बिहार में बढ़ी सियासी सरगर्मी ! एनडीए के नए नारे ने दिया बड़ा चुनावी संदेश…इसमें छिपा है बड़ा इशारा

बिहार की राजनीति फिर एक बार उस निर्णायक मोड़ पर है, जहां केवल नारे नहीं, बल्कि नैरेटिव तय करते हैं कि जनता किस पर भरोसा करेगी। चुनाव आयोग की घोषणा के साथ ही जैसे पूरे राज्य की सियासत में बिजली दौड़ गई हो। 6 और 11 नवंबर को होने वाले दो चरणों के मतदान से पहले राजनीतिक गलियारों में सबसे ज़्यादा चर्चा है भाजपा के नए नारे की। 25 से 30, हमारे दो भाई-नरेंद्र और नीतीश। यह केवल नारा नहीं, बल्कि ठोस राजनीतिक संदेश है, जिसमें 2025 से 2030 तक बिहार की स्थिरता, विकास और सुशासन की गारंटी का दावा किया गया है। एनडीए ने इस नारे के साथ यह भी साफ कर दिया है कि न तो नीतीश कुमार को हटाने का कोई खेल है, न ही किसी नए समीकरण की गुंजाइश। यही संदेश विपक्ष की सबसे बड़ी बेचैनी का कारण बन गया है।

राजद और कांग्रेस पहले से ही यह प्रचार कर रहे थे कि भाजपा चुनाव के बाद नीतीश कुमार को किनारे कर देगी। तेजस्वी यादव तो बार-बार कहते भी दिखे कि चुनाव के बाद भाजपा अपने असली रंग में आ जाएगी। लेकिन एनडीए ने इस नारे से सारी अटकलों पर ताला लगा दिया। भाजपा ने यह भी साफ कर दिया कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार एक ही लक्ष्य के दो साथी हैं- बिहार का विकास और सुशासन की निरंतरता। 

भाजपा का नारा नहीं, आत्मविश्वास की उद्घोषणा

“25 से 30, हमारे दो भाई” नारा सिर्फ प्रचार नहीं, एक आत्मविश्वास की उद्घोषणा है। भाजपा यह बताना चाहती है कि बिहार की जनता नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों पर भरोसा करती है। मोदी का राष्ट्रीय करिश्मा और नीतीश का प्रशासनिक अनुभव, यह संयोजन विपक्ष के लिए अब तक का सबसे कठिन समीकरण बन गया है।

राज्य में पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार सड़क, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सुधार हुआ है, वह एनडीए शासन की पहचान है। केंद्र और राज्य की संयुक्त योजनाओं प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला, आयुष्मान, हर घर नल का जल और अब डिजिटल ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विस्तार ने गांव-गांव में मोदी-नीतीश मॉडल को सशक्त किया है। यह नारा उन विकास कार्यों का सार है, जो नीतीश कुमार की नीति और मोदी के विज़न से उपजा है।

भाजपा का सोशल मीडिया कैंपेन पहले से ही जोर पकड़ चुका है। #14thNovNDAsarkar जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। पोस्टरों में टूटती लालटेन, जलता कमल और उस पर लिखा है जनता का विश्वास, फिर से NDA सरकार। यह सिर्फ प्रचार सामग्री नहीं, बल्कि 14 नवंबर की राजनीतिक भविष्यवाणी भी है।

एनडीए ने अपने संदेश को सटीक तरीके से जनता तक पहुंचाने का तंत्र बना लिया है। पार्टी ने कहा है कि 14 नवंबर को राजद का अंत और सुशासन की ऐतिहासिक जीत तय है। यह तारीख अब प्रतीक बन गई है दो विचारधाराओं के संघर्ष की। एक ओर विकास और सुशासन की राजनीति, दूसरी ओर परिवारवाद और भ्रष्टाचार की परंपरा।

भाजपा का यह कहना कि लालटेन बिहार की जनता से टकराकर टूटेगी न केवल एक प्रतीकात्मक वाक्य है, बल्कि संकेत है कि जनता अब उस पुराने दौर में लौटने को तैयार नहीं है, जब बिहार की पहचान अपहरण, फिरौती और जंगलराज से होती थी। उस डर के माहौल को जनता फिर से वापस नहीं लाना चाहती है।

