
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने दक्षिण और पूर्वी भारत के मुख्यमंत्रियों से अपील की है कि वे प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया के खिलाफ एकजुट हों। उनका मानना है कि अगर इसे अगली जनगणना के आधार पर लागू किया गया, तो उन राज्यों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर पड़ जाएगा, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण में सफलता हासिल की है।
गुरुवार को कई वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में स्टालिन ने केंद्र सरकार की परिसीमन योजना को संघीय ढांचे पर सीधा हमला करार दिया। उन्होंने लिखा, “भारत का लोकतंत्र उसके संघीय ढांचे की बुनियाद पर टिका है—एक ऐसी व्यवस्था जो सभी राज्यों को उनकी वाजिब भागीदारी सुनिश्चित करती है, साथ ही राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत बनाए रखती है।”
उन्होंने आगाह किया कि “मैं इस गंभीर मुद्दे पर आप सभी को इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि यह संतुलन अब खतरे में है। अगर यह योजना लागू हुई, तो राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा और वे राष्ट्रीय नीति निर्माण में अपनी भूमिका खो देंगे।”
शुक्रवार को स्टालिन ने इस मुद्दे को और आक्रमता से उठाते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और भाजपा शासित ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चंद्र माझी समेत सात अन्य मुख्यमंत्रियों को चेन्नई में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने केंद्र सरकार के प्रस्तावित परिसीमन के खिलाफ संयुक्त राजनीतिक कार्रवाई समिति बनाने की पहल की है। इस सिलसिले में उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन, कर्नाटक के सिद्धारमैया, तेलंगाना के रेवंत रेड्डी, आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू और पुडुचेरी के एन. रंगास्वामी को भी बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है।
22 मार्च को चेन्नई में इस मुद्दे पर एक अहम बैठक होगी, जहां सभी विपक्षी नेता मिलकर आगे की रणनीति तैयार करेंगे। स्टालिन ने इन राज्यों के अन्य बड़े राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं को भी चर्चा में शामिल होने का न्योता दिया है। स्टालिन ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर अपनी चिंताओं को जाहिर करते हुए लिखा, “परिसीमन संघवाद पर खुला हमला है। यह उन राज्यों की आवाज़ दबाने का प्रयास है, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण को प्राथमिकता दी। यह किसी सजा से कम नहीं। हम इस लोकतांत्रिक अन्याय को स्वीकार नहीं करेंगे!”
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि परिसीमन का मूल उद्देश्य पूरे देश में राजनीतिक संतुलन बनाए रखना है, न कि किसी खास क्षेत्र को फायदा या नुकसान पहुंचाना। लेकिन स्टालिन और उनके समर्थकों का विरोध भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी भावना पर हमला है। क्या विपक्ष महज अपने सियासी समीकरण और सत्ता बचाने के लिए राष्ट्रीय हितों को ताक पर रख देगा? सवाल यह है कि जब हिंदी पट्टी के राज्यों की आबादी बढ़ी है, तो क्या वहां के नागरिकों को उनके जनसंख्या अनुपात के हिसाब से उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए?
ऐसे में परिसीमन को व्यपक दृष्टिकोण से देखने और समझने की जरूरत है कि क्या यह एक लोकतांत्रिक सुधार की प्रक्रिया है या फिर कुछ राज्यों की राजनीतिक पकड़ ढीली होने का डर? आइए, इस पूरे विवाद को विस्तार से समझते हैं।
घटती सीटें या ढीली पकड़? स्टालिन को किस बात का सता रहा डर
परिसीमन एक संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका मकसद पूरे देश में राजनीतिक संतुलन बनाए रखना और जनसंख्या के आधार पर न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। यह प्रक्रिया 2026 में प्रस्तावित जनगणना के बाद ही अमल में लाई जा सकती है, जिसके लिए एक परिसीमन आयोग का गठन होगा। इस आयोग में सभी दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे ताकि हर पक्ष की राय को महत्व दिया जा सके। संभावना है कि यह 2029 के लोकसभा चुनावों के लिए नए सीटों के निर्धारण की नींव रखेगा। लेकिन अब इस पूरी प्रक्रिया पर दक्षिण भारत की कुछ पार्टियों ने अनावश्यक विवाद खड़ा करने की कोशिश शुरू कर दी है।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन इस मुद्दे को दक्षिणी राज्यों के लिए एक ‘संकट’ बताकर इसे राजनीतिक रूप देने में जुटे हैं। उन्होंने अन्य राज्यों को भी इस फैसले के खिलाफ लामबंद करने का अभियान छेड़ दिया है। मगर सवाल यह उठता है कि जब केंद्र सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि परिसीमन से दक्षिणी राज्यों की लोकसभा सीटों में किसी तरह की कटौती नहीं होगी, तो फिर यह हंगामा क्यों? क्या स्टालिन और उनके समर्थकों को अपनी ढीली पड़ती राजनीतिक पकड़ का डर सता रहा है? या फिर यह केवल एक और राजनीतिक हथकंडा है, जिससे वे खुद को क्षेत्रीय राजनीति के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं?
