मेडिकली अबॉर्ट केस : सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की महिला की याचिका, अबॉर्शन की नहीं मिली इजाजत

नई दिल्ली। 26 हफ्ते की प्रेग्नेंसी को मेडिकली अबॉर्ट करने के केस में सुप्रीम कोर्ट ने महिला की याचिका खारिज कर दी है। कोर्ट ने आदेश में कहा कि डिलीवरी AIIMS में होगी। सरकार दवा समेत सभी चीजों का खर्च उठाएगी। जन्म के बाद बच्चे के मां-बाप फैसला लेंगे कि बच्चे को पालना चाहते हैं या अडॉप्शन के लिए देना चाहते हैं। इसमें सरकार मदद करेगी।

मामले की सुनवाई हुई के दौरान महिला के वकील ने तर्क दिया था ये एक्सीडेंटल और अनप्लान्ड प्रेग्नेंसी थी। महिला को नहीं लगता है कि वह अगले तीन महीने तक इस प्रेग्नेंसी को जारी रख सकती है। ये उसके अधिकारों का हनन है। CJI ने सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था।

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने कहा- अब ये चॉइस का मामला नहीं रह गया है। अब ये प्री-टर्म डिलीवरी और फुल टर्म डिलीवरी में से एक चुनने का मामला रह गया है। डॉक्टरों ने भी कहा है कि अबॉर्ट किया गया भ्रूण कभी चीखता है, कभी रोता है। अबॉर्शन कराने की 20 से 24 हफ्ते की अवधि भी उन महिलाओं के लिए तय की गई है जिन्हें कोई गंभीर समस्या है।

CJI- हम आज ही फैसला सुनाने की कोशिश करेंगे। हम लंच के दौरान लिखित प्रस्तुतियां देखेंगे। अगर हम आज फैसला सुनाते हैं, तो पहले नोटिफाई करेंगे।

ASG भाटी- हम महिला और उसके पति की हर तरीके से मदद करेंगे। चाहे मेडिकल मदद हो या काउंसिलिंग।

महिला के वकील सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोन्जाल्विस ने कहा- मैं इस मामले में जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल एक एक सब्मिशन दूंगा। इंटरनेशनल लॉ में अजन्मे बच्चे का कोई अधिकार नहीं होता है। महिला का अधिकार ही सर्वोपरि होता है।

लेट टर्म प्रेग्नेंसी के मामले में सभी अबॉर्शन में भ्रूण की धड़कन रोकनी पड़ती है। ऐसे हजारों केस होते हैं। भ्रूण की धड़कन रोकने का कानून भारत सरकार की पॉलिसी में है। इसलिए इसे हैरान करने वाला कहना या नई घटना कहना- सही नहीं है।

CJI: क्या आप ये कहना चाहते हैं कि 33 हफ्ते की प्रेग्नेंसी में या ऐसे मामलों में भी जहां भ्रूण स्वस्थ है, वहां महिला को अबॉर्शन की अनुमति देनी चाहिए? क्या वह डिलीवरी से एक हफ्ते पहले भी प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करवा सकती है?

गोन्जाल्विस: हां, प्रेग्नेंसी में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।

CJI: क्योंकि आप अंतरराष्ट्रीय कानून की बात कर रहे हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि अमेरिका में रो बनाम वेड केस में क्या हुआ था। भारतीय कानून पिछड़ा नहीं है। हमें ये भी देखना चाहिए कि अपने देश की बुराई करना आसान होता है। हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि यहां कई अलग-अलग ऑर्गन हैं। विधानमंडल को अधिकार है कि ऐसे मामलों में कानून बनाए।

गोन्जाल्विस: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कहा है कि अबॉर्शन के लिए 24 हफ्तों गाइडलाइन अब पुरानी हो गई है।
CJI: मुझे नहीं लगता कि कानून कहता है कि WHO के बयान के आधार पर हम अपने कानून में बदलाव कर सकते हैं।

गोन्जाल्विस: ये एक्सीडेंटल और अनप्लान्ड प्रेग्नेंसी थी। महिला को नहीं लगता है कि वह अगले तीन महीने तक इस प्रेग्नेंसी को जारी रख सकती है। ये उसके अधिकारों का हनन है।

CJI: हम इस बारे में विचार करेंगे। आज मामले में फैसला सुनाया जा सकता है।

क्या था रो बनाम वेड केस?

प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन से जुड़े इस केस में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में फैसला सुनाया था। इसमें नॉर्मा मैक्कॉर्वी नाम की महिला को अपनी तीसरी प्रेग्नेंसी अबॉर्ट कराने का अधिकार दिया गया था। कानूनी कार्यवाही में महिला को जेन रो नाम दिया गया था।

महिला टेक्सास की रहने वाली थी, जहां अबॉर्शन कराना कानूनी अपराध था। महिला ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए टैक्सास के डिस्ट्रक्ट अटॉर्नी हेनरी वेड के खिलाफ केस दर्ज कराया था। इसलिए केस को रो बनाम वेड नाम से जाना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस मामले में 7-2 से महिला के पक्ष में फैसला दिया था। हालांकि फैसले में ये भी कहा गया कि अबॉर्शन का अधिकार हर बार मान्य नहीं होगा। महिला की सेहत और अजन्मे शिशु को बचाने की सरकार की कोशिशों में संतुलन बनाए रखना जरूरी होगा।

इसमें कहा गया कि अमेरिका में अबॉर्शन संबंधी नियम प्रेग्नेंसी ट्राइमेस्टर टाइमटेबल के आधार पर तय किए जाएंगे। कोर्ट ने अबॉर्शन के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया। इस आदेश के तहत तय किया गया कि सभी कोर्ट अबॉर्शन के कानूनों का आकलन ‘स्ट्रिक्ट स्क्रूटनी’ के तहत करेंगीं। ये अमेरिका में न्यायिक समीक्षा का सबसे स्ट्रिक्ट स्तर है।

