जाते जाते साल 2018 कांग्रेस को दे गया संजीवनी, भाजपा को मिला करारा झटका….

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नई दिल्ली । भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए गुजरता साल उसकी उम्मीदों के विपरीत रहा। उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 2019 की दहलीज पर पहुंचने से पहले उसे भारी नुकसान के दौर से गुजरना होगा। इस साल की शुरुआत में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे को अमलीजामा पहनाने निकली भाजपा 2018 के आखिर तक आते-आते बेदम होने लगी। उसके विजय रथ के पहिए थम गए। डेढ़ दशक से अजेय बने सत्ता के दुर्गों से भी उसे बेदखल होना पड़ा। साल 2018 की शुरुआत में विपक्षी दलों के नेता भी दबी जुबान में यह स्वीकार करने लगे थे कि 2019 की चुनावी जंग के विजेता भाजपा और नरेन्द्र मोदी ही होंगे।

किंतु साल के आखिर में जिस तरह से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता से भाजपा को बेदखल होना पड़ा है, उससे अब विरोधी तो दूर, भाजपा के सहयोगी दल भी 2019 के आम चुनाव में उसकी अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की जीत को लेकर आशंकित हो गए हैं। सहयोगी दल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर सवाल खड़े करने से नही चूक रहे। उनकी ये आशंका बेवजह नही है, क्योंकि जनसंघ के जमाने से ही हिन्दी पट्टी के राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसका गढ़ रहे हैं और इन राज्यों में पार्टी की हार ने उसे 2019 के लिए नई रणनीति का खाका तैयार करने पर विवश कर दिया है।

हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि भाजपा के ‘चाणक्य’ अमित शाह और लोकप्रियता के शिखर पर सवार नरेन्द्र मोदी का असर फीका पड़ने लगा है। क्योंकि चुनाव दर चुनाव पटखनी खाती कांग्रेस तीन राज्यों में मिली जीत के जश्न की खुमारी से जब तक निकलेगी तब तक मोदी और शाह की जोड़ी 2019 के लिए नई पटकथा तैयार कर चुकी होगी। बहरहाल, साल की शुरुआत में भाजपा ने शानदार आगाज करते हुए त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में फरवरी में संपन्न विधानसभा चुनाव में एक नया मुकाम हासिल किया। दशकों से वाममोर्चा शासित त्रिपुरा में जहां पार्टी ने अपने बलबूते सत्ता हासिल की वहीं मेघालय और नगालैंड में सहयोगी दल के रूप में सत्ता तक पहुंची। मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता के करीब तो पहुंच गई किंतु कांग्रेस व जनता दल सेक्युलर के गठबंधन के कारण वह सरकार बनाने से वंचित रह गई। इसके बाद साल के आखिर में हुए पांच राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना व मिजोरम) में उसे हार का सामना करना पड़ा। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जहां उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा वहीं तेलंगाना में वह सिमटकर एक सीट पर आ गई।

कुल मिलाकर इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, जिनमें त्रिपुरा में भाजपा ने परचम लहराया तो तीन राज्यों की सत्ता से बेदखल होना पड़ा। पार्टी को आठ राज्यों में पराजय का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही गुजरते साल में कुल 13 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें से नौ सीटों पर (2014) भाजपा का कब्जा था। इन नौ में से सात सीटों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा और दो सीटें ही वह बचा पाई और एक सीट (नागालैंड) पर उसके द्वारा समर्थित नगालैंड डेमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी (एनडीपीपी) प्रत्याशी की जीत हुई।

शेष सभी स्थानों पर विपक्ष ने भाजपा को पटखनी दे दी। वरिष्ठ पत्रकार अजयभान सिंह के मुताबिक राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम भाजपा के लिए एक दुःस्वप्न से कम नही है। अब जिस तरह से मीडिया में इन चुनावों को 2019 के आम चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है, वह एक किस्म का अतिउत्साह है। दरअसल 15 साल से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा निर्बाध सत्ता सुख भोग रही थी और कांग्रेस विपक्ष के रूप में पूरी तरह से लुंजपुंज दिख रही थी। इस दौर में भाजपा के मंत्री, विधायक और बढ़े क्षत्रप का अपने जमीनी कार्यकर्ताओं से लगातार दूर होते गए और उनके साथ ही अफसरों की निरंकुशता लगातार बढ़ती गई।

जाहिर है जमीन से कटे सत्ताधीश और स्वेच्छाचारी नौकरशाही से न केवल आम जनता बल्कि पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता भी बुरी तरह खार खाए बैठे थे। यह अप्रत्याशित परिणाम उसी गुस्से का प्रतीक है। इसके अलावा पिछले पांच साल में कांग्रेस और वाम दलों ने जिस तरह एक सोची समझी रणनीति के तहत वृहत्तर हिन्दू समाज के बीच जातिगत मसलों को लेकर जो टकराव खड़ा किया, भाजपा उसे भांपने में विफल रही और उसका शिकार हो गई। नतीजा सवर्णों और पिछड़ों के गुस्से के रूप में सामने आया। अजयभान सिंह का कहना है कि आम तौर पर लोकसभा चुनाव का विमर्श करीब साल डेढ़ साल पहले से और चुनाव दर चुनाव तैयार होने लगता है लेकिन किसी भी सूबाई चुनाव का उसका सेमीफाइनल या कसौटी मान लेना उचित नहीं है।

