श्रीराम कथा में हुआ राम जन्म और सीता-राम विवाह

स्वामी अभेदानन्द ने बताया धर्म का महत्व, विवाह करने का सही तरीका—-

अयोध्या। चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका द्वारा आयोजित अयोध्या धाम में 9-दिवसीय श्री राम कथा अपने अद्भुत चरम पर पहुंच चुकी है। स्वामी अभेदानन्द के हृदयस्पर्शी प्रवचनों तथा साधकों के असीम उत्साह के मध्य, 5 और 6 दिसंबर के दिन, कथा में श्री राम जन्म तथा सीता-राम विवाह का भव्य उत्सव मनाया गया।


नारायण अवतारी, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जन्म से पूर्व उनके अवतार का प्रयोजन बताते हुए स्वामीजी ने धर्म की परिभाषा एवं महत्त्व को स्पष्टता से प्रस्तुत किया। धर्म वह है जो सभी को साथ बंधता है, जो सभी में सामंजस्य तथा समरसता बनाकर रखता है, तथा एक प्रणाली के सभी अंगों को ईश्वर के प्रति एक श्रेष्ठ लक्ष्य के साथ समर्पित रखता है। ‘धर्म-निरपेक्षता’ के विकृत विचार की निंदा करते हुए स्वामीजी ने डंके की चोट पर यह कहा कि भारत में वक्फ, मंदिर, जनसंख्या इत्यादि के संदर्भ में नियमों के अभाव के कारण ही अधर्म हुआ है। सनातनियों में संकर का कारण भी स्वामीजी ने गुरुकुल प्रणाली, गुरु-शिष्य परंपरा, एवं सामाजिक धर्मों के विलय को ही बतलाया। इन्हीं सब मनुष्य धर्मों की रक्षा करने के लिए एवं हम सभी के समक्ष एक नित्य आदर्श रखने के हेतु से, और अपने भक्तों की प्यास के फलस्वरूप, भगवान राम ने अवतार लिया।

राजा दशरथ और सभी रानियाँ, तथा देवताओं और संतों की प्रतिक्षा की मार्मिक कथा बताते हुए स्वामीजी ने भगवान श्री राम का जन्म करवाया। सभी शिविरार्थी इस उत्सव में झूम उठे, चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका से कथक नृत्य में प्रवीण कृति लाला ने नाट्य प्रस्तुतियाँ अर्पित की। इसके उपरांत सभी श्रोताओं ने साथ मिलकर भगवान के जन्म की शुभ बेला मनाते हुए सामूहिक नृत्य किया। स्वामीजी द्वारा ‘भय प्रगट कृपाला’ के सुंदर गायन के साथ, बाल भगवान राम की दिव्य आरती हुई।
कथा के अगले दिन, 6 दिसंबर को स्वामीजी दैवीय नक्षत्रों के साथ ही कथा में आगे बढ़े! विवाह पंचमी की इस शुभ तिथि पर, स्वामी अभेदानन्दजी ने भी इस अभूतपूर्व राम कथा में भगवान राम और माता सीता का विवाह करवाया। स्वामीजी ने इस प्रसंग का महत्त्व बताते हुए यह कहा कि साधक होने के तौर पर, अपने व्यक्तिगत अहंकार को त्यागते हुए अपने सभी शक्तियों और संपत्तियों को हृदय से ईश्वर को समर्पित करना, यही शक्ति और शक्तिमान का मिलन है, और सीता-राम विवाह का तत्त्व है।
इसी संदर्भ में स्वामीजी ने विवाह की महिमा तथा उसके पीछे के गूढ़ दर्शन का अवलोकन करते हुए सभी श्रोताओं को अवाक और स्तब्ध कर दिया। स्वामीजी ने बेबाक रूप से, शास्त्रों को आधार बनाते हुए, अपनी पसंद से और परिवार के इच्छा के विरुद्ध विवाह करने की आधुनिक परंपरा का सीधा विरोध किया। स्वामीजी ने कहा कि, “जीवन पर्यंत प्रत्येक व्यक्ति की प्रगति में अनेकों लोगों का योगदान रहा है, जिसमें माता-पिता, परिवार, गुरु, समाज इत्यादि सभी का सहयोग है। इन सभी के आशीर्वाद से करा गया विवाह ही उचित और स्थिर रहता है।” आगे बढ़ते हुए स्वामीजी ने कहा कि, “विवाह के आयोजन में सुसंपन्न उत्सव मनाना भी आवश्यक है, जिसके द्वारा हम सभी संबंधों, समाज, तथा सभी सहयोगियों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। उत्सव के दोनों ही पहलू आवश्यक है, वैदिक और लौकिक। वैदिक रीतियों से विवाह में धर्म, नियम और परमार्थ की स्थापना होती है, और लौकिक प्रक्रिया जैसे जूता-छिपाई इत्यादि अनौपचारिक रिवाजों से, प्रेम, एकता और समरसता बढ़ती हैं।” स्वामीजी ने इस बात पर बहुत बल दिया कि एक अच्छे, सुखमय, और दृढ़ संबंध के लिए, न केवल परिवार और मित्र अपितु पूरे समाज, पितर, देवी-देवता, यहां तक कि भूत, प्रेत, किन्नर, यक्ष, वनस्पति इत्यादि सभी से आशीर्वाद लेना आवश्यक है, और ऐसे दिव्य, संस्कृत, और आशीर्वाद-पूर्ण संयोग से ही महात्माओं और महान विभूतियों का जन्म संभव होता है, और संबंध में प्रसन्नता बनी रहती है। कन्यादान, दहेज, और ऐसे अन्य विषयों पर भी स्वामीजी ने एक अनोखे और तर्कपूर्ण रूप से सत्य को प्रकाशित किया। सभी श्रोताओं का एक ही स्वर में यह कहना था कि स्वामीजी द्वारा यह व्याख्या आज के सभी युवाओं तक पहुंचना अत्यंत आवश्यक है।
देवी सीता एवं श्री राम का दिव्य विवाह मनाते हुए सभी शिविरार्थियों को एक आमंत्रण पत्र उपहार स्वरूप दिया गया, और सभी सज धज कर बड़े धूम धाम से इस दैवीय पल का उत्सव मनाए।

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