अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : नारी को पूजने का ढकोसला करने की बजाय उसे संबल बनाएं

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः

जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। इसका सही अर्थ है कि जहां जननी यानि जन्म देने वाली, पालन-पोषण करने वाली यानि हमारा मूल, जड़ की इज्जत होती है, उनको सम्मान दिया जाता है, वहां देवता(बरक्कत), देवत्व यानी खुशी, प्रशन्नता, उल्लास, संतोष रमणीय हो जाता है, लेकिन जननी की ये परिभाषा संकीर्णता की आंच से ना बच सकी।

किसी की पूजा करना या किसी को पूजा के योग्य समझना का सीधा अर्थ है कि हम उस शक्ति के अहसानमंद हैं। वो धन्यवाद की पात्र है, जिसने हमें कम से कम पूजा(अच्छा काम) के लायक तो बनाया।

समय की नुकीली धार से कोई नहीं बचता है, लेकिन संकीर्णता को बचाये रखने की हमें भी जद्दोजेहद नहीं करनी चाहिए।

आज की नारी वर्तमान की नारी हैं। घूंघट, हिजाब, नकाब उसका गुजरा कल था। वो अब कल पर नहीं बनी रहनी चाहती हैं। वो आज को जीना चाहती है और जी रही है। श्रद्धा और मनु, एक कोशकीय प्राणियों से चलकर हम यहां तक आ पहुंचे हैं और यकीनन आगे भी जाएंगे, लेकिन महिलाओं के बारे में भाषण, उपदेश, कहानी, कविताएं कहीं न कहीं अति विशेषण की शिकार हुई हैं। अब हमें महिलाओं को पूजा की वस्तु के विचार को अपने मनो-मस्तिष्क से निकाल बाहर कर देना चाहिए। पूजा तो अक्सर बलि चाहती है। तो आखिर हम कर क्या रहे हैं?

हमें को अपने सोचने का स्वरूप बदलना होगा। विचारों को नये सिरे से समझकर सांझा करना होगा। समाज मे जैसे पुरुष हैं, वैसे ही महिलाएं भी। बस इतना भर। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों प्रकृति हैं और याद रखें प्रकृति सदैव संतुलन के गणित से चलती हैं। संतुलन बनाए रखने की जरूरत है, ना अधिक ना कम। नजर के साथ-साथ नजरिया बदलने की जरूरत है। बार-बार एक पर की गई टिप्पणी असंतुलन का कारण बन जाती है।

सभ्य व शिक्षित समाज  को चाहिए कि वे इस प्रकार परवरिश करें कि हम महिला-पुरुष के भेदभाव को मिटा सके। प्रकृति/सृष्टि के इस सच को स्वीकारें और पालन-पोषण,सहचर के रूप में महिलाएं अपनी भूमिका निभाते रहे। महिलाओं में विद्यमान सुंदरता, दया, करुणा, पोषणता नियामत के उपहार है और पुरूषों में संरक्षणता, जीवटता आदि गुणों को सहज रूप में लेने की जरूरत हैं। जिस दिन किसी महिला से हम आम व्यवहार कर रहे होंगे हम महिला दिवस मना रहे होंगें। किसी एक ही दृष्टि से देखना कदापि न्यायोचित नही हैं। जरूरत समीचीन की है ना कि महिलाओं के  सम्मान के नाम पर सिर्फ पूजा, आडंबर तक रखने की।

खबरें और भी हैं...

अपना शहर चुनें