विश्व बंधुत्व, समानता एवं भाईचारे की मिसाल थे मुहम्मद साहब

एस खान/कमल वर्मा औरैया

इस्लाम धर्म के पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब का जन्मदिन यौम ए  विलादत के रूप में बारावफात पैगम्बर की शान में हर साल मुस्लिमों द्वारा सबसे बड़े पर्व के रूप मे मनाया जाता है। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने पूरे विश्व जगत को विश्व बंधुत्व, समानता, एवं भाईचारे का संदेश देकर लोगों  को प्रेरित किया था। उनकी शिक्षाएं एवं सिद्धांत इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक कुरान में वर्णित है जो लोगों को अच्छे कर्म करने एवं बुराइयों से दूर रहने की शिक्षा देती है।

“बारावफात के मायने व पैंगम्बर का प्रारम्भिक जीवन”

मुहम्मद साहब का जन्मदिन यौम ए विलादत बारावफात के रुप में मनाया जाता है। इसे ईद ए मिलादुन्नबी भी कहते हैं। बारावफात या ईद-ए-मिलादुन्नबी दोनों का अर्थ अलग अलग है बारावफात का अर्थ वो 12 दिन जिनमे पैगंबर मुहम्मद साहब गंभीर रुप से बीमार रहे है और 12वें दिन उन्होंने इस दुनिया से रुखसत किया। ईद ए मिलादुन्नबी वह दिन जो ईद से बढ़कर ईद हो जिस दिन पैगंबर की मुबारक पैदाइश इस दुनिया में हुई। बारावफात का पर्व इस्लाम धर्म में एक अहम मुक़ाम रखता है।

इस दिन इस्लाम धर्म के पैगंबर मुहम्मद साहब का जन्म और उनका इंतकाल एक ही दिन हुआ था। इस्लामी महीने रबी उल अव्वल की 12 तारीख को उनकी इस दुनिया में मुबारक पैदाइश हुई। इनके जन्म को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग मत हैं। कुछ लोग उनका जन्म 20 अप्रैल 570 ईस्वी और कुछ 8 जून 570 ईस्वी को पवित्र शहर मक्का के कुरैश खानदान में मानते हैं। इनके पिता अब्दुल्ला व मां का नाम आमना था। जन्म से पहले ही इनके पिता का व्यापार पर जाते समय इंतकाल हो गया था।

उनके जन्म के 6 वर्ष के बाद उनकी मां का भी इंतकाल हो गया। उनका पालन पोषण चाचा अबुतालिब और दाई हलीमा ने किया था। कहा जाता है कि उनके जन्म के समय मक्का में गंभीर अकाल पड़ा हुआ था चारों तरफ खाने पीने की त्राहि त्राहि मची हुई थी। उनके जन्म के बाद अकाल तुरंत समाप्त हो गया। धनाभाव के कारण उनकी शिक्षा दीक्षा नहीं हो पाई । वह दिन मे भेड़ों को चराने जाते और जब भी समय मिलता तो वह ईश्वर को याद करते थे । जब इनकी उम्र 25 वर्ष की हुई तो यह भी पिता की तरह खजूरों का व्यापार करने लगे उनके साथ ही एक विधवा खदीजा नाम की औरत जिसकी उम्र 40 वर्ष थी। वह भी वही व्यापार करती थी बाद मे उन्होंने खदीजा बेगम को अपनी शरीके हयात बना लिया।

“जीवनकाल में संघर्ष”

अरब जगत सहित पूरे मक्का में चारों तरफ वहां के शासक का भय व्याप्त था। बहुत सारी कुरीतियां भी थी। लोग जानकारी के अभाव में भ्रमित थे। घर में लडकी पैदा होने पर उसे जिन्दा दफना दिया जाता था। औरतों पर वहां के शासक द्वारा बेहद जुल्म किये जाते थे। मुहम्मद साहब ने उस निरंकुश शासक के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों को ऐसे निरंकुश शासक के खिलाफ एकजुट करना शुरु किया। लोगों को एक जुट होता देख वहां के शासक ने मुहम्मद साहब के खिलाफ षडयंत्र रचना शुरू कर दिया और तरह तरह के जुल्म करवाने लगा। 50 वर्ष की उम्र में वह अपने खिलाफ षडयंत्र से बचने के लिये 622 ई० मे मक्का से मदीना चले गए। उनका मक्का से मदीना जाना हिजरत कहलाया और तभी से हिजरी संवत की शुरुआत हुई।

उन्होंने मक्का शहर में लोगों को एकजुट कर अधर्म और बुराई से लड़ने के लिये प्रेरित कर विश्व बंधुत्व, समानता एंव भाईचारे का पैगाम दिया और उन्हें बुराइयों को छोड़ कर नेकी के रास्ते पर चलने की शिक्षा थी। उन्होंने अपने पैगाम मे कहा कि ईश्वर एक है ,शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा नहीं, बुरे काम मत करो, चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरों को न सताओ, किसी तरह का नशा मत करो आदि की शिक्षा उन्होंने लोगों को दी। पवित्र पुस्तक कुरान में भी इस्लाम के पांच सिद्धांतों को वर्णित किया गया है जिनमे कलमा पढ़ना, नमाज पढ़ना ,रोजा रखना, जीवन में एक बार पवित्र शहर मक्का की हज यात्रा करना, अपनी कमाई का कुछ हिस्सा गरीबों को जकात के रुप मे देना। मुहम्मद साहब की शिक्षाओं से सभी को आत्मबल एवं दृढ़ निश्चय होने की प्रेरणा मिलती है ।

संघर्षपूर्ण जीवन के अंतिम समय में वह बुखार जैसी बीमारी के चपेट में आ गये और 12 दिन गम्भीर रूप से बीमार रहने के बाद मुहम्मद साहब  रबीउल अव्वल की 12 वीं तारीख को 632 ईस्वी में मदीना शहर में इस दुनिया से रूखसत हो गये। बाराबफात जहाँ एक तरफ उनकी पैदाइश की खुशी लेकर आता है वहीं दूसरी तरफ उनके इंतकाल का गम लेकर भी आता है । इसलिए हम कर सकते हैं कि बाराबफात खुशी और गम दोनों का पर्व है। मुस्लिम समाज के लोग बारावफात के दिन अपने घरों को दिवाली की तरह सजाते हैं। वह ईद मीलादुन्नवी का जुलूस ए मुहम्मदी निकाल कर खुशी मनाते है। बारावफात के पर्व को मुसलमानों की दिवाली भी कहा जाता है।

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