अयोध्या धाम में स्वामी अभेदानन्द ने किया रामायण के चरित्र का अनोखा वर्णन


–रामनगरी में अनवरत बह रही रामकथा रुपी गंगा
अयोध्या। चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका द्वारा आयोजित अयोध्या में श्री राम कथा शिविर का छठा दिवस 8 दिसंबर को पूर्ण हुआ। सभी श्रोताओं को रामचरितमानस की यात्रा करा रहे पूज्य स्वामी अभेदानन्द (आचार्य, चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका) ने, रामायण के सिद्धांतों को आज की दुनिया और जीवन से जोड़ते हुए सभी को मंत्रमुग्ध किया।

भगवान राम के वन गमन का वर्णन करते हुए स्वामीजी ने इस बात को प्रकाशित किया कि भगवान राम ने बिना किसी झिझक के त्याग दर्शाया, और मुस्कुराहट के साथ, बिना अपना हक जताए, अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। स्वामीजी ने इस सिद्धांत को विस्तृत रूप से बताते हुए कहा, “आज के समाज और शिक्षा प्रणाली का दुर्भाग्य यही है कि वह हमें अपना अधिकार मांगना सीखती है, पर कर्तव्य पूर्ति का ज्ञान नहीं देती। कर्तव्य सदैव अधिकार से ऊपर होना चाहिए, तभी समाज में सब सामंजस्य, प्रेम और एकता के साथ रह सकते हैं।” भगवान राम के चरित्र से सीखने के लिए है त्याग, कर्तव्य, धर्म, और करुणा के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत। अपने व्यक्तिगत अहंकार का विस्तार करते हुए हम दूसरे का अधिकार छीन लेते हैं। किंतु भगवान राम से हमें यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि कैसे हम अपने अहंकार और हक को त्यागकर, दूसरों को प्रेम और अधिकार दें, जैसे श्री राम ने केवट, भील, निषादराज, कोलकिरात इत्यादि को दिया।

आगे बढ़ते हुए स्वामीजी ने रामायण के एक ऐसे अद्भुत चरित्र की व्याख्या करी जिनके बारे में साधारणतया हम अनभिज्ञ ही रहते हैं: महात्मा श्री भरत। ननिहाल से लौटे श्री भरत की प्रतिक्रियाओं का वर्णन करते हुए स्वामीजी ने धर्म और धर्मसार का अंतर स्पष्ट किया। राजा दशरथ की वचनबद्धता और कैकेयी के वरदान के परिणामस्वरूप, श्री राम को अवैध तौर पर वनवास देना और भरत को राजा बनाना, यह वास्तव में मिथ्या धर्म था। श्री भरत ने इसे भली भांति पहचान लिया और सभी गुरुजनों और प्रजाजनों को भी इस बात का बोध कराया, कि उनका सिंहासन पर बैठना अनुचित ही था, और राज्य का अधिकार श्री राम का ही था! यही धर्मसार, अर्थात धर्म का वास्तविक रूप या तत्त्व है, जिसके आचार्य भरत हैं। स्वामीजी ने कहा कि, “धर्म वह है जो आंतरिक शांति और बाह्य समरसता उत्पन्न करे, जिसकी नींव त्याग हो, और जिससे दूसरों का हमपर विश्वास बढ़े। धर्म के स्वरूप को समझना अत्यंत आवश्यक है, और इस समझ का अभाव ही वह कारण है जिससे राजा दशरथ ने श्री राम के वनवास का अनुचित निर्णय किया, और महाभारत में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण ने द्रौपदी के निर्वस्त्र होने पर भी मौन साधा।”
श्री भरत की महिमा बताते हुए स्वामीजी ने वर्णित किया कि भले ही वे श्री राम को वापिस लाने के हेतु से चित्रकूट गए थे, किंतु उन्होंने अपने किसी भी आशय या विचार पर हठ नहीं किया और सदैव उसे ही स्वीकारा जो उनके इष्ट की इच्छा थी। बिना श्री राम के, पर उनकी पादुकाओं को अपने शीष पर धारण करते हुए, भरत अयोध्या पुनः लौटे और आने वाले 14 वर्षों में उन्होंने सिंहासन पर विराजमान उन पादुकाओं से बात कर-कर के राज्य की देखभाल की, और वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब भगवान राम अंत में लौटे तो अयोध्या की अर्थव्यवस्था में 10 गुना प्रगति हो चुकी थी! किंतु इस प्रगति की नींव वह राम राज्य है जिसे श्री भरत ने अपने त्याग, धर्म, और राम-नाम स्मरण से प्रस्थापित किया।

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