के स्थानीय पत्रकार  कहते हैं कि जब 2013 में मुजफ्फरनगर का दंगा हुआ तो अखिलेश यादव शुरुआत से ही समझ नहीं पाए। जिसके बाद उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगा और जाट-मुस्लिम समीकरण टूटा तो उसका फायदा भाजपा ने 2014 लोकसभा चुनावों में उठाया। इसके बाद से भाजपा ने पश्चिमी यूपी में पीछे मुड़कर नहीं देखा।

इसके बाद 2014 तक आरएलडी से लेकर बसपा तक सभी के हिस्से कुछ न कुछ सीट आती थी लेकिन अब सभी लगभग जीरो हैं। यही वजह है कि सभी दलों को यह किसान आंदोलन एक अवसर की तरह नजर आ रहा है। इससे पहले भी राजनीतिक दलों ने आंदोलन को हाइजैक किया है यह पहला मौक़ा नहीं है।

पश्चिमी यूपी में जाट राजनीति की अहमियत

पत्रकार का कहना है कि हाल फिलहाल की बात करे तो 2014 लोकसभा चुनाव जीतने के बाद मोदी कैबिनेट में संजीव बालियान और सत्यपाल मलिक को जगह दी गई। यह दोनों ही जाट नेता हैं। जबकि योगी सरकार जब बनी तो सुरेश राणा को गन्ना मंत्री बनाया गया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिमी यूपी में जाट राजनीति का कितना असर रहा है। यही नहीं 2019 लोकसभा चुनावों में अजीत सिंह जब अपनी खोई जमीन तलाश रहे थे तब भी जाट प्राउड की ही बात कर रहे थे।

उन्होंने बागपत सीट छोड़ मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ा जबकि बागपत से जयंत चौधरी को चुनाव लड़ाया लेकिन दोनों ही जगह वह माफी मांगते रहे लेकिन जीत नहीं हासिल हुई। पश्चिमी यूपी से ताल्लुक रखने वाले राजनैतिक विश्लेषक पुष्पेन्द्र शर्मा कहते हैं कि जाटों का देश और प्रदेश की राजनीति पर कितना असर है यह समझने के लिए पीएम मोदी का बयान देखना चाहिए कि जब स्थिति हाथ से निकली तो उन्हें भी कहना पड़ा कि किसान उनसे बस एक फोन कॉल की दूरी पर हैं।

क्या आने वाले समय में राष्ट्रीय लोक दल एक बार फिर मजबूत स्थिति में उभरेगी ?

मुजफ्फरनगर में होने वाली किसान महापंचायत में नरेश टिकैत ने कहा कि हमने भाजपा को जिता कर बड़ी भूल की है। हमें अजीत सिंह को नहीं हराना चाहिए था। इस बयान के पीछे जाए तो आखिर वह ख़त्म हो चुकी रालोद पर इतना भरोसा क्यों जता रहे हैं। राजनैतिक विश्लेषक पुष्पेन्द्र शर्मा कहते हैं कि अजीत सिंह भले ही मौका परस्त नेता हैं लेकिन पश्चिमी यूपी के जाट उन्हें आज भी जाट नेता के तौर पर देखते हैं। किसान नेताओं का मानना है कि अगर अजीत सिंह संसद पहुंचे होते तो कम से कम किसानों की बात तो सरकार से करते। जबकि संजीव बालियान या सत्यपाल मलिक और अन्य जाट नेता यह काम नहीं कर रहे हैं। एम रियाज हाश्मी कहते हैं कि आरएलडी कैसे मजबूत होगी यह जानने से पहले आरएलडी कमजोर क्यों हुई यह जानना आवश्यक है।

उन्होंने बताया कि चौधरी चरण सिंह ने जाटों को सत्ता का चस्का लगाया जबकि अजीत सिंह ने खुद को सत्ता का चस्का लगाया। जब भी कि सी की सरकार बनती अजीत सिंह मंत्री बन सत्ता की मलाई काटते। ऐसे में जो उनके सहयोगी थे वह बिखरने लगे। मोदी सरकार में इन्होने डील की लेकिन फायनल नहीं हुई और आज हालत ऐसी है कि खत्म होने की कगार पर हैं। हाशमी कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह जाट वोटों के साथ प्लस वोटबैंक लेकर चलते थे लेकिन अजीत सिंह जाट वोटों को ही नहीं संभल पाए तो प्लस वोट कहां से लाते।

हालांकि जाटों को शिफ्टिंग वोट बैंक के नाम पर भी जाना जाता है। पिछले चुनावों के ट्रेंड देखे तो पता चलता है कि एक या दो बार यह किसी पार्टी के साथ जाते हैं लेकिन फिर किसी और के साथ शिफ्ट हो जाते हैं। वहीँ पुष्पेन्द्र शर्मा कहते हैं कि आरएलडी जाट वोटों को संभाल पायेगी के सवाल से पहले देखना चाहिए कि मुजफ्फरनगर में जहां किसान पंचायत हुई वहां अजीत सिंह सिर्फ 6 हजार वोटों से ही हारे थे यानि गैप बहुत कम है। अगर अजीत और जयंत अभी संभल जाते हैं तो जाटलैंड में उनकी वापसी तय है।

2022 चुनावों में भाजपा को कितना नुकसान और क्यों उठाना पड़ सकता है ?

चौधरी चरण सिंह जब पश्चिमी यूपी में राजनीति करते थे तो वह किसान नेता कहलाते थे उन्होंने जातीय राजनीति की तो लेकिन कभी मुद्दों से नहीं भटके। पश्चिमी यूपी में सपा-बसपा-भाजपा के आने के बाद से जातीय राजनीति शुरू हो गयी। धीरे धीरे यह सांप्रदायिक राजनीति में तब्दील होती चली गयी। जानकर इसके पीछे का कारण बताते हैं कि पश्चिमी यूपी में मुस्लिम बाहुल्य लगभग 32 विधानसभा सीट है। इसके बावजूद भाजपा वहां हमेशा ही उच्च जाति के कैंडिडेट ही खड़ी करती रही है। यह सिलसिला 1992 के बाद से जारी है जबकि 2013 मुजफ्फरनगर दंगे के बाद भी बसपा और सपा जातीय समीकरण के आधार पर ज्यादातर मुस्लिम कैंडिडेट को ही टिकट देती रही है।

यही वजह है कि धीरे धीरे पश्चिमी यूपी के लोग जातीय खांचों में बंट गए हैं। पत्रकार कहते हैं कि यदि यह किसान आंदोलन लंबा खिंच गया तो आगामी 2022 विधानसभा चुनावों में पश्चिमी यूपी में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन अगर आंदोलन लंबा नहीं खिंचा तो विपक्षी दलों को जाटों को चुनाव तक एकजुट करने के लिए मशक्कत करती रहनी पड़ेगी।

यह देखना होगा कि अब से चुनाव के बीच कोई चमत्कार न हो जाये, कोई सर्जिकल स्ट्राइक, कोई दंगा न हो जाये। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा को बहुत मुश्किलों का सामना पश्चिमी यूपी में नहीं करना होगा।

जाट बाहुल्य सीटों पर पिछले तीन लोकसभा चुनावों में पार्टियों की स्थिति

पार्टी2014 लोकसभा2019 लोकसभा2009 लोकसभा
भाजपा111602
सपा020103
बसपा040007
कांग्रेस000001
रालोद000004

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