इस पूरे विवाद में बीआरएस और कांग्रेस जैसी पार्टियां भी स्टालिन के सुर में सुर मिलाती नजर आ रही हैं। उनका दावा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जनसंख्या वृद्धि के चलते उनकी लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ सकती है, जिससे दक्षिणी राज्यों की राजनीतिक ताकत कमजोर हो जाएगी। लेकिन असली सवाल यह है कि अगर सीटों का निर्धारण जनसंख्या अनुपात के आधार पर किया जा रहा है, तो इसमें गलत क्या है? क्या लोकतंत्र का मूल सिद्धांत समान प्रतिनिधित्व नहीं है? जब वर्षों तक कुछ राज्यों को उनकी जनसंख्या से अधिक सीटें मिलती रहीं, तो क्या अब उन राज्यों को उनके वास्तविक आंकड़ों पर वापस लाने से इतनी परेशानी हो रही है?
स्टालिन ने इसे तमिलनाडु के अधिकारों पर हमला करार देते हुए दावा किया कि परिसीमन से पूरे दक्षिण भारत के हित प्रभावित होंगे। उन्होंने इसके खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिए दक्षिण भारत के अन्य राजनीतिक दलों को भी पत्र लिखकर समर्थन मांगा है। लेकिन जब खुद केंद्र सरकार यह कह चुकी है कि दक्षिणी राज्यों की सीटों में कोई कटौती नहीं होगी, तो फिर स्टालिन को डर किस बात का है? क्या यह सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट है ताकि वे खुद को तमिलनाडु और दक्षिण भारत के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश कर सकें?
इस बीच, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस पूरे मामले पर अपना रुख साफ कर दिया। तमिलनाडु में दिए अपने बयान में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि परिसीमन से किसी भी दक्षिणी राज्य की लोकसभा सीटों में कोई बदलाव नहीं होगा। उन्होंने यह भी दोहराया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इस बात की गारंटी दी है कि परिसीमन से किसी राज्य को नुकसान नहीं होगा। अब जब देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों यह आश्वासन दे चुके हैं, तो स्टालिन और उनकी पार्टी इस मुद्दे को हवा देने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है?
यह पूरा विवाद बताता है कि परिसीमन पर उठाए जा रहे विरोध की जड़ें किसी वास्तविक चिंता में नहीं, बल्कि विशुद्ध राजनीतिक एजेंडे में छिपी हैं। स्टालिन और उनके साथी जिस तरह इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं, उससे यह साफ झलकता है कि विपक्ष अब ठोस नीतियों और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ने के बजाय भावनात्मक उकसावे और राजनीतिक ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता बचाने की कोशिश कर रहा है। परिसीमन एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य प्रत्येक नागरिक को समान प्रतिनिधित्व देना है, न कि किसी की क्षेत्रीय राजनीति को चमकाना।
परिसीमन पर क्या कहता है संविधान
संविधान के मुताबिक, प्रत्येक राज्य में निर्वाचन क्षेत्रों का ऐसा विभाजन किया जाना चाहिए कि हर क्षेत्र की जनसंख्या और उसे दी गई सीटों की संख्या के बीच संतुलन बना रहे। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पूरे राज्य में यह अनुपात, जहां तक संभव हो, समान हो, जिससे हर नागरिक को बराबर प्रतिनिधित्व मिल सके।
लेकिन जनसंख्या में लगातार बदलाव होने के कारण समय-समय पर सीटों के आवंटन की समीक्षा और आवश्यक समायोजन जरूरी हो जाता है। यही परिसीमन की प्रक्रिया है, जिसे भारत में एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग अंजाम देता है। इसका मुख्य लक्ष्य राजनीतिक संतुलन बनाए रखना और यह सुनिश्चित करना है कि किसी क्षेत्र को अधिक या कम प्रतिनिधित्व न मिले।
परिसीमन केवल एक तकनीकी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की एक अहम कड़ी है, जिसे संविधान के तहत संचालित किया जाता है। लेकिन जब कुछ राजनीतिक दल इसे अपने हितों के अनुरूप गलत तरीके से पेश करने की कोशिश करते हैं, तो यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है, बल्कि देश की एकता और अखंडता पर भी सवाल खड़ा करता है।