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राज्यों के चुनाव विशुद्ध स्थानीय मुद्दों और जनसामान्य की रोजमर्रा की जरूरतों को केंद्र में रखकर लड़े जाते हैं जबकि लोकसभा चुनाव उसी जनसामान्य की वृहत्तर महत्वाकांक्षाओं का फलक होता है। ऐसा पिछले 20 वर्षों में अगर हम हिन्दी भाषी क्षेत्रों में लोकसभा और विधानसभा चुनाव की जो परिपाटी बनी है, उसका बारीकी से अध्ययन करें तो साफ दिखेगा कि जो जनता 1998 में दिग्विजय सिंह और अशोक गहलोत को सत्ता का ताज पहनाती है वो कुछ ही महीने बाद अपनी पूरी सामर्थ्य से दिल्ली के तख्त पर अटल बिहारी वाजपेयी को बिठाती है। यानी जनता को बखूबी पता है कि उसे किस पार्टी को सूबे में बिठाना है और किस को देश की बागडोर सौंपनी है।

मोदी का अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) कनेक्शन अभी जिन्दा है और राजकाज की उनकी जुदा, ताकवर और निर्णायक शैली के प्रशंसकों की अभी भी कोई कमी नही आई है। ऐसे में विधानसभा चुनाव में पराजय की बुनियाद पर मोदी फैक्टर को नाकाम समझकर और कांग्रेस की जीत के दिवा स्वप्न देखना नासमझी होगी। अभी कांग्रेस को लंबा सफर तय करना होगा और लोकसभा चुनाव के लिए एक आक्रामक, टिकाऊ और सर्वग्राह्य विमर्श सामने लाना होगा तभी मोदी जैसी पहाड़ सी चुनौती से पार पाया जा सकता है।

बहरहाल इस चुनावी झटके से तो एक बात तय है कि पार्टी मुद्दों, प्रत्याशियों, कार्यक्रम, रणनीति और सत्ताविरोधी रुझान को समझने में नाकाम रही और मुद्दों, प्रत्याशियों, कार्यक्रमों और रणनीति का मारक मेल तैयार करने में चूक गई। इसे अगर पार्टी सबक के रूप में लेती है और अपनी चुनावी समझ में इन नतीजों के मूल कारणों को शामिल करती है तो निश्चय ही उसे 2019 के बेहद रोचक, तनाव भरे और भीषण चुनावी मुकाबले में मदद मिलेगी।

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कांग्रेस को बुलंदी पर पहुंचा गया 2018 का चुनावी साल

 पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से एक के बाद एक किले फतह कर रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जाते वर्ष 2018 ने जहां करारे झटके दिये वहीं तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस की वापसी कर उसे संजीवनी दे गया।

इस वर्ष हुए चुनावों पर नजर डाले तो पूर्वार्ध में पूर्वोत्तर राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी पिछले साढ़े चार साल से जीत का सिलसिला बरकरार रखा लेकिन उसके बाद हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भाजपा हार की ढलान पर फिसलनी शुरू हुई और वर्षांत में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में उससे करारा झटका लगा और तीन प्रमुख राज्य उसके हाथ से निकल गये। पिछले साढ़े चार वर्ष में उसे पहली बार कांग्रेस के साथ सीधी लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा। इन राज्यों में कांग्रेस काे जीत की संजीवनी मिली।

इस साल त्रिपुरा में भाजपा ने वामपंथी किले को ढहाकर सरकार बनायी। नागालैंड में नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ गठबंधन सरकार बनायी तथा मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी को समर्थन दिया, लेकिन समय-दर-समय विभिन्न राज्यों में लोकसभा और विधानसभा की चुनावी रण में कांग्रेस के तीरों से वह पस्त होती गई ।

इस वर्ष विभिन्न राज्यों की 18 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए , जिनमें कांग्रेस ने सबसे अधिक आठ सीटों पर जीत हासिल की जबकि भाजपा, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) , तृणमूल कांग्रेस के खाते में दो-दो सीटें गई तथा राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी (सपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और जनता दल (सेक्युलर) ने एक-एक सीट जीती ।

कांग्रेस ने विधानसभा उपचुनावों में शानकोट (पंजाब) , पलुस कडेगांव (महाराष्ट्र), आमपाती (मेघालय), आरके नगर (तमिलनाडु), जयनगर कर्नाटक), जामखांडी (कर्नाटक), मांडलगढ़ (राजस्थान) और कोलिविड़ा (झारखंड) सीटों से चुनाव जीता। भाजपा को दो सीट थराली (उत्तराखंड) और जसदन (गुजरात) , झामुमो को दो सीटगोमिया एवं मिल्ली (झारखंड) तथा तृणमूल कांग्रेस को दो सीट महेशतला और नोआपाड़ा (प. बंगाल) मिली , जबकि सपा ने नूरपुर (उत्तर प्रदेश) , माकपा ने चेंगानुर (केरल), राजद ने जोकीहाट (बिहार) और जद(एस) ने रामनगर (कर्नाटक) सीट जीती ।

 

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