लखनऊ। पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेई अयोध्या का श्रीराम जन्मभूमि विवाद आपसी बातचीत के जरिये सुलझाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री रहते काफी प्रयत्न भी किया। कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य ब्रह्मलीन स्वामी जयेन्द्र सरस्वती को उन्होंने मध्यस्थ बनाया था। हिन्दू व मुस्लिम पक्षकारों की ओर से कई दौर की वार्ताएं हुईं लेकिन नतीजा सिफर निकला।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यालय में एक अयोध्या विभाग शुरू किया था। इस विभाग का काम विवाद को सुलझाने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों से बातचीत करना था। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को हिन्दू और मुसलमान नेताओं के साथ बातचीत के लिए नियुक्त किया गया था।
अटल बिहारी बाजपेई के ही कार्यकाल में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने खुदाई शुरू की। मुस्लिम पक्षकार यह कह रहे थे कि अगर खुदाई में यह सिद्ध हो जाए कि वहां पर मंदिर था तब हम दावा छोड़ देंगे। विशेषज्ञों ने बताया कि मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं, लेकिन मुस्लिम पक्ष तैयार नहीं हुआ।
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय (2002) श्रीराम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अधिग्रहीत क्षेत्र में शिलादान का कार्यक्रम घोषित किया था। तब उन्हें न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए ऐसा न करने के लिए राजी किया गया था।
अटल के कार्यकाल में वार्ताओं के क्रम से लग रहा था कि विवाद का समाधान हो जायेगा। अन्ततः विवाद नहीं सुलझ सका।
वहीं विकास के नक्शे पर अयोध्या की पहचान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की देन है। वे सरयू नदी पर बने रेल पुल के लोकार्पण के लिए अयोध्या-फैजाबाद खुद आए। यहां के लिए यह उनकी अंतिम यात्रा साबित हुई। हवाई पट्टी के मैदान में जनता ने उनका ओजस्वी भाषण सुना। दोपहर में सभा होने के बावजूद मैदान में एक लाख के आसपास भीड़ जमा थी।
अटल ने प्रधानमंत्री रहते न केवल रेल पुल का लोकार्पण किया, बल्कि लखनऊ-गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के साथ अयोध्या में फोरलेन पुल देकर यहां के विकास को नया आयाम दिया था।
अयोध्या मसले पर विहिप से बढ़ी थी तल्खी
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में राम मंदिर के मसले को लेकर उनके और विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं के बीच तल्खी बढ़ गयी थी। कारण था कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विहिप की दखल बिल्कुल नहीं चाहते थे। विहिप सरकार से मंदिर निर्माण का विधेयक संसदने की मांग कर रही थी। अटल की मजबूरी थी कि सरकार में कई दलों के लोग शामिल थे। वह बातचीत के जरिए विवाद निपटाना चाहते थे। जानकारों की मानें तो 2004 में भाजपा की पराजय का प्रमुख कारण विहिप का सरकार के प्रति आक्रामक रवैया अपनाना था। तत्कालीन विहिप के अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष ने 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले कई सभाओं में कहा था कि अगर जरूरत पड़ी तो नये राजनीतिक दल का गठन भी किया जा सकता है। हालांकि आरएसएस की वजह से नया राजनीतिक दल अस्तित्व में नहीं आया लेकिन अटल के प्रति वह नरम नहीं पड़े।
अटल बिहारी वाजपेयी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाह रहे थे। अशोक सिंहल स्पष्ट कह रहे थे कि विकास के मुद्दे पर आप चुनाव नहीं जीत सकते हैं। जनता राम मंदिर का निर्माण चाहती है। अटल नहीं माने और चुनाव में भाजपा की पराजय हुई। यहां तक कि अशोक सिंहल व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच बातचीत भी बन्द हो गयी थी।
विहिप के प्रान्तीय मीडिया प्रभारी शरद शर्मा के मुताबिक श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत रामचन्द्र दास परमहंस के निधन पर सरयू तट पर अटल का पूरा मंत्रिमण्डल उपस्थित था। श्रद्धांजलि सभा के मंच पर आयोजकों ने प्रधानमंत्री अटल व विहिप अध्यक्ष अशोक सिंहल की कुर्सी एकदम बगल में लगाई गयी। इसके बावजूद अशोक सिंहल ने अटल की तरफ देखा तक नहीं।
इन कारणों से बढ़ी अटल व विहिप के बीच दूरियां
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 फरवरी,2002 को कहा कि दोनों पक्षों के रवैये के कारण हल अब कोर्ट के जरिए ही संभव होगा। विहिप ने शिलादान कार्यक्रम की घोषणा कर रखी थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने 11 मार्च,2002 को संसद को आश्वस्त किया कि विवादित भूमि पर सांकेतिक पूजा के मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करेगी। प्रधानमंत्री अटल से मुलाकात के बाद भी शंकराचार्य ने 26 जून,2002 को कहा कि वाजपेयी सरकार ने कुछ नहीं किया। परमहंस रामचंद्र दास ने कहा अगर मुझे रोका गया तो मैं प्राण त्याग दूंगा लेकिन मैं राम के दर्शन और पूजन के लिए अवश्य जाउंगा। परमहंस का कहना है कि राजनीति, संसद या अदालत से उनका कोई लेना-देना नहीं है, वे राम के सिवा किसी और को नहीं मानते।
शिलादान कार्यक्रम की घोषणा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल वाजपेयी सरकार ने परमहंस रामचन्द्र दास से सुप्रीम कोर्ट के अधिग्रहीत परिसर में यथास्थिति बनाए रखने के आदेश का हवाला देते हुए शिला को परिसर या उसके आसपास नहीं ले जाने का आग्रह किया था।
सरकार की ओर से सांसद विनय कटियार, भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी नवनीत सहगल, राजा अयोध्या विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्र और लखनऊ जोन के तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक हरभजन सिंह ने परमहंस रामचन्द्र दास को अधिग्रहीत परिसर में शिलादान नहीं करने के लिए अंतिम समय तक मनाने में लगे रहे। तय तारीफ को लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे और सरकार ने शिलादान कार्यक्रम नहीं होने दिया। यहां तक कि विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंहल और महंत रामचन्द्र दास परमहंस के साथ पुलिस ने धक्कामुक्की की और रामभक्तों पर लाठीचार्ज किया। केन्द्र में भाजपा सरकार होने के बावजूद रामभक्तों पर लाठीचार्ज होने से अयोध्या के संत महंत और विहिप पदाधिकारी बहुत नाराज हुए। अंततः अयोध्या के दिगम्बर अखाड़ा मंदिर में प्रधानमंत्री कार्यालय में स्थापित अयोध्या प्रकोष्ठ के प्रभारी और आईएएस अधिकारी शत्रुघ्न सिंह ने शिला को ले लिया था।