आपदा राहत कार्य में भी जेंडर इक्वलिटी और समाज के सभी तबके के लोगों पर ध्यान देना ज़रूरी

  • डॉ. ईलिया जाफ़र, मानव कल्याण और विकास कर्मी

नई दिल्ली। यह तथ्य कि आपदा राहत कार्य में सभी जेंडर और समाज के सभी तबके के लोगों पर ध्यान देना जरूरी है हमारे विमर्श में अक्सर रहता है। लेकिन इस पर ज्यादा तबज्जो नहीं दिया गया है। हम वर्षों से यह मुद्दा उठा रहे हैं पर आपदा राहत योजनाओं में अभी भी महिलाओं, बच्चों, एलजीबीटी, बुजुर्गों और अन्यथा अक्षम लोगों की ज़रूरतों की अनदेखी हो रही है। इस समूह के लोग आपदाओं के दौरान कुछ खास चुनौतियों का सामना करते हैं और उनकी ज़रूरतों की अनदेखे के गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं।


आपदाओं में दम तोड़ने, घायल होने या फिर विस्थापित लोगों के उपलब्ध आँकड़े आम तौर पर उनके जेंडर के बारे में कुछ नहीं कहते हैं। आकंड़े यह नहीं बताते कि कैसे महिलाएं और बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) का यह कहना चिंताजनक है कि किसी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं और बच्चों के मरने का 14 गुना अधिक खतरा है। आज भी यही स्थिति बनी हुई है, जो आपदा राहत कार्य में एक भारी कमी को उजागर करती है।

दरअसल आपदा की घड़ी बहुत-से राहतकर्मी जेंडर इक्वलिटी और समाज के एक-एक व्यक्ति तक राहत पहंुचने पर ध्यान देने के बजाय भोजन, पानी और आश्रय जैसी अत्यावश्यकताएं पूरी करने में लग जाते हैं। हालाँकि, समाज के सभी तबकों के लोगों पर ध्यान देना अलग मसला नहीं है। यही आपदा राहत कार्य के सभी पहलुओं का आधार है। सभी जेंडर और समाज के सभी लोगों पर ध्यान देने में चूक से लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने का यह मुहिम कमज़ोर पड़ जाता है।
मिसाल के तौर पर पीड़ितों तक खाना पहंुचाने पर विचार करें। पीड़ितों के जेंडर और सामाजिक ज़रूरतों को ध्यान में रखे बिना दी गई खाद्य सहायता से बच्चों, शिशुओं, बुजुर्गों या गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की ज़रूरतें पूरी नहीं होंगी। शिशुओं के लिए कोमल, बिना तेल-मसाले का खाना, बुजुर्गों के लिए विशेष आहार और गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए तो विशिष्ट पोषण युक्त आहार चाहिए। राहत कार्य में इन ज़रूरतों को पूरा नहीं करना अधूरी खाद्य सहायता देना है।
एक अन्य चुनौती पानी की व्यवस्था करना है। पानी मिलने की कुछ खास जगह बना देना या टैंकर भेज देना यह सुनने में बहुत आसान लगता है, लेकिन समस्या की तह में जाने पर एक बार फिर महिलाओं की त्रासदी दिखती है। वैसे तो पानी इकट्ठा करने की जिम्मेदार महिलाएं निभाती रही हैं लेकिन आपदा के समय उन्हें पानी के लिए अधिक तरसना पड़ता है। पानी मिलने की जगह दूर हुई या फिर लाइन लंबी, तो घंटों इंतजार करना पड़ता है। पुरुषों से भिन्न महिलाओं एक गंभीर समस्या माहवारी और साफ-सफाई संबंधी अन्य ज़रूरतें हैं। इसे नज़रअंदाज करने से महिलाओं को भारी असुविधा होती और यह कई बार मानसिक आघात की वजह बन जाती है।
महिलाओं और लड़कियों के लिए आश्रय भी गंभीर मसला है। जाहिर है, उन्हें पुरुषों से अधिक प्राइवेसी चाहिए। कुछ राहत शिविरों में प्राइवेसी और हाइजीन के सामान कम होते हैं, लिहाजा महिलाओं और लड़कियों को किसी कोने में सिमट कर रहना पड़ता है। प्राइवेसी और शौचालय कम होने के चलते महिलाएं स्तनपान कराने से बचती हैं और यहां तक कि खाना और पानी पीने से भी परहेज करती हैं। यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। यदि लंबे समय तक शिविरों में रहना पड़ा तो पारिवारिक रिश्ते तनावपूर्ण हो सकते हैं और कभी-कभी प्राइवेसी के अभाव में हिंसा और अभद्रता के मामले भी देखे जाते हैं।
एलजीबीटीक्यूआई की अपनी अलग ही चुनौतियां हो सकती हैं। संभव है ट्रांसजेंडर लोगों को उनके लिंग के आधार पर आश्रय मिले ही नहीं। अक्सर उनकी खास ज़रूरतों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है जिसके चलते उन्हें कपड़ों के साथ बाइंडर नहीं मिल पाता है। यह भी संभव है कि ट्रांसजेंडर पुरुषों को माहवारी से जुड़ी चीजें नहीं मिले, जबकि उन्हें चाहिए। इस तरह राहत में एलजीबीटीक्यूआई का इंसानी हक नहीं मिल पाता है। वे सरासर अनदेखी के शिकार बन जाते हैं।
अब तक अनदेखी हो रहे इन मुद्दों के समाधान के लिए सबसे पहले राहत कार्य में जेंडर इक्वलिटी और समाज के सभी लोगों के हितों का ध्यान रखना होगा। राहत की योजना और नीति बनाने में समाज की मुख्यधारा से कटे लोगों से राय-मशविरा करना होगा। इससे उनकी जरूरतों का पता चलेगा। आपदा के बाद कार्य का आकलन करते हुए लिंग, आयु और शारीरिक अक्षमता के आधार पर अलग-अलग डेटा जमा करना होगा। इस तरह हम अलग-अलग सभी समूहों की जरूरतें भली-भांति समझ पाएंगे।
आपदा आने की चेतावनी देने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि देखने-सुनने या छूकर समझने से लाचार लोग भी समस्या समझ कर सावधान हो जाएं। मुआवज़ा भी परिवार के पुरुष और महिला प्रमुख को बराबर दिया जाना चाहिए। सब का मुआवजा किसी पुरुष प्रमुख को सौंप देना बड़ी भूल साबित हो सकती है। राहत और बचाव के पैकेज तैयार करते हुए सभी पीड़ित समूहों – पुरुषों, महिलाओं, एलजीबीटीक्यूआई, बुजुर्गों और विकलांग लोगों की राय लेना जरूरी है ताकि एक-एक व्यक्ति की निजी ज़रूरतें पूरी हों। उदाहरण के लिए बुजुर्गों को दवा की जरूरत हो सकती है, जबकि एलजीबीटीक्यूआई समुदाय के लोगों को उनके लिंग के अनुसार जरूरी सामाना की आवश्यकता हो सकती है।

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