पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस नियम, 2025 का मसौदा : खूबियां और खामियां


मधुर बया, एडवोकेट और लेक्सआर्बिट्री के संस्थापक

ऊर्जा क्षेत्र और खास तौर पर हाइड्रोकार्बन अन्वेषण एवं उत्पादन हमेशा से ही भारत सरकार के एजेंडे में शीर्ष प्राथमिकता वाला विषय रहा है। वास्‍तविकता यह है कि भारत अभी भी अपनी खपत का 90% कच्चा तेल का आयात करता है जिससे यह क्षेत्र विशेष रूप से ध्यान आकृष्‍ट कराता है। हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और उत्पादन का महत्व बढ़ती घरेलू मांग, घटते घरेलू उत्पादन और बढ़ती भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं के कारण पैदा हुए असंतुलन से और भी अधिक बढ़ गया है।

भारत में सभी हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और उत्पादन, चाहे वह सरकारी स्वामित्व वाले उपक्रमों द्वारा किए जा रहे हों या विदेशी/निजी ऑपरेटरों द्वारा, का संचालन और विनियमन तेल क्षेत्र (विनियमन और विकास), अधिनियम 1948 (“अधिनियम”) और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस नियम, 1959 (“नियम”) के प्रावधानों द्वारा किया जाता है। देश के अन्वेषण एवं उत्पादन क्षेत्र की बदलती जरूरतों को प्रतिबिंबित करने के लिए अधिनियम और नियमों में समय-समय पर संशोधन किया गया है, जिसमें निजी और विदेशी ऑपरेटरों को इस क्षेत्र में प्रवेश देना, कोल बेड मीथेन, शेल गैस, शेल ऑयल और अन्य हाइड्रोकार्बन को शामिल करना तथा नीतियों में बदलाव शामिल हैं। सदी के अंत में सबसे पहले नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति लाई गई थी और हाल ही में हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और लाइसेंसिंग नीति आई तथा इसके समानांतर नॉमिनेशन व्यवस्था, उत्पादन साझेदारी अनुबंध व्यवस्था से लेकर खुले क्षेत्रफल लाइसेंसिंग आधारित राजस्व साझेदारी अनुबंध व्यवस्था शामिल हैं। इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उद्योग के लिए विधायी ढांचा थोड़ा पुराना हो गया है। अधिनियम लगभग 70 साल पुराना है और नियम 11 साल पुराने हैं। बीते दशक के दौरान ऊर्जा क्षेत्र में वैश्विक, क्षेत्रीय और स्थानीय विकास की पृष्ठभूमि में विधायी ढांचे को अपडेट करने के लिए सरकार ने 15 अप्रैल, 2025 को अधिनियम में संशोधन किया है ताकि ‘कच्चे तेल’ और ‘प्राकृतिक गैस’ केंद्रित व्यवस्था से हटकर व्यापक ‘खनिज तेल’ की व्यवस्था पर ध्‍यान दिया जा सके और जो खनिज तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हाइड्रोकार्बन ऊर्जा की व्यापक श्रृंखला को कवर करता है। इसी को ध्‍यान में रखते हुए पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने प्रतिक्रिया और सुझाव हेतु हाल ही में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस नियम, 2025 का मसौदा (“पीएनजी नियमों का मसौदा”) प्रकाशित किया है। सरकार का इरादा पुराने नियमों की जगह इसे लागू करने का है।

यह जानकर वास्तव में प्रसन्नता हो रही है कि सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र के बदलते परिदृश्य को प्रतिबिंबित करने के लिए नियमों में एक बार फिर से फेरबदल करने के बजाय, नए सिरे से नियम बनाने का निर्णय लिया है लेकिन मेरे विचार से मसौदे में जितनी खूबियां हैं, उतनी खामियां भी हैं।

आइए, इसके सकारात्‍मक पहलुओं पर नजर डालते हैं (ये केवल उदाहरण के लिए हैं) – भारत की ऊर्जा सुरक्षा जरूरतों और उत्पादन को शीघ्रतापूर्वक तथा किफायती तरीके से अधिकतम करने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, मसौदा नियमों में सबसे पहले, किसी भंडार के सभी भागों से उत्पादन के लिए प्राधिकरण की बात कही गई है, जिसमें अनुबंध क्षेत्र की भौगोलिक सीमा से आगे के भाग भी शामिल हैं और इस उद्देश्‍य के लिए, जहां भी संभव हो, पट्टा क्षेत्र का विस्तार या पट्टा क्षेत्रों का विलय किया जाए और, दूसरा, ऊर्जा हाइड्रोकार्बन के पूरे क्षेत्र में खनिज तेल संचालन के लिए मौजूदा पट्टों और अनुबंधों के तहत अधिकारों का विस्तार किया जाएगा।

