गठबन्धन से सपा-बसपा रहेंगे फायदे में, भाजपा की बढ़ेंगी मुश्किलें

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख दल समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबन्धन से दोनों ही दलों का फायदा होगा और भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक मुश्किलें बढ़ सकती हैं। दोनों के बीच गठबन्धन का औपचारिक ऐलान शनिवार को मायावती व अखिलेश यादव की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में किया जाना है।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में दलितों की आबादी करीब 24 फीसदी और पिछड़ों की जनसंख्या 54 प्रतिशत है। इस 54 फीसदी में 19.40 फीसदी यादव हैं। जातियों का यह समीकरण ही दोनों को गठबन्धन के करीब लाया है। हालांकि, सपा-बसपा को अपने-अपने वोट ईमानदारी से एक दूसरे को ट्रान्सफर करवाने पर जोर देना होगा। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटें हैं। वर्ष 2014 में इस राज्य से भाजपा को 71 और उसके सहयोगी अपना दल को दो लोकसभा सीटें मिली थीं। गरीब सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव से भाजपा ने डैमेज कन्ट्रोल की कोशिश की है। एससीएसटी एक्ट में संशोधन से सवर्णों और पिछड़ों का गुस्सा सातवें आसमान पर था लेकिन दस फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव ने एक हद तक सवर्णों का गुस्सा कम किया है।

उत्तर प्रदेश के जातीय समाकरण बताते हैं कि गठबन्धन से पार पाना भाजपा के लिये टेढ़ी खीर होगी। सपा-बसपा गठबन्धन को ज्यादातर पिछड़ों और दलित मतदाताओं का समर्थन मिलने की सम्भावना है, ऐसी हालत में मुसलमानों का भी झुकाव गठबन्धन की ओर हो सकता है। पिछड़ों दलितों और मुसलमानों के एक साथ आ जाने से गठबन्धन के आगे भाजपा को नुकसान होने पर सीटें घट सकती हैं। सपा सूत्रों के अनुसार गठबन्धन का ऐलान होने के बाद अखिलेश यादव और मायावती की संयुक्त रैलियां हर मंडलीय मुख्यालयों पर करने की योजना है। इस तरह दोनों की कम से कम 18 संयुक्त रैलियां होंगी। इन रैलियों के जरिये दोनों अपने-अपने समर्थकों को भी एकजुट करेंगे। अब देखना होगा कि शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया सपा-बसपा के इस गठबन्धन का कितना वोट काट सकती है। माना जा रहा है कि सपा जिन सीटों पर नहीं लड़ेगी, वहां शिवपाल की पार्टी मजबूती से लड़ सकती है। तीन राज्यों में जीत से उत्साहित कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने की बात की है।

कांग्रेस के अकेले लड़ने से उसका सांगठनिक ढांचा तो मजबूत हो सकता है लेकिन सीटों का बहुत अधि​क फायदा होने की उम्मीद नहीं दिखती। दूसरी ओर, राजनीतिक मामलों के जानकार उदय प्रताप ​कहते हैं कि आमतौर पर कांग्रेस और भाजपा को सवर्ण मतदाता का समर्थन हासिल रहता है। कांग्रेस यदि अलग चुनाव लड़ेगी तो भाजपा को ही नुकसान पहुंचायेगी, इसलिये गठबन्धन चाहता है कि इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया जाये। वैसे भी, कांग्रेस से गठबन्धन कर सपा और बसपा उसे उत्तर प्रदेश में संजीवनी नहीं देना चाहेगी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हाशिये पर है। इस राज्य में सपा-बसपा ही भाजपा का फिलहाल विकल्प नजर आ रही हैं। उनका कहना है कि बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती कांग्रेस से गठबन्धन के हमेशा खिलाफ रही हैं।

हाल ही में सम्पन्न हुये विधानसभा चुनाव में गठबन्धन के मसले पर वह कांग्रेस के रवैये से नाखुश भी हैं। हालांकि दोनों दल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी के खिलाफ शायद ही उम्मीदवार खड़ा करें। उधर, वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार कहते हैं कि लोकसभा के 2014 में हुये लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी, जबकि सपा को मात्र पांच सीटें मिली थी। इन पांचों सीटों पर मुलायम सिंह यादव के परिवार वाले ही जीते थे, शेष उम्मीदवार चुनाव हार गये थे। अब अगले लोकसभा चुनाव में दोनों दलों को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये मिलकर चुनाव लड़ना जरूरी है।

यही मजबूरी उन्हें चुनावी राजनीति में और नजदीक ला रही है। इस बीच, गठबन्धन से बेफिक्र दिखाने की कोशिश करते हुये भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता मनीष शुक्ला ने कहा कि एक तरफ मोदी जैसे कद्दावर ईमानदार नेता हैं तो दूसरी ओर कौन है, इसका पता ही नहीं है। जनता सब समझ रही है। जनता को मोदी पर भरोसा है। चुनाव तो मोदी की विश्वसनीयता पर लड़ा जायेगा। चुनाव राजग जीतेगा और मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनेंगे।

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