एनडीए के नये नारे के बाद राजद ने जवाबी हमला करते हुए कहा कि 14 नवंबर को एनडीए का अंत होगा। तेजस्वी यादव ने ट्वीट किया कि 6 और 11 को एनडीए नौ-दो-ग्यारह। लेकिन उनका यह जवाब जनता को उत्साहित नहीं कर पाया। एक बात तो सत्य है कि तेजस्वी की राजनीति अब भी भावनात्मक नारों और जातीय समीकरणों के जाल में उलझी हुई है। जबकि भाजपा ने जाति से आगे बढ़कर विकास को चुनाव का असली मुद्दा बना दिया है। जनता यह समझ चुकी है कि जिनके परिवार ने बिहार को 15 साल पीछे धकेला, वे आज फिर उसी लालटेन को चमकाने की कोशिश कर रहे हैं जो समय की धूल में ढक चुकी है।

विपक्ष की हताशा और भ्रम की राजनीति

राजद-कांग्रेस गठबंधन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके पास न तो कोई ठोस चेहरा है, न ही कोई विश्वसनीय कार्यक्रम। तेजस्वी यादव अब भी उसी नारेबाज़ी में उलझे हैं बेरोजगारी हटाओ, परिवर्तन लाओ। लेकिन, जब लोग पूछते हैं कि पिछली बार की तरह क्या गारंटी है कि सरकार बनने पर वही पुराने चेले-चपाटे और माफिया वापस नहीं आएंगे, तो जवाब नहीं मिलता।

कांग्रेस की स्थिति तो और भी हास्यास्पद है। जिन राज्यों में उनकी सरकार है, वहां भ्रष्टाचार, गुटबाज़ी और विफलता का बोलबाला है, और जहां नहीं है, वहां केवल ट्वीट की राजनीति। बिहार में कांग्रेस अब केवल और एडजस्टमेंट पार्टी बनकर रह गई है, जिसे सीटें मिल जाएं, वही ठीक है। इस गठबंधन की राजनीति का कोई वैचारिक आधार नहीं, बस मोदी विरोध ही उसका एकमात्र आधार बन चुका है।

राजद की प्रचार शैली भी अब बासी हो चली है। पुराने नारों और भाषणों से जनता ऊब चुकी है। गरीब के हक की लड़ाई का दावा करने वाले जब करोड़ों की संपत्ति और आलीशान फार्महाउस में रहते हैं, तो जनता के मन में सवाल उठना स्वाभाविक है। राजद ने 14 नवंबर को जनता का दिन कहा है, लेकिन जनता का मूड इस बार उनके खिलाफ जाता दिख रहा है। बिहार के गांवों में, युवाओं और महिलाओं में, मोदी और नीतीश की जोड़ी के लिए एक स्थायी भरोसा बन चुका है।

भाजपा का संगठन, एनडीए की एकजुटता

भाजपा और जदयू की यह जोड़ी अब पहले से कहीं अधिक संगठित है। पिछली बार की तरह सीटों को लेकर गठबंधन में कोई कड़वाहट नहीं है। दोनों दलों ने समझ लिया है कि विभाजन विपक्ष को फायदा पहुंचा सकता है। यही वजह है कि हमारे दो भाई नारे में भाजपा ने नीतीश कुमार को बराबर का दर्जा देकर एक संदेश दिया हैश् यह चुनाव साझेदारी का नहीं, एकता का चुनाव है।

नीतीश कुमार के प्रशासनिक अनुभव को भाजपा ने अब अपने चुनावी प्रचार का केंद्रीय स्तंभ भी बना लिया है। नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों के चेहरों को एक साथ दिखाने वाले पोस्टर, जनता में यह संदेश दे रहे हैं कि दिल्ली और पटना की सरकारें एक ही दिशा में हैं। एनडीए के इस समन्वय की तुलना विपक्ष के अराजक गठबंधन से करें तो फर्क साफ़ दिखता है। वहां लालू यादव जेल से ट्वीट करते हैं, कांग्रेस दिल्ली से भाषण देती है और तेजस्वी बिहार में मंच सजाते हैं। लेकिन, जनता को भरोसा नहीं होता कि ये सब एक साथ मिलकर सरकार चला पाएंगे।

