भास्कर समाचार सेवा
चकरनगर/इटावा। यमुना, चंबल, सिंध, पहूज और कुंवारी आदि पांच नदियों के पवित्र महासंगम स्थल पंचनद धाम के सुप्रसिद्ध देवस्थलों में एक करन खेरा स्थित माँ हरिसिद्धी (कर्णावती) मंदिर पर प्रतिवर्ष नवरात्रियों में लगने वाले मेलें में आस्था और भक्ति का अनूठा संगम देखने को मिल रहा है। शारदीय नवरात्र के अवसर माँ के दर्शन के लिए देवी भक्तों और श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ रहा है।
बताते चलें कि 3 जनपदों इटावा,औरैया और जालौन की सीमा पर स्थित पांच नदियों के महासंगम पर स्थित मां हरिसिद्धी (कर्णावती) मंदिर पुरातात्विक,पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से आदिशक्ति पीठ है।जहां पर डाहर(राजस्थान) के राजा कर्ण और उज्जैन राज्य के संस्थापक एवं परमप्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य का गौरवमयी इतिहास क्षेत्रीय जनमानस को आज भी आन्दोलित करता है।बात 9वीं ईसवी की है,जब उज्जैन राज्य के संस्थापक एवं परमप्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य शैव एवं शक्ति साधना के प्रमुख केन्द्र परिचक्रा(चकरनगर) के एक राजा कर्ण जो 916 ईसवी में डाहर (राजस्थान) से आकर मेवों का दमन कर यहाँ बस गये थे,का अंगरक्षक हुआ करता था।शक्ति साधक राजा कर्ण हरिसिद्धी माता का परमभक्त था,और लोककल्याण की मंशा से प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में घी के खौलते कढाहे में कूदकर माँ को प्राणाहूति देता था।हरिसिद्धी माता उसकी भक्ति से प्रशन्न होकर उसे प्रतिदिन सवामन (50 किलो) सोना प्रदान करतीं थीं,जिसे वह प्रजा में बाँट देता था।इस गूँढ़ रहस्य को राजा एवं उसके अंगरक्षक के सिवा अन्य कोई नहीं जानता था।कालान्तर में व्यापक लोकहित की मंशा से बिक्रमादित्य ने भी घी के खौलते कढाहे में छलाँग लगाकर हरिसिद्धी माता को प्राणाहूति दे डाली।माता उस पर प्रसन्न हो गयी,उसने माँ को अपने साथ उज्जैन चलने को कहा तो दो भक्तों की भक्ति से दुविधाग्रस्त माँ हरिसिद्धी ने अपने आप को दो भागों में विभक्त कर दिया ,सिंहासन बत्तीसी और धड़ के साथ उज्जैन चलीं गयीं।बिक्रमादित्य ने उज्जैन पहुँचकर प्राकृतिक नव चेतना के पावन पर्व बासंतिक नवरात्रि चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा को हरिसिद्धी माता मन्दिर के साथ उज्जैन राज्य की स्थापना की।
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