
रायबरेली । लोकसभा चुनाव में इस बार रायबरेली में कांग्रेस को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। रायबरेली की राजनीति में दो दशक से सक्रिय पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी को इस बार कड़ी मेहनत के साथ-साथ अनेक स्थानीय स्तर पर कई मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। उनके सामने जहां सपा बसपा के जमीनी कार्यकर्ताओं को साधने की चुनौती है, वहीं पार्टी के आम कार्यकर्ता के मनोबल को भी मजबूत करना पड़ेगा। सपा-बसपा के वाकओवर के बाद अब यहां से कांग्रेस को सीधे चुनौती भाजपा से मिलने वाली है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने कांग्रेस के ही एक वर्तमान विधायक व एमएलसी को अपने पाले में करके स्थानीय स्तर पर कड़ी चुनौती देने की तैयारी कर ली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह,मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व कई केंद्रीय मंत्रियों के दौरों से रायबरेली में भाजपा कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह है। भाजपा की इस बार की ब्यूहरचना में कांग्रेस को ठीक से पटखनी देने की तैयारी है।
भाजपा ने जमीनी स्तर पर तैयारी करके कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी है। कांग्रेस को इन चुनौतियों से निपटने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। वैसे 2017 के विधानसभा चुनावों में रायबरेली के परिणाम जहां भाजपा के लिए उत्साहित करने वाले हैं, वहीं कांग्रेस के आम कार्यकर्ता इससे निराश है।
प्रियंका को इन कार्यकर्ताओं के मनोबल को भी मजबूत करना पड़ेगा, यहां यह बात गौर करने वाली है कि लोकसभा की भांति विधानसभा के चुनावों में भी प्रियंका गांधी की महती भूमिका थी और सपा से गठबंधन और प्रत्याशियों का चयन तक सब उन्हीं के निर्देशों पर हुए है। बावजूद इसके रायबरेली के चुनावी आकड़ें कांग्रेस के लिए सुखद नहीं है। आंकड़े की बात करें तो 2007 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए काफी अच्छा रहा है, पार्टी ने इस चुनाव में छह में से पांच सीटें जीती थी,लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गए और इसमें कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिल सकी और उसके वोट प्रतिशत में भी काफी गिरावट आयी।
चार सीटों पर तो उसके प्रत्याशी तीसरे नम्बर पर पहुंच गए।बछरांवा विधानसभा सीट पर विजयी सपा प्रत्याशी राम लाल अकेला के मुकाबले कांग्रेस को लगभग आधे 15.96 प्रतिशत मत ही मिल पाए। रायबरेली सदर में 18.74 प्रतिशत,सरेनी में 25.82प्रतिशत व ऊँचाहार में करीब 25 प्रतिशत मत पार्टी को मिले और उसके प्रत्याशी तीसरे नंबर पर पहुंच गए। केवल दो विधानसभा सलोन और हरचंदपुर विधानसभा में पार्टी के प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे और उन्हें क्रमशः 28 और 22 प्रतिशत मत मिल सके।
जिनमें विजयी प्रत्याशियों के मुकाबले काफी अंतर था। कमोबेस यहीं स्थिति 2017 के विधानसभा चुनावों में भी रही। इस चुनाव में कांग्रेस को दो सीट तो मिल गई लेकिन इनमें से एक पर जीत की मुख्य भूमिका निर्दलीय विधायक अखिलेश सिंह की थी, जिनकी बेटी अदिति सिंह इस बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही थी।और दूसरी सीट हरचंदपुर में कांग्रेस जीती थी जहां जीत का अंतर काफी कम था। सरेनी और ऊँचाहार विधानसभा में तो पार्टी चौथे नम्बर पर पहुंच गई और उसे क्रमशः 20.88 और 16.75 प्रतिशत मत ही मिल सके थे।
यहां यह गौर करने वाली बात है कि सपा और कांग्रेस के गठबंधन के बावजूद इन दो सीटों पर कांग्रेस और सपा ने अपने-अपने प्रत्याशी उतारे थे, जबकि शेष सीटें कांग्रेस और सपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। उल्लेखनीय है कि इन चुनावों में रायबरेली और अमेठी में पहले से सक्रिय प्रियंका गांधी की अहम भूमिका थी और उनके ही निर्देशन में प्रत्याशियों के चयन सहित चुनाव प्रचार हुए थे।
इसी तरह लोकसभा चुनावों के परिणामों पर यदि गौर करें तो कांग्रेस के परिणाम में गिरावट ही हुई है। 2009 के आम चुनाव में जहां सोनिया गांधी को 72.23 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं 2014 में यह आकंड़ा घटकर 63.80 पर पहुंच गया। जबकि इन चुनावों की पूरी बागडोर प्रियंका गांधी के ही हाथों में थी और सारा प्रबंधन उन्हीं के इर्दगिर्द था। ऐसी दशा में यह तय है कि 2019 का रायबरेली का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए क्लीन स्वीप नहीं होने वाला और इस चुनाव में पार्टी को कड़ी मेहनत करने की जरूरत है।