एक और बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि प्रशासनिक निर्णय लेने में पारदर्शिता और तार्किक बनाने का स्पष्ट संकेत मिलता है, जिसके तहत् सरकार के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि यदि कोई आवेदन अस्वीकार किया जा रहा है या पट्टेदार/ठेकेदार को अंतरराष्ट्रीय पेट्रोलियम उद्योग की सर्वोत्‍तम कार्यप्रणालियों का पालन करते हुए कुछ कार्य करने या न करने का निर्देश दिया जा रहा है, तो उसका कारण लिखित में बताया जाए।

पीएनजी नियमों के मसौदे में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है, जिसमें वायुमंडल में गैस उत्सर्जन के बजाय जलाशय में निक्षेपण के प्रावधान किए गए हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता व्यापक या एकीकृत ऊर्जा परियोजनाओं के विकास का प्रस्ताव है जो संभवतः अक्षय ऊर्जा के उत्पादन को पारंपरिक ऊर्जा अन्वेषण और उत्पादन के साथ एकीकृत कर सकती है।

दूसरी ओर, एक सबसे बड़ी चूक इस सुधार के मूल उद्देश्य यानी हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में व्यापार करने में आसानी में सुधार लाने के लिए प्रतिकूल साबित हो सकती है, वह है सरकार द्वारा विभिन्न शर्तों और अनुबंध के प्रावधानों को इस तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है जो मौजूदा अनुबंधों से भिन्न हैं, जिसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से सभी अनुबंधों में एकरूपता लाना है। इसका प्रावधान भले ही अच्‍छे इरादे से किया गया हो लेकिन इसे सरकार के अनुकूल तरीके से अनुबंधों को नए सिरे से तय करने का छिपा हुआ प्रयास माना जा सकता है। हालांकि नियमों में यह प्रावधान है कि टकराव की स्थिति में, मौजूदा अनुबंध या पट्टे और नियमों के बीच अधिक लाभकारी या कम नुकसानदेह व्यवस्था लागू होगी, लेकिन यह हमेशा संभावित गैर-उद्देश्यपूर्ण एवं विषम व्याख्या के अधीन होता है कि क्या अधिक लाभकारी या कम नुकसानदेह है और किसके दृष्टिकोण से? इससे भविष्य में मुकदमेबाजी के मामले बढ़ सकते हैं, जबकि सरकार का लक्ष्‍य इस तरह के मुकदमेबाजी को कम करना है।

एक और चूक यह है कि यदि ठेकेदार/पट्टाधारक सरकार द्वारा तैयार की गई एकीकृत योजना से सहमत नहीं होता है तो उसे पट्टा/अनुबंध क्षेत्र को जबरन छोड़ना पड़ सकता है।

हमारे विचार में इस तरह की खामियां इस क्षेत्र में विदेशी और घरेलू निवेश को हतोत्साहित करेंगे क्योंकि हर निवेशक यह सुनिश्चित करना चाहेगा कि सहमत सौदे को उसके हितों के विरुद्ध और अस्पष्ट आधारों पर पिछली तिथि से नहीं बदला जाए। अधिनियम की अनुसूची में बहिष्करणीय स्पष्टीकरण नोट को सम्मिलित करके रॉयल्टी की गणना करने के मूल्य को प्रभावित करने के सरकार के पिछले प्रयास हाइड्रोकार्बन अन्‍वेषण एवं विकास उद्योग के साथ अच्छे नहीं रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ऊर्जा क्षेत्र पूंजी-प्रधान है और अधिक विवाद और अनिश्चितता से निवेश दूर भागेगा। भारत को मुकदमेबाजी के एक और भानुमती के पिटारे को खोलने से बचना चाहिए, क्‍योंकि ऐसा होने से देश की प्रगति को ‘ईंधन’ देने वाले उद्योग से ‘ऊर्जा’ को खत्म कर देगा! भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में बहुत प्रगति की है लेकिन यह वास्तव में पारंपरिक ऊर्जा के लिए आयात पर निर्भरता कम करने के लिए काम कर सकता है। इसके लिए, उद्योग-अनुकूल विनियामक व्यवस्था अनिवार्य शर्त है।

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