बिहार का बदलता मनोविज्ञान

2025 का बिहार चुनाव जातीय समीकरणों से आगे निकल गया है। एनडीए ने इस बार युवाओं, महिलाओं और पहली बार मतदान करने वाले वर्ग पर सीधा फोकस रखा है। विकास की रफ़्तार बरक़रार रखने के लिए कमल का बटन दबाएं। यह नारा ग्रामीण भारत के मन में विकास की स्थिरता की भावना को पुष्ट करता है। युवाओं के लिए स्टार्टअप, स्किल और डिजिटल योजना, महिलाओं के लिए स्वरोज़गार और सुरक्षा, किसानों के लिए पीएम किसान सम्मान निधि, यह सब सिर्फ काग़ज़ी वादे नहीं, बल्कि पिछले वर्षों में सफल योजनाओं का प्रमाण हैं।

बिहार अब उस युग से निकल चुका है जहां जाति बताओ, वोट लो चलता था। भाजपा का नारा “25 से 30” इस बात की घोषणा है कि आने वाले पांच साल अब राजनीति की नहीं, नीति की बात करेंगे।

राजद का डर और कांग्रेस की नाउम्मीदी

राजद के अंदर डर है कि 2020 की तरह इस बार भी जनता उनके वादों को झूठा साबित कर देगी। तेजस्वी भले ही नए जमाने की भाषा बोलते हों, लेकिन उनके पीछे वही पुरानी सोच चल रही है प्रशासन पर कब्जा, अफसरशाही पर दबाव और ठेकेदारी का नेटवर्क। बिहार के लोगों ने 15 साल यह सब झेला है। अब वे उस गलती को दोहराने के लिए तैयार नहीं हैं। कांग्रेस की स्थिति बिहार में हास्यास्पद इसलिए भी है कि जिन इलाकों में वह चुनाव लड़ रही है, वहां उसका संगठन नाममात्र का है। उसके पास कोई चेहरा नहीं है और न ही स्थानीय जुड़ाव। यह गठबंधन अब एक मजबूरी की जोड़ी बन चुका है, जैसे टूटी नाव पर दो सवार, जो खुद भी डूबे और दूसरे को भी ले डूबे।

भाजपा के रणनीतिकारों ने यह समझ लिया है कि इस बार चुनाव केवल सीटों का नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक बढ़त का है। जब जनता यह मान ले कि जीत तय है, तो विपक्ष का हौसला अपने आप टूट जाता है। यही स्थिति आज राजद-कांग्रेस गठबंधन की है।

बिहार की सियासत अब लालटेन बनाम कमल की परंपरागत लड़ाई नहीं रह गई। यह भविष्य बनाम अतीत की जंग है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल है, जो भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित कर रहा है, और नीतीश कुमार का सुशासन मॉडल है, जिसने बिहार को कानून-व्यवस्था, शिक्षा और बुनियादी ढांचे के स्तर पर नई दिशा दी। दूसरी ओर लालू-तेजस्वी की वह राजनीति है, जो बिहार को हमेशा अतीत के अंधेरे में ले जाती रही है।

14 नवंबर अब सिर्फ चुनाव परिणाम की तारीख नहीं, बल्कि बिहार के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक बिंदु बन चुकी है। एनडीए ने जनता को यह भरोसा दिला दिया है कि अगर 6 और 11 को वोट का बटन सही जगह दबा दिया गया, तो 14 नवंबर की सुबह बिहार फिर से उजाले में होगा और लालटेन की लौ सदा के लिए बुझ जाएगी।

एनडीए का नया नारा 25 से 30, हमारे दो भाई बिहार के चुनावी परिदृश्य में वही भूमिका निभा रहा है, जो कभी अबकी बार मोदी सरकार ने निभाई थी। यह नारा जनता की भावनाओं को सीधा छूता है। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्रीय नेतृत्व, दूसरी तरफ नीतीश कुमार का स्थायी प्रशासन। विपक्ष चाहे जितनी कोशिश कर ले, जनता अब पुराने जुमलों से भ्रमित नहीं होने वाली।

बिहार आज उस मोड़ पर है, जहां वोट केवल सरकार के लिए नहीं, बल्कि स्थिरता, विश्वास और भविष्य के लिए डाला जाएगा। इस मनोवैज्ञानिक जंग में भाजपा ने बढ़त बना ली है। राजद और कांग्रेस का अंत 14 नवंबर की तारीख में ही नहीं, बल्कि जनता के मन में पहले ही दर्ज हो चुका है।

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