वनवास के दौरान जब पांडव काम्यक वन में रह रहे थे। तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा को लेकर उनसे मिलने पहुंचे। जब पांडव और श्रीकृष्ण भविष्य की योजना बना रहे थे। तब उनसे थोड़ी दूरी पर सत्यभामा और द्रौपदी बातें कर रहीं थीं।
बातों ही बातों में सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा कि- तुम्हारे पति बहुत ही शूरवीर हैं, तुम इन सभी के साथ कैसा व्यवहार करती हो, जिससे कि वे तुम पर कभी क्रोधित नहीं होते और सदैव तुम्हारे वश में रहते हैं। द्रौपदी ने कहा कि- अहंकार, काम, क्रोध को छोड़कर पांडवों की सेवा करती हूं। मैं कटु वचन नहीं बोलती, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, बुरी बातें नहीं सुनती, बुरी जगहों पर नहीं बैठती।
देवता, मनुष्य, गंधर्व, धनी अथवा रूपवान- कैसा भी पुरुष हो, मेरा मन पांडवों के अतिरिक्त और कहीं नहीं जाता। अपने पतियों के भोजन किए बिना मैं भोजन नहीं करती, स्नान किए बिना स्नान नहीं करती और बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। मैं घर के बर्तनों को मांज-धोकर साफ रखती हूं, स्वादिष्ट भोजन बनाती हूं। समय पर भोजन कराती हूं। घर को साफ रखती हूं। बातचीत में भी किसी का तिरस्कार नहीं करती।
दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती। आलस्य से दूर रहती हूं। मैं अपने पतियों से अच्छी भोजन नहीं करती, उनकी अपेक्षा अच्छे वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी मेरी सासजी से वाद-विवाद करती हूं। जिस समय महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ में शासन करते थे, उस समय जो कुछ आमदनी, व्यय और बचत होती थी, उस सबका विवरण मैं अकेली ही रखती थी। इस प्रकार पत्नी के लिए शास्त्रों में जो-जो बातें बताई गई हैं, मैं उन सबका पालन करती हूं।