साल 1948 की बात है। यहूदी नेता डेविड बेनगुरियन ने भूमध्य सागर के पार अरब मुस्लिमों के बीच फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक नए देश इजराइल की घोषणा कर दी। इसके बाद से अब तक अपना अस्तित्व बचाने के लिए इजराइल ने 75 साल में 7 जंग लड़ीं हैं।
हालांकि, जिस फिलिस्तीन की जमीन पर इजराइल बनाया गया, वो जगह देश बनाने के लिए यहूदी नेताओं की पहली पसंद नहीं थी। 1894 की बात है, फ्रांस में एक यहूदी सैनिक पर देश से गद्दारी करने का आरोप लगाया गया। इस सैनिक का नाम अल्फ्रेड ड्रेफस था। अक्टूबर 1894 में फ्रांस की खुफिया एजेंसी ड्यूक्सिएम ब्यूरो को पेरिस में जर्मन दूतावास के बाहर डस्टबिन से एक लेटर मिला। ये लेटर मिलते ही ड्रेफस को गिरफ्तार कर लिया गया।
दरअसल , दूतावास के बाहर से जो लेटर मिला था उसमें कई सीक्रेट दस्तावेजों की जानकारी का जिक्र किया गया था। ऐसा माना गया कि इसके जरिए जर्मनी को फ्रांस की गुप्त जानकारी दी जा रही थी। जांच करने वालों का शक सबसे पहले तोपखाने में काम करने वाले यहूदी सैनिक अल्फ्रेड ड्रेफस पर गया। उस पर शक की वजह सिर्फ इतनी थी कि कूड़ेदान से मिले लेटर की लिखावट ड्रेफस की लिखावट से मेल खाती थी। इसके अलावा फ्रांसीसी सेना के पास कोई दूसरा सबूत नहीं था। उसके गिरफ्तार होने की वजह सिर्फ ये थी कि ड्रेफस यहूदी था।
उस समय फ्रांसीसी अखबारों के पन्ने यहूदियों के खिलाफ नफरत से भरे रहते थे। उन्हें शक की निगाह से देखा जाता था। यूरोप में संपन्न समुदाय होने के बावजूद उनसे नफरत की जाती थी। ड्रेफस की गिरफ्तारी के बाद उनका कोर्ट मार्शल हुआ। उन्हें उम्र कैद की सजा दी गई। हालांकि, 2 साल बाद ही फ्रांसीसी सेना के कर्नल जॉर्ज पिकार्ट के हाथ कुछ सबूत लगे, जिससे पता चला कि असली गुनाहगार ड्रेफस नहीं बल्कि फ्रांसीसी सेना का मेजर फर्डिनांड वाल्सिन था। सच्चाई जानने के बावजूद सेना में बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों ने मामला दबाने की कोशिश की।
फर्डिनांड वाल्सिन को दो ही दिन में बरी कर दिया गया। हालांकि, एमिल जोला नाम के एक पत्रकार ने ड्रेफस के लिए आवाज उठाई । सरकार पर दबाव बना और 1899 में ड्रेफस का ट्रायल फिर शुरू हुआ और उसे बेगुनाह मान लिया गया।
फर्डिनांड वाल्सिन को दो ही दिन में बरी कर दिया गया। हालांकि, सरकार पर दबाव बना और 1899 में ड्रेफस का ट्रायल फिर शुरू हुआ और उसे बेगुनाह मान लिया गया। इस दौरान यहूदियों के विरोध में फ्रांस में कई जगहों पर दंगे हुए। सोसयटी दो गुटों में बंट गई। एक वो था जो ड्रेफस का समर्थन करता था और दूसरा वो जो यहूदियों से नफरत करते थे।
यूरोप में यहूदियों से नफरत के बीच अलग देश की खोज
1896 में ड्रेफस केस के बाद जायोनिस्ट नेताओं ने ये मान लिया था कि अब यूरोप में यहूदियों का रहना मुश्किल होने वाला है। जायोनिस्ट वो नेता थे जो यहूदियों के लिए एक अलग देश बसाने की मांग करते थे। जायोनिस्ट मूवमेंट का जनक थियोडोर हर्जेल को माना जाता है। वे जर्मनी के एक रईस परिवार से ताल्लुक रखते थे। हालांकि, अमीरी भी उन्हें उस नफरत से नहीं बचा पाई जो उन्हें यहूदी होने के वजह से मिलती थी।
ड्रेफस के मामले के बाद 1903 में एक बार फिर यूरोप में यहूदियों पर संकट आया। ईस्टर के दिन मोलदोव के किशिनेव में 49 यहूदियों का कत्ल हुआ। महिलाओं से रेप किया गया। इस घटना ने पूरे यूरोप में यहूदियों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या उन्हें वहां रहना चाहिए। मोलदोव की दिल दहला देने वाली घटना के बाद जायोनिस्ट नेता ने अपनी छठी बैठक की। इस दौरान उन्होंने दूसरे यहूदी नेताओं से कहा- क्यों न हम ईस्ट अफ्रीका में अपने लिए एक देश बसाएं।