आखिर इस केस में अब तक क्या-क्या हुआ

13 अक्टूबर: सुप्रीम कोर्ट ने महिला की मनोवैज्ञानिक जांच का निर्देश दिया था पांचवें दिन की दलीलें सुनने के बाद चीफ जस्टिस की बेंच ने निर्देश दिया था कि AIIMS के डॉक्टर्स का बोर्ड महिला की मानसिक और शारीरिक जांच करके उसकी मनोविकृत्ति का पता लगाए और अगली सुनवाई के दौरान रिपोर्ट पेश करे। CJI ने यह भी कहा था कि याचिकाकर्ता महिला को बोर्ड के सामने पेश होना होगा। इसके बाद बोर्ड रिपोर्ट बनाए कि महिला को दी जा रही डिप्रेशन की दवाओं से भ्रूण को कैसे बचाया जा सकता है।

12 अक्टूबर: सुप्रीम कोर्ट ने कहा- महिला इतने दिन रुकी, क्या और इंतजार नहीं कर सकती चौथे दिन की सुनवाई के दौरान बेंच ने कहा था- हमें अजन्मे बच्चे के अधिकार को मां के अधिकार के साथ बैलेंस करने की जरूरत है। वो एक जीवित भ्रूण है। क्या आप चाहते हैं कि हम AIIMS के डॉक्टरों को उसके दिल को रोकने के लिए कहें, हम ऐसा नहीं कर सकते। हम किसी बच्चे को नहीं मार सकते।

11 अक्टूबर: नई मेडिकल रिपोर्ट देखकर फैसला पलटा, 2 जज बंटे, केस बड़ी बेंच को भेजा कोर्ट ने नई मेडिकल रिपोर्ट पर नाराजगी जाहिर की। बेंच ने कहा कि रिपोर्ट में लिखा है कि 26 हफ्ते के भ्रूण के जीवित रहने की काफी संभावना है। जस्टिस हिमा कोहली प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करने के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन जस्टिस बीवी नागरत्ना उनसे सहमत नहीं थीं। दोनों जजों के बीच मतभेद के बाद मामले को बड़ी बेंच के पास रेफर कर दिया गया।

10 अक्टूबर: SC ने अबॉर्शन रोका, मां की अपील- मेरे 2 बच्चे, तीसरा नहीं चाहिए AIIMS के डॉक्टरों ने मंगलवार को कोर्ट में बताया कि भ्रूण के पैदा होने की संभावना है। इसके बाद कोर्ट ने डॉक्टरों को अबॉर्शन प्रोसेस रोकने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा कि इस मामले की सुनवाई के लिए बुधवार को एक नई बेंच का गठन किया जाएगा। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर गर्भ में शिशु जीवित मिले तो डॉक्टरों की सलाह से उसे इन्क्यूबेशन में रख सकते हैं।

9 अक्टूबर: 26 हफ्ते की प्रेग्नेंसी खत्म करने की इजाजत दी, कहा- AIIMS जाएं जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने कहा कि अपने शरीर पर महिला का अधिकार है। अगर अनचाहे गर्भधारण से बच्चा पैदा होगा, तो उसे पालने की जिम्मेदारी महिला पर ही आएगी। इस वक्त वह इसके लिए तैयार नहीं है। उसे अबॉर्शन की इजाजत दी जाती है। कोर्ट ने महिला से कहा था कि वो 10 अक्टूबर को AIIMS जाए।

क्या है यह पूरा मामला- महिला बोली- प्रेग्नेंट हुई, पता नहीं चला

याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में कहा था कि उसका दूसरा बच्चा अभी छोटा है और ब्रेस्ट फीडिंग करता है। ऐसे में महिला ने लैक्टेशनल अमेनोरिया नाम के कॉन्ट्रासेप्टिव तरीके का इस्तेमाल किया, लेकिन ये तरीका फेल हो गया और वह प्रेग्नेंट हो गई। इसके बारे में उसे काफी समय बाद पता चला।

कोर्ट ने भी माना कि ब्रेस्टफीडिंग के दौरान प्रेग्नेंसी की संभावना बेहद कम होती है। सोमवार को कोर्ट ने याचिकाकर्ता को वर्चुअली पेश होने को कहा और उससे पूछा कि क्या वह प्रेग्नेंसी को जारी रखना चाहती है, लेकिन महिला ने कोर्ट से अबॉर्शन की इजाजत मांगी। याचिकाकर्ता के वकील के मुताबिक महिला को पहली बार 28 सितंबर को अपनी गर्भावस्था के बारे में पता चला। 5 दिनों के भीतर वह सुप्रीम कोर्ट आईं। उनमें भी 3 दिन छुट्टियां थीं।

कोर्ट में महिला का इलाज कर रहे अमित मिश्रा ने बताया कि उनका अक्टूबर 2022 से, यहां तक ​​कि प्रेग्नेंसी के दौरान भी पोस्ट पार्टम डिप्रेशन का इलाज नोएडा के क्लिनिक में चल रहा था।

दिसंबर 2017 में उनकी शादी हुई थी। पहला बच्चा 30 सितंबर 2019 और दूसरा बच्चा 30 सितंबर 2022 में हुआ। हालांकि CJI चंद्रचूड़ ने सवाल उठाया कि नवंबर 2022 के शुरुआती प्रिस्क्रिप्शन में यह नहीं लिखा है कि किस बीमारी के लिए दवाएं दी गई थीं।

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