दरअसल, इस बैठक से पहले ही हर्जेल ने ब्रिटिश एम्पायर के साथ एक डील की थी। इसके तहत यहूदियों के लिए युगांडा में एक देश बनाने की बात को मंजूरी मिली। हर्जेल का कहना था कि जब तक यहूदियों के लिए फिलिस्तीन में अपना देश बसाने के लिए सही हालात नहीं बन जाते, तब तक वे युगांडा में बस जाएंगे, ताकि फिलिस्तीन के इंतजार में यूरोप में उनके और लोग न मारे जाएं।
हर्जेल के इस प्रस्ताव को जायोनिस्ट पार्टी ने मंजूरी दी। जायोनिस्ट कांग्रेस के 295 नेताओं ने इस बात को मंजूरी दी कि युगांडा में जाकर बसा जा सकता है। हालांकि, कांग्रेस के 178 यहूदी ऐसे थे जो इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने हर्जेल को गद्दार तक कह दिया। इससे पहले कि प्रस्ताव पास होता, ईस्ट अफ्रीका से होकर आए डेलीगेशन ने कह दिया कि युगांडा यहूदियों के रहने लायक जगह नहीं है।
आखिर में फिलिस्तीन में इजराइल बनने की कहानी
साल 1917 की बात है। ब्रिटेन ने ‘बाल्फोर डिक्लेरेशन’ नाम के एक समझौते के जरिए फिलिस्तीन को बांटकर यहूदियों के लिए एक देश बनाने का वादा किया। ब्रिटेन के इस वादे का फिलिस्तीन के लोगों ने जमकर विरोध किया।
ये वो समय था जब यहूदी अपने लिए एक अलग देश की मांग कर रहे थे। इस डिक्लेरेशन के बाद ही अलग-अलग देशों से यहूदी फिलिस्तीन आकर यरुशलम और इसके आसपास के इलाकों में बसने लगे। दरअसल, यहूदी धर्म के लोगों का मानना है कि यहूदियों का पवित्र मंदिर ‘द होली ऑफ द होलीज’ इसी जगह पर हुआ करता था।
आज भी वहां मौजूद ‘वॉल ऑफ द माउंट’ उसी मंदिर का हिस्सा है। इसलिए यहूदी इस जगह को अपनी मातृभूमि मानते हैं। यरूशलम और इसके आसपास के शहरों को ऑटोमन, रोमन साम्राज्य और उसके बाद कई बार हमले कर उजाड़ा गया है।
जब दुनियाभर के यहूदी यहां आकर बसने लगे तो 1939 में उनके खिलाफ फिलिस्तीन में आंदोलन शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीनी लोगों के इस आंदोलन को पूरी ताकत से कुचल दिया। अब फिलिस्तीन के लोगों की लड़ाई अंग्रेजों और यहूदियों दोनों से थी। वहीं हिटलर और उसकी नाजी सेना यूरोप में यहूदियों का जनसंहार कर रही थी।
इसके चलते यूरोप के अलग-अलग देशों में बसे यहूदियों के लिए एक देश की जरूरत और बढ़ गई। न्यूयॉर्कर की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे हालात में यूरोप ने यहूदियों को बसाने की जिम्मेदारी फिलिस्तीन पर डाल दी। 1945 आते-आते यहूदियों और फिलिस्तीनियों में टकराव काफी ज्यादा बढ़ गया।
यरूशलम और इसके आस-पास के इलाके में रोज फिलिस्तीनी और यहूदियों के बीच लड़ाई होने लगी। फिलिस्तीन में हो रही हिंसा को देखते हुए ब्रिटेन ने ये मामला संयुक्त राष्ट्र संघ यानी UN के पास भेज दिया। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने इस लड़ाई को रोकने के लिए फिलिस्तीन को दो देशों में बांटने का फैसला किया।
29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव संख्या 181 के जरिए यह फैसला लिया था। इस प्रस्ताव के तहत, यरूशलम को संयुक्त राष्ट्र के तहत अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण के अधीन रखने का फैसला किया गया। 1947 में UN ने फिलिस्तीन और इजराइल को लेकर एक मैप जारी किया, जिसे आप नीचे देख सकते हैं।
1948 की शुरुआत में यहूदियों ने फिलिस्तीन के कई गांवों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद आखिरकार 14 मई 1948 को नया देश इजराइल बना। इतिहासकार बेनी मॉरिस अपनी किताब ‘द बर्थ ऑफ द रिवाइज्ड फिलिस्तीनी रिफ्यूजी प्रॉब्लम’ में लिखते हैं कि इस बंटवारे के बाद 7 लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था।
इन लोगों से इनका देश छिन गया था। इनमें से कई लोग घरों पर ताला लगाकर गए थे कि दोबारा सब कुछ अच्छा होने पर वो यहां लौट आएंगे। हालांकि, ऐसा नहीं